शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

20 दिसंबर की महत्वपूर्ण घटनाएं



महात्मा गांधी का प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन 


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की छत्तीसगढ़ की प्रथम यात्रा 20 दिसंबर 1920 को हुई थी, जिसमें वे पंडित सुंदरलाल शर्मा के साथ रायपुर आए थे। धमतरी के कण्डेल सत्याग्रह (नहर सत्याग्रह) के लिए आए गांधीजी ने इस यात्रा के दौरान रायपुर में सभाएं कीं और लोगों को असहयोग आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, जिससे पूरे अंचल में स्वतंत्रता की अलख जगी। रायपुर स्टेशन पर आगमन के बाद, उन्होंने आज के गांधी चौक पर सभा की तथा रायपुर के आनंद वाचनालय (ब्राह्मणपारा) में महिलाओं को संबोधित किया, जहाँ महिलाओं ने उन्हें तिलक स्वराज फंड के लिए अपने गहने भेंट किए।


रॉबर्ट क्लाइव बंगाल के पहले गवर्नर नियुक्त 


1757 ई. में प्लासी के युद्ध में विजय के पश्चात रॉबर्ट क्लाइव को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल का पहला गवर्नर नियुक्त किया गया। यद्यपि उस समय औपचारिक प्रशासन नवाब के नाम पर चलता रहा, परंतु वास्तविक सत्ता कंपनी और क्लाइव के हाथों में केंद्रित हो गई। रॉबर्ट क्लाइव की भूमिका ने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की संस्थागत नींव रखी, जिसके कारण क्लाइव को भारत में ब्रिटिश सत्ता का संस्थापक माना जाता है।


• 61वाँ संविधान संशोधन से मताधिकार की आयु 18 वर्ष 


भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में युवाओं को अधिक व्यापक भागीदारी का अवसर देने के उद्देश्य से 61वें संविधान संशोधन द्वारा लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई। यह परिवर्तन अनुच्छेद 326 में संशोधन के माध्यम से किया गया। संसद द्वारा यह संविधान संशोधन अधिनियम 20 दिसंबर 1988 को पारित हुआ और 28 मार्च 1989 को प्रभावी हुआ। 


अंतरराष्ट्रीय मानव एकता दिवस


अंतरराष्ट्रीय मानव एकता दिवस प्रतिवर्ष 20 दिसंबर को मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2005 में इसे घोषित किया, जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर मानव एकता, समानता और साझा उत्तरदायित्व की भावना को सुदृढ़ करना है। इसका उद्देश्य गरीबी उन्मूलन, सामाजिक न्याय और सतत विकास हेतु अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना है।


एडोल्फ हिटलर की रिहाई 


20 दिसंबर 1924 को, एडोल्फ हिटलर को 1923 के असफल बीयर हॉल पुट्स (तख्तापलट) के लिए राजद्रोह के मामले में नौ महीने की कैद के बाद लैंड्सबर्ग जेल से रिहा कर दिया गया था। जेल में रहते हुए उसने अपनी पुस्तक 'Mein Kampf' लिखना शुरू किया। रिहाई के बाद, उसने नाजी पार्टी को पुनर्गठित किया और 1933 में चांसलर बनने का मार्ग प्रशस्त किया।


भारतीय गोल्फ संघ की स्थापना 


Indian Golf Union (IGU) की स्थापना 20 दिसंबर 1955 को की गई थी। यह भारत में गोल्फ का सर्वोच्च राष्ट्रीय शासी निकाय है, जो नई दिल्ली में स्थित है। यह 194 से अधिक क्लबों के साथ देश में गोल्फ के विकास, अखिल भारतीय एमेच्योर/जूनियर टूर्नामेंटों के आयोजन, और अंतरराष्ट्रीय टीमों (एशियाई खेल) के चयन व प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार है। 


(विभिन्न स्रोतों पर आधारित)




शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

इतिहास : 13 दिसम्बर की महत्वपूर्ण घटनाएं

 


 • भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला (2001)


13 दिसम्बर 2001 को जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े पाँच आतंकवादियों ने भारतीय संसद पर हमला किया। सुरक्षाबलों की जवाबी कार्रवाई में सभी आतंकी मार गिराए गए। इस घटना में दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ और संसद सुरक्षा के 9 कर्मियों सहित कुल 9-10 व्यक्तियों ने प्राण गंवाए। यह घटना भारत-पाक तनाव के चरम “ऑपरेशन पराक्रम” का कारण बनी।


डॉ. शरद कुमार दीक्षित का जन्म (1930)


13 दिसम्बर 1930 को पंढरपुर (महाराष्ट्र) में जन्मे डॉ. शरद कुमार दीक्षित अमेरिकी प्लास्टिक सर्जन और “द इंडिया प्रोजेक्ट” के संस्थापक थे। उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर रोगियों के लिए निःशुल्क प्लास्टिक सर्जरी सेवाएँ प्रदान कीं। मानव सेवा के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।


उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी का जन्म (1903)


प्रसिद्ध हिंदी मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार और समीक्षक इलाचन्द्र जोशी का जन्म 13 दिसम्बर 1903 को अल्मोड़ा में हुआ। ‘संन्यासी’, ‘परदे की रानी’ और ‘मुक्तिपथ’ जैसे उपन्यास उनके मनोविश्लेषणात्मक लेखन की प्रमुख कृतियाँ हैं। उनके जन्म वर्ष को लेकर कुछ स्रोतों में 1902–1903 का अंतर मिलता है, तथापि 13 दिसम्बर तिथि व्यापक रूप से स्वीकृत है।


अलबेरूनी का निधन (1048)


फ़ारसी विद्वान अल-बीरूनी (अलबेरूनी) का निधन 13 दिसम्बर 1048 को हुआ। वे विज्ञान, गणित, संस्कृत, भूगोल और तुलनात्मक संस्कृति-अध्ययन के अग्रणी माने जाते हैं। उनकी कृति “किताब-अल-हिंद” मध्यकालीन भारत का सबसे विस्तृत और विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत करती है।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन प्रारंभ (1890)


13 दिसम्बर 1890 को कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन शुरू हुआ, जिसमें फ़िरोज़शाह मेहता अध्यक्ष बने। यह अधिवेशन ब्रिटिश भारतीय शासन में संविधानिक सुधारों और नागरिक अधिकारों की दिशा में महत्वपूर्ण था।


संविधान सभा में उद्देशिका (Preamble) का प्रारूप स्वीकार (1946)


13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देशिका (Objectives Resolution) पेश की, जिसने स्वतंत्र भारत के संविधान की आधारभूत भावना और मूल्यों को निर्धारित किया। यही प्रस्ताव आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना (Preamble) का आधार बना।


भारतीय नौसेना के पोत आईएनएस खुंखर को कमीशन (1989)


13 दिसम्बर 1989 को भारतीय नौसेना का गाइडेड मिसाइल विध्वंसक आईएनएस खुंखर (INS Khukri-2) सेवा में शामिल हुआ। यह “खुखरी वर्ग” का पहला युद्धपोत था, जिसने भारतीय नौसैनिक क्षमता को सुदृढ़ किया।


- ललित मानिकपुरी, छत्तीसगढ़ 



बुधवार, 10 दिसंबर 2025

इतिहास : 10 दिसंबर की महत्वपूर्ण घटनाएं...

शहीद वीर नारायण सिंह


शहीद वीर नारायण सिंह बलिदान दिवस 


1857 के स्वातंत्र्य समर में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए अपना बलिदान देने वाले अमर क्रांतिकारी वीर नारायण सिंह का नाम छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद के रूप में प्रतिष्ठित है। वे सोनाखान के जमींदार थे। उन्होंने 1856–57 के अकाल के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षण में पनपी अनाज जमाखोरी और औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। 10 दिसम्बर 1857 को उन्हें रायपुर के जय स्तम्भ चौक पर फाँसी दे दी गयी।


विश्व मानवाधिकार दिवस


'संयुक्त राष्ट्र संघ' की महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को अधिकारिक मान्यता प्रदान की थी। तब से प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। सामान्य शब्दों में 'मानवाधिकार' किसी भी इंसान की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है। 


अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार 


भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को 1998 में अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार उन्हें कल्याणकारी अर्थशास्त्र, सामाजिक विकल्प सिद्धांत और विकास अर्थशास्त्र में योगदान के लिए मिला था। वे अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय बने।


मैरी क्यूरी, पियरे क्यूरी को हेनरी बेकरेल के साथ नोबेल पुरस्कार 


1903 में आज के दिन पोलैंड-जन्मी फ्रांसीसी वैज्ञानिक मैरी क्यूरी और उनके पति पियरे क्यूरी को फ्रांसीसी वैज्ञानिक हेनरी बेकरेल के साथ रेडियोधर्मिता के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व शोध के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। मैरी क्यूरी नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला बनीं और दो अलग-अलग विज्ञान क्षेत्रों (भौतिकी और रसायन) में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली एकमात्र वैज्ञानिक। 


- ललित मानिकपुरी, छत्तीसगढ़ 





शनिवार, 6 सितंबर 2025

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर (छत्तीसगढ़ी कहानी)

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर  (छत्तीसगढ़ी कहानी)

"खी खी खी... हूॅंप  हूॅंप..." अइसे अपन भाखा में मंकू बेंदरा के माँ हा मंकू बेंदरा ला किहिस कि - "चल बेटा उतर, चल-चल, हवा बहुत जोर से चलत हे। मौसम बिगड़त हे, कहूँ बने ठउर में जाबो!" 

फेर उतलइन मंकू बेंदरा हा पेड़ के अउ ठीलिंग में चढ़गे। हवा सनसनावत राहय। डंगाली एती ओती लहसत राहय। तेमा ओरम के मंकू हा झूले के मज़ा लेवत राहय। 

मंकू के माँ हा ओला धर के तीरे बर ऊपर डाहर चढ़े लगिस, तभे हवा अचानक जोर के आँधी बनगे। डारा रटाक ले टूट गे। आँधी में मंकू बेंदरा हा डारा सुद्धा नदिया डाहर फेंकागे। 

नदिया में मंगर हा मुँहूँ फारे ताकत राहय। ओहा बड़ दिन के जोंगत रिहिस कि, "एको दिन एको झन बेंदरा कहूँ गिर जतिस ते बढ़िया पार्टी मनातेंव!"

ओहा मने मन सोचय कि, "ये बेंदरा मन अतेक मीठ-मीठ जामुन खाथें त ऊॅंकर माॅंस में कतका सुवाद होही, अउ करेजा कतका सुहाही!" बेंदरा मन ला देख के ओकर लार टपक जाय। फेर अपन ये इच्छा ला मन में लुकाय ऊपरछवा ऊॅंकर हितवा-मितवा बने राहय। 

आज मंकू बेंदरा ला नदिया में गिरत देख के मंगर हा लपक गे। मंटू ला खाए बर अपन मुँहूँ ला जबर फार डरिस। लेकिन ऊपर ले गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा ओला देख डरिस। खतरा के अंदाजा होगे। पल भर में सोच डरिस कि कइसे बाँचे जाय। 

गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा मंगर के मुँहूँ में डारा ला ख़ब ले खोंस दिस। जामुन के डारा हा मंगर के टोटा के भीतरी के जावत ले अरझ गे। डारा के दूसर छोर ला कस के धरे मंकू बेंदरा हा मंगर के पीठ में गोड़ फाॅंस के‌ बइठ गे।‌ 

पीरा के मारे मंगर छटपटाय लगिस।‌‌ टोटा के भीतर के जात ले खुसेरे डारा ला उलगे के उदिम करय, फेर उलग नइ पाय। 

ओहा मंकू बेंदरा ला अपन पीठ ले गिराए के भारी उदिम करिस, फेर मंकू तो डारा ला कस के धरे राहय, अउ अपन दूनो पाँव ले घलो कस के फाॅंसे राहय। 

मंगर के‌ बड़ ताकत रिहिस। मंकू जानत रिहिस कि एक कनिक भी चूक होइस ते जीव नइ बाॅंचय। ओ पूरा सवचेत रिहिस। 

मंगर हा मंकू ला बुड़ोय बर गहिर पानी में उतरे लगिस। मंकू अकबकागे।‌ 

तभे मंकू‌ ला अपन माॅं के गोठ सुरता आगे कि, "मंगर मन हा पानी के भीतर में घलो बड़ बेरा ले साॅंस थाम के रहि जथें। लेकिन ऊॅंकर ऊपर जब अलहन बिपत आथे तब धुकधुकी में ओकर साँस तेज हो जथे। तब साँस लेबर ऊपर डाहर आए ला परथे!"

ये बात के सुरता करत मंकू बेंदरा हा मंगर के टोटा में फॅंसे डारा ला हलाय लगिस। मंगर हा पीरा में बायबिकल होगे। साँस लेबर ऊपर डाहर आइस, तब मंकू घलो साँस ले पाइस।‌ 

बड़ बेरा ले ऊंकर दूनों के बीच लड़ई चलत रिहिस। दूनों लस्त पर गें। मंगर ला घलो जानब होइस कि मोरो जीव छूट सकत हे। अइसे में समझौता करना ठीक रही। ओहा मंकू के हाथ-पाँव जोड़े लगिस। किहिस- "मोला माफी दे भाई, मोला छोड़ दे।"

मंकू किहिस - "तब तैं मोला मोर ठउर तक अमरा दे।"

मंगर हा चुपचाप ओला ओकर ठउर में लान दिस। मंकू हा मंगर के मुँहूँ ले डारा ला सूर्रत चप ले कूद के पेड़ में चढ़ गे। 

पेड़ के ऊपर ले मंगर ला किहिस - "तोर मुँहूँ में डारा ला अपन जीव बचाय बर खोंसे रहेंव संगी, तोर जीव लेना मोर मकसद नइ रिहिस। हमन तो तोला मया करत रोज मीठ-मीठ जामुन खवावन। अउ तैं हमर संग कपट करे।"

मोर माँ तो मोला पहिली ले मोला चेताय रिहिस कि - "बेटा काकरो संग बैर मत करबे, फेर काकरो ऊपर आँखी मूँद के भरोसा घलो झन करबे। मोर माँ मोला यहू सिखाय रिहिस कि, बिपत के बेरा घबराबे झन, हिम्मत देखाबे। आज मोर माँ के सीख मोला बचा लिस।" 

अइसे काहत मंकू अपन माँ ला पोटार लिस। अब आँधी थम गे रिहिस। 

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद 


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बुधवार, 3 सितंबर 2025

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

 

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

"चींव-चींव...चींव-चींव..." अइसे आरो देवत माई चिरई हा अपन पिला चिरई ला रहि-रहि के बलावत राहय। "आ न बेटा आ! आ उड़! उड़-उड़!" 

फेर पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा ले टस-ले-मस नइ होय। उड़ियाय बर अपन गोड़ ला उसाले ला धरय, त डर के मारे काँप जाय, अउ फेर मुरझुरा के बइठ जाय। 

ओकर मन में भारी डर हमा गे रिहिस। सोचय कि, "मैं कहूँ उड़ियाहूँ, त‌ खाल्हे डाहर खाई में गिर जहूँ, अउ नदिया में बोहा जहूँ। 

इही सोच-सोच के ओ पिला चिरई हा उड़ियाबे नइ करे। खोलखा ले मुड़ी निकाल के खाल्हे डाहर देखे के तको ओकर हिम्मत नइ होय। 

भलुक ओकर छोटे भाई-बहिनी मन नदिया के ओ पार दूसर खॅंड़ में मस्त खावत खेलत राहॅंय। दाई-ददा मन घलो अपन काम बुता में लगे राहॅंय। 

काम बुता करत-करत माई चिरई हा ओ पहाड़ के खोलखा डाहर देखय अउ "आ बेटा आ" कहिके आरो लगावय। 

तीन दिन पहिली सिर्फ वो पिला चिरई के छोड़ चिरई मन के पूरा परिवार हा पहाड़ के खोलखा ला छोड़ के उड़ियावत नदिया के दूसर खॅंड़ में आ गे राहॅंय। काबर कि, अब पहाड़ के खोलखा के जरूरत नइ रहि गे रिहिस। माई चिरई हा सुरक्षित ठउर में अंडा दे बर पहाड़ के वो ऊॅंच खोलखा ला चुने रिहिस। उन्हें अपन खोंधरा बनाए रिहिस।

जब ओकर जम्मो पिला मन अंडा फोर के निकल गें, त ऊॅंकर भूख मेटाए बर नदिया ले मछरी, कीरा-मकोरा निते दाना-दुनका अपन चोंच में चाप के खोलखा में लेगय, अउ नान-नान चीथ टोर के ओमन ला खवावय। 

जब पिला मन बड़े होगें अउ ऊॅंकर पाॅंख जाम गे, तब ओमन ला उड़े बर अउ खुद ले चारा चुगे बर सिखोय खातिर माई चिरई हा प्लान बनाए रिहिस। 

प्लान के मुताबिक वो खोलखा ला छोड़ के सब्बो झन ला एक्के संग उड़ियाना रिहिस। अउ उड़ियावत- उड़ियावत नदिया के ओ पार जाना रिहिस। 

माई के इशारा पाके सब्बो झन एक्के संग उड़िन। खोलखा ले उड़े के बाद बाकी सब चिरई मन उड़ते गिन उड़ते गिन, बस इही पिला के मन में भय हमा गे अउ ओहा तुरते लहुट के खोलखा में फेर हमागे। 

तब ले ओ पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा में बइठे बस टुकुट-टुकुर देखत राहय। अकेल्ला लाॅंघन-भूखन परे राहय। ओला आस रिहिस कि मम्मी हा पहिली जइसे चारा लान के खवाही। फेर तीन दिन होय के बाद भी ओकर मम्मी ओकर बर चारा दाना नइ लानिस।

भूख में पेट सोप-सोप करत राहय। खोलखा में बाँचे-खुॅंचे जउन भी खाय के रिहिस, ओला ओ खा डरे रिहिस। भूख के मारे अपनेच अंडा के फोकला ला घलो खा डरिस। 

अब तो भूख सहे नइ जावत रिहिस। चक्कर आए लगिस। ओला अइसे लागे लगिस कि अब तो प्राण नइ बाँचय। 

जिंदगी बचाना हे अउ जीना हे, त ओला खोलखा ले बाहिर निकलना परही। फेर, ओकर मन में अभीच ले डर बैठे हे। भूख में शरीर घलो कमजोर होगे हे। अइसन में ओ कइसे उड़ियाही? खाई ला कइसे पार करही? नदिया ला कैसे पार करही? 

ये चिंता माई चिरई ला होवत रिहिस। ओहा अपन पिला ला बचाना चाहत रिहिस, फेर ओला जीये के लायक भी बनाना चाहत रिहिस। 

माई चिरई हा नदिया के खॅंड़ ले उड़ान भरिस। नदिया के पानी में गोता लगावत चोंच में मछरी चाप के निकलिस। अउ सनसन-सनसन उड़ियावत पहाड़ खोलखा डाहर निकल गे। 

अपन मम्मी ला आवत देख के खोलखा में बइठे पिला चिरई के मन हरिया गे। देखिस कि, मम्मी हा मोर खाए बर मछरी लानत हे, त ओकर खुशी के ठिकाना नइ रिहिस। 

फेर देखथे कि, ओकर मम्मी खोलखा मेर आके अचानक रुक गे। चोंच में मछरी चपके हे, फेर खोलखा में आवत नइ हे। 

ओ हा तुहनू देखाय कस खोलखा तिर आइस, तभे पिला चिरई हा मछरी ला खाए बर अपन चोंच ला लमावत जइसे आगू डाहर सलगिस, माई चिरई हा तुरते पाछू घुॅंच गे। 

अब पिला चिरई हा खोलखा ले उलन के खाई में गिरे लगिस। गिरत-गिरत अपन मम्मी डाहर बचाही कहिके देखथे, त ओकर मम्मी हा ओला ओकर हाल में छोड़ के ऊपर डाहर उड़ागे। 

पिला चिरई ला लगिस कि अब तो वो बस मरने वाला हे। तभे ओला जनइस, ये एहसास होइस कि ओकर जम्मो पाँख मन फरिया गे हें। ओहा जोरदार साँस लिस, अपन छाती में हवा भरिस, अउ पंख मन ला फड़फड़ाना शुरू करिस। गिरत रिहिस ते हा हवा में थम गे। फेर ऊपर उठे लगिस। उड़े लगिस। 

तभे वो देखिस कि ओकर मम्मी, पापा, भाई, बहिनी सब्बो झन ओकर आजू बाजू उड़त राहॅंय।‌ ओमन ओकर हौसला बढ़ाये बर आए राहॅंय। 

ओमन ला देख के‌ ओ पिला चिरई घलो मगन होके उड़े लगिस। नदिया के पानी में खेले लगिस। पानी तरी बुड़ के टप ले मछरी बिन डरिस। 

भूख-प्यास मेटाए के बाद वो हा जमके उड़े लगिस, आसमान में गोता लगाए लगिस। वो हा अब जान डरिस कि वो पंछी आय। 

✍️ ललित मानिकपुरी 


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रविवार, 24 अगस्त 2025

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा...




* अच्छी फसल की कामना का लोकपर्व 'भोजली'

* छत्तीसगढ़ में अटूट मैत्री परंपरा का प्रतीक भी है


देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा वो, लहर तुरंगा,

हमरो भोजली दाई के भिजे आठो अंगा...


सावन के महीने में अगर आप छत्तीसगढ़ के गांवों में आपको यह गीत सुनने को जरूर मिल जाएगा। जो कि 'भोजली' गीत के रूप में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ का यह पारंपरिक गीत 'भोजली देवी' को समर्पित है। सावन के महीने में मनाया जाने वाला भोजली का त्यौहार हरियाली और उल्लास का प्रतीक है।  



सावन में रिमझिम बारिश की बूंदें अपनी प्रकृति का पोषण करती हैं, इसी समय प्रकृति हरी चादर ओढ़कर सभी में हर्ष और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। तब कृषक अपने खेती के कामों से थोड़ा समय निकालकर गांवों के चौपालों में सावन का आनंद लेते हैं और इसी समय अनेक लोक पर्वों का आगमन होता है। जिनमें से एक है 'भोजली' का त्यौहार। 


छत्तीसगढ में सावन महीने की नवमी तिथि को छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें गेहूं के दाने उगाए जाते हैं। ऐसी कामना की जाती है, कि- ये दानें जल्दी ही भोजली फसल के रूप में तैयार हो जाएं। जिस तरह भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी तरह खेतों की फसलें भी दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़े और किसान संपन्नता की ओर बढ़े। भोजली का त्यौहार ये उम्मीद देता है, कि इस बार फसल लहलहायेगी और इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं और लड़कियां सुरीले स्वरों में भोजली सेवा लोकगीत गाती हैं। 



भोजली को घर के किसी पवित्र और छायेदार जगह में उगाया जाता है। भोजली के ये दाने धीरे-धीरे पौधे बनते हैं। नियमित रूप से इनकी पूजा और देखरेख की जाती है। जिस तरह देवी के सम्‍मान में वीरगाथाओं को गाकर जंवारा-जस-सेवा गीत गाए जाते हैं, उसी तरह ही भोजली दाई के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। 


भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन भोजली का विसर्जन होता है। भोजली विसर्जन को गांवों में बड़े ही धूम-धाम से सराया जाता है। सराना यानी कि पानी में भोजली को बहाना। ग्रामीण महिलाएं और  बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए गीत गाती हुई गांवों में घूमती हैं। इस दौरान भजन, सेवा और स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। सेवा टोलियां मण्डली के साथ गाना-बजाना करते हुए भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब या नदी की ओर प्रस्थान करती हैं।



नदी अथवा तालाब जहां भोजली को विसर्जित किया जाना होता है, वहां के घाट को पानी से भिगोकर पहले शुद्ध किया जाता है। फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जिसके बाद भोजली को जल में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन के बाद कुछ मात्रा में भोजली की फसल को टोकरी में रखकर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाया जाता है।


छत्तीसगढ़ में भोजली का त्यौहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। जहां एक तरफ 'भोजली' छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक मान्यताओं का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की खूबसूरती भी है। इसे मित्रता की मिसाल भी मानी जाती है। दरअसल भोजली का महत्व सिर्फ विसर्जन तक ही नहीं होता है। भोजली की फसल का आदान-प्रदान कर भोजली बदी जाती है। भोजली बदना यानी कि दोस्ती को जीवन भर निभाने का संकल्प लेना। 



छत्तीसगढ़ में भोजली बदने की परंपरा के तहत दो मित्र भोजली की बालियों को एक-दूसरे के कान में खोंचकर लगाते हैं। इसे ही ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा कही जाती है। ऐसी मान्यता है कि जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते हैं। छत्तीसगढ़ में ये मित्र को सम्मान देने की एक खूबसूरत प्रथा है। तो अगर दोस्त का नाम नहीं लेते हैं तो उन्हें संबोधित कैसे किया जाता है। दरअसल भोजली बदने के बाद मित्र को 'भोजली' अथवा 'गींया' कहकर पुकारा जाता है। 


मित्रता के इस महत्व के अलावा भोजली को घरों और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। साथ ही अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करना भी भोजली सिखाता है। 


छत्तीसगढ़ के त्यौहार जहां विविधता और आदिम परंपराओं के द्योतक हैं तो वहीं ये कहीं न कहीं लोगों को प्रकृति से जोड़ते हैं, उनका महत्व बताते हैं, कि कैसे प्राकृतिक संसाधन और प्रकृति हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भोजली पर्व भी उनमें से एक है। जिसका निर्वहन आज भी पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

आदिवासी महापर्व 'खे-खेल बेंजा' 'खद्दी परब' 'सरहुल'


जीवन का आधार 'धरती' और ऊर्जा के परम स्रोत 'सूर्य' के विवाह का महा-उत्सव : खे-खेल बेंजा 


इस समय आदिवासी अंचलों में हर्ष और उल्लास का वातावरण है, क्योंकि आदिवासी परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व धरती पूजन 'खद्दी परब' के साथ पारंपरिक मेलों की धूम है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों में शुमार उरांव जनजाति की बोली यानी कुडुख बोली में 'खद्दी परब' या 'खेखेल बेंजा' का आशय होता है 'धरती का विवाह'। इस आदिम परंपरा से पता चलता है कि आदिवासी समाज प्रकृति से कितना गहरा नाता रखता है और इस नाते को जीवंत बनाए रखने के लिए भी किस तरह चैतन्य व समर्पित है। 


आदिवासी मानते हैं कि धरती जीव-जगत का आधार है। हमें अन्न, जल, फल-फूल धरती से ही मिलते हैं। पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों का सुख भी धरती ही है। धरती की अनुकंपा से ही जीवों का जीवन चलता है। इस अनुकंपा के लिए धरती के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव वक्त करने के लिए यह महा उत्सव कहीं खद्दी परब, कहीं सरहुल या कहीं अन्य नाम से हर वर्ष मनाया जाता है।


पतझड़ के बाद जब प्रकृति पुनः फलने-फूलने के लिए तैयार हो रही होती है, जब नए कोपलों, नई कलियों से पेड़-पौधों का नवश्रृंगार हो रहा होता है, जब जंगल रंग-बिरंगे फूलों और उनकी महक से भरा होता है, जब बसंती बयार नए फलों की आमद का संकेत दे रही होती है, तब प्रकृति से अभिन्न वनवासी, आदिवासी समाज 'धरती पूजन' का अपना महापर्व मनाता है। यह महापर्व देश के अलग-अलग आदिवासी अंचलों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में यह खद्दी परब या खे-खेल बेंजा नाम से जाना जाता है। 


यहां यह पर्व चैत्र के महीने में मनाया जाता है, जब जंगल में सरई के पेड़ फूलों से लद जाते हैं। आदिवासी परंपरा के अनुसार माटी यानी धरती और सरई वृक्ष की पूजा की जाती है। जीवन का आधार उर्वर धरती और ऊर्जा के परम स्रोत सूर्य के विवाह का प्रतीकात्मक आयोजन किया जाता है। धरती और सूर्य के मांगलिक मेल से ही जीवन संभव और सुखद हो सकता है। यह पर्व मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्तों को बरकरार रखने और प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पित होने का पर्व है। 


छत्तीसगढ़ में बस्तर, सरगुजा, जशपुर अंचल में यह पर्व महा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें उरांव जनजाति की विशेष भूमिका के साथ सर्व आदिवासी समुदाय तथा वहां के निवासी अन्य जातियों के खेतिहर किसानों की भी सहज सहभागिता होती है। अपनी पुरातन पर्व परंपराओं से आदिवासी समाज प्रकृति की परवाह करने की सीख हजारों साल से दुनिया को दे रहा है।  


• आलेख - ललित मानिकपुरी, रायपुर (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 19 मार्च 2025

कुहकी डंडा नृत्य "Kuhki" an amazing folk dance of India which is only left in a village of Chhattisgarh





आपने देखा है, "कुहकी डंडा नृत्य" कैसे होता है? यह भारत के प्राचीन लोक नृत्यों में से एक है, जो अब विलुप्त होने के कगार पर है। मैं यहां जानबूझकर "विलुप्त" शब्द का उपयोग कर रहा हूं, क्योंकि जीवंतता लोकनृत्यों में भी होती है। 


पूरे मध्य भारत में छत्तीसगढ़ के बिरकोनी जैसे कुछ ही ग्राम ऐसे हैं जहां कुहकी डंडा लोकनृत्य की परंपरा आज भी चली आ रही है। पशुपालक कृषकों द्वारा फागुन त्यौहार के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।


बिना किसी वाद्य यंत्र के केवल कंठ से निकलने वाली आवाज़ "कुहकी" और डंडों के टकराने की ध्वनि से ही इस नृत्य के लिए संगीत उपजता है। डंडों की चाल और ताल के साथ नृत्य की गति जैसे-जैसे तेज होती जाती है, नर्तन वृत्त पर ऐसा अद्भुत रोमांचकारी दृश्य उत्पन्न होता है कि नजरें टिकी रह जाती हैं। 


नृत्य करने वाले ही नृत्य के साथ-साथ गीत भी गाते चलते हैं। ये गीत लोकभाषा में होते हैं, फूहड़ कतई नहीं। इन गीतों में जीवन के हर्ष, विषाद और जीव की परम् गति शब्दों से उच्चारित होती है और यही भाव-दृश्य नृत्य आवृत्त में भी परिलक्षित होता है। 


हमारे गांव बिरकोनी के कृषक सियानों ने इस लोकनृत्य को सहेज कर रखा है। वे चाहते हैं कि नई पीढ़ी भी इस लोकनृत्य में रुचि ले, इसे आगे बढ़ाए। 


पांच पीढ़ियों से संभाले हुए हैं : 

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बिरकोनी गांव के सियानों ने विलुप्ति के कगार पर पहुंचे पारंपरिक कला कुहकी डंडा नृत्य को पांच पीढ़ियों से संभाले रखा है। 


कंठ से निकली आवाज़ ही "कुहकी"

कुहकी डंडा नृत्य कला व परंपरा का अदभुत संगम है। कुहकी डंडा नृत्य एक ऐसा नृत्य है, जिसमें कंठ से निकाली जानी वाली विशिष्ट आवाज "कुहकी" से ही नृत्य की लय, गति और डंडे की चाल बदल रहती है।


100 से चली आ रही यह नृत्य परंपरा : 

100 सालों से फागुन त्यौहार के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है। गांव में यह नृत्य कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलती रही है। फागुनी माहौल में कुहकी कलाकारों का उत्साह और इस नृत्य का वास्तविक सौंदर्य दिखाई पड़ता है। 


सभी नृत्य कलाकार 60 साल पार : 

कुहकी नृत्य करने वाले अधिकतर 60 साल के ऊपर के हो चले हैं। वे नई पीढ़ी को यह कला सिखाना और इस नृत्य परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। किंतु नई पीढ़ी रुचि नहीं ले रही है। 


8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी : 

बुजुर्ग कलाकार बताते हैं कि कुहकी नृत्य में डंडा चालन के लिए 8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी है। प्रत्येक नर्तक के हाथ में एक या दो डंडा होता है। नृत्य का प्रथम चरण ताल मिलाना है। दूसरा चरण कुहकी देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक-दूसरे के डंडे पर डंडे से चोट करते हैं। डंडों की समवेत ध्वनि से अल्हादकारी संगीत उपस्थित होता है। 


कुहकी के भी कई रूप : 

कुहकी नृत्य भी अनेक प्रकार का होता है। छर्रा, तीन टेहरी, गोल छर्रा, समधीन भेंट और घुस। अभी बिरकोनी के सियान छर्रा और तीन टेहरी का प्रदर्शन करते हैं। फागुन त्यौहार के अवसर पर इसका आनंद लेने हजारों की भीड़ लगी होती है। 


क्या कहते हैं सियान : 

गांव के लोक कलाकार बुधारू निषाद बताते हैं कि 10 साल की उम्र से ही होली के अवसर पर कुहकी नृत्य करते आ रहे हैं। हमारे पुरखों ने इस सांस्कृतिक कला की नींव रखी थी। उसे हमने आगे बढ़ाया। वर्तमान में 8-10 लोग ही कुहकी डंडा नृत्य करते हैं। नई पीढ़ी इसमें रुचि ले तो यह लोक नृत्य आगे भी जिंदा रहा सकता है। इसके गीत भी मधुर और भक्ति भाव से भरे होते हैं। 


क्या है कुहकी : 

कुहकी नृत्य में एक व्यक्ति गले से एक अलग तरह की आवाज निकालता है। इस आवाज से नृत्य की लय व डंडे की चाल बदलती है। आवाज से इशारा मिलने पर नर्तक नृत्य का तरीका बदलने के साथ आगे-पीछे घूमकर डंडे से डंडे पर चोट करते हैं।


बिना साज अद्भुत नृत्य : 

कुहकी नृत्य में एक विशिष्ट बात यह है कि इस नृत्य के दौरान कोई भी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता। नर्तकों के डंडों की चोट की समवेत ध्वनि और कुहकी की आवाज से बिना साज ही संगीत सी लहर दौड़ने लगती है। 


पशुपालक कृषकों का नृत्य : 

कुहकी डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ के पशुपालक कृषकों का पारंपरिक नृत्य है, पहले कृषि और पशुपालन करने वाले ग्रामीण प्रायः हाथों में डंडे लेकर चलते थे। फागुनी उमंग में डंडों से ही संगीत की तरंग निकाल लेते थे। इस नृत्य का किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं है। हां यह नृत्य केवल पुरुष ही करते हैं। इस नृत्य में तीव्र डंडा चालन जोखिम भरा होता है। 


✍️ललित मानिकपुरी, 

बिरकोनी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 13 मार्च 2024

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर "अमर प्रेम की अमिट निशानी" Laxman Temple of Sirpur "Indelible symbol of immortal love"

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर "अमर प्रेम की अमिट निशानी" Laxman Temple of Sirpur "Indelible symbol of immortal love"


 "अमर प्रेम की अमिट निशानी"


एक नारी के अमर प्रेम की, है यह अमिट निशानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की, सुनिए कथा पुरानी।।


छठी सदी की बात है सुनो, बरसों बरस पुरानी,

दक्षिण कोसल राज था अपना, श्रीपुर थी राजधानी।

सोमवंश का राज था यहाँ, हर्षगुप्त महाराजा, 

मगध की राजकुमारी वासटा से उनका मन लागा।

मगधधीश सुर्यवर्मा की पुत्री, बन गईं कोसल रानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


सावन बीता फागुन बीता, बीती बासंती कई,

वासटा देवी हर्षगुप्त में, प्रीति बस बढ़ती गई।

भाव भरे इस युगल हृदय का, राज बड़ा अनुपम था,

कला संस्कृति का विकास, जन-जीवन मधुरम था।

जन-जन के अंतस में दोनों की थी छवी सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


अनहोनी हो गई एक दिन, समय चक्र का खेल चला,

रानी जी का प्रियतम राजा, इस दुनिया को छोड़ चला।

माटी में माटी की काया, ब्रह्म में जीव समाया,

विरहन हुईं वासटा देवी, चिर वियोग था आया।

यादों में बस गये पिया जी, था आंखों में पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


कोई नहीं जाने सागर में, कितना पानी भरा हुआ।

विरहन मन की थाह नहीं वह भीतर कितना दहक रहा। 

पिया पिया की जाप लगाती, पल पल रोती रानी,

पिय की याद अमर करने को, मन ही मन में ठानी।

महानदी के पावन तट पर पिया की रहे निशानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


प्रेम से ही मिलते ईश्वर हैं, प्रेम ही भक्ति पूजा,

एक पिया, एकहि परमेश्वर और न कोई दूजा। 

विरहि वासटा देवी ने कामना करी मंदिर की,

सांस सांस में पिया पुकारे, जाप करे हरि हर की।

मर्यादा थी राजवंश की, भीतर भक्त दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


मंदिर बनवाने की ईच्छा पुत्र को उसने बताई,

महाशिवगुप्त बालार्जुन ने तब योजना बनवाई। 

महान शिल्पी कारीगर केदार को उसने बुलाया,

चित्रोत्पला गंगा के तट पर कार्य आरंभ कराया।

अविरल सृजन शिल्पियों ने की रचना रची सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।


अपने प्रिय की याद में रानी रह रह कर रोती थीं,

हृदय में धधकी विरह अगन की ज्वालाएं उठती थीं।

इसी विरह की आंच से जैसे माटी खूब तपीं थी,

इसी विरह की आग से तप हर ईंट अंगार बनी थीं।

इनकी अगन भी बुझा न पाया महानदी का पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चिर वेदना का चित्रण करती नक्काशी अद्भुत हुई,

लाल लाल मिट्टी की ईंटें कलियां जैसे खिल गईं।

पति स्मृति अक्षुण्य बनाकर रानी तज गई जीवन,

किंतु उनके सांस बसे हैं इस मंदिर के कण-कण।

जग को अद्भुत कृति दे गई अद्भुत प्रेम दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चलता गया समय का पहिया, बीत गईं कितनी ही सदियाँ, 

सदी बारहवीं धरती डोली, महल विहार गिरे जस पतियाँ।

चौदहवीं पंद्रहवीं सदी में, बाढ़ों ने भी प्रलय मचाया,

प्रलयंकारी जलप्लावन ने, पूरा श्रीपुर नगर मिटाया।

फिर भी अडिग खड़ा रहा अविचल यह मंदिर वरदानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


माटी की ईंटों को कोई प्रेम का जादू जोड़ रखा है,

भूकंपों और बाढ़ की ताकत को जैसे कोई मोड़ रखा है।

नहीं डिगा तूफानों में यह, आँधियों में भी खड़ा रहा,

पावन प्रेम प्रतीक के आगे हर आफत है हार चुका।

अमिट धरोहर है अपनी यह, विश्व विरासत मानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


समय के माथे पर यह रचना, बिंदिया जैसी दमक रही, 

है पंद्रह सौ साल पुरानी, पूनम चंदा सी चमक रही।

छत्तीसगढ़ की आन है यह, भारत भूमि की शान,

अनुपम प्रीति स्मृति को अब जाने सकल जहान।

ताज महल से भी है यह तो हजार बरस पुरानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


रचना - ललित मानिकपुरी 

बिरकोनी, महासमुंद (छ.ग.)

(सर्वाधिकार सुरक्षित)


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रविवार, 16 जुलाई 2023

हरियाली का उत्सव, बहारों का जश्न है... हरेली

हरेली का त्योहार वास्तव में हरियाली का उत्सव है, बहारों का जश्न है। भीषण गर्मी से तपती धरती और तपते आकाश को भी सुकून मिलता है जब घटाएं उमड़-घुमड़कर बरसती हैं। जल ही जीवन का आधार है और वर्षा समस्त जीव जगत के लिए प्रकृति का प्यार है। सावन के बादल जब झूमकर बरते हैं, तब प्रकृति मुस्कराती है और जिन्दगी नई अंगड़ाई लेती है। यही बहारों का मौसम होता है। चारों ओर हरियाली होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि धरती ने नई हरी चुनर ओढ़ ली है। ऐसे समय में खुशी की बयार लेकर आता है हरेली का त्योहार।


सावन की अमावस छत्तीसगढ़ के लिए बहुत खास होती है, बहुत खास होती है हरेली। क्योंकि यहां के लोग जंगल, नदी, पहाड़ और खेती-खार यानी प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। प्रकृति से हमारे रिश्ते को और मजबूत करने का त्योहार है हरेली। धरती की हरितिमा की रक्षा के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का प्रतीक है हरेली। हरियाली को बचाने और बढ़ाने के लिए सामूहिक प्रयासों की परंपरा है हरेली। इसके साथ ही आबाद बस्तियों के लोगों से लेकर खेती-खार, जंगल, नदी, पहाड़ों तक सबकी सलामती और कुशलता की कामना है हरेली। परंपराएं यूं ही नहीं चली आती सैकड़ों सालों से, परंपराओं के साथ होता है पीढ़ियों का अनुभव, परंपराओं में छुपे होते हैं लोकहित के संदेश। हरेली पर्व में भी कुछ ऐसी परंपराएं या रस्में हैं, जिनके मायने और नीहित संदेशों को गहराई से जाने बिना हरेली त्योहार के मूल अर्थ को जान पाना कठिन है। तो आइए हरेली की उन परंपराओं की बात करते हैं, जो लगते तो सहज हैं, किंतु असल में गहरे भाव अर्थ समेटे हुए हैं। गौर कीजिए... महसूस कीजिए, हरेली की परंपराएं हमसे कुछ कहती हैं... हरेली कुछ कहती है...।



*पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता की मिसाल है हरेली :

पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक है कि हम धरती की हरियाली को बचाए रखें। हरियाली के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं रहेगा। हरियाली है तभी खुशहाली भी है। यह अहम संदेश पीढ़ी-दर-पीढ़ी सरलता के साथ और प्रभावी ढंग से पहुंचती रहे, शायद इसी कारण हमारे पूर्वजों ने हरेली त्योहार मनाने की पंरपरा शुरू की होगी। सावन का महीना पौधरोपण के लिए बेहतर समय होता है। हरेली सावन अमावस्या को मनाई जाती है। इस समय तक खेतों में जोताई बोआई का कार्य पूरा हो जाता है और खेती-किसानी की व्यस्तता से कुछ अवकाश का क्षण होता है। यह वह समय होता है जब पेड़-पौधे लगाकर उन्हें सुरक्षित किया जा सकता है। हरेली में हर घर के दरवाजे पर और खेत-खलिहानों में नीम या भेलवा नामक औषधीय पौधे की डंगाल खोंसने, अरंडी के पत्तों में पशुओं को लोंदी खिलाने, गेंड़ी बनाने, नागर यानी हल और कृषि औजारों की पूजा... ऐसी कई रस्में निभाई जाती हैं, जिनके माध्यम से लोगों को पेड़-पौधों की महत्ता का ज्ञान या स्मरण सहज रूप से हो जाता है। इसलिए यह त्योहार पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता की शानदार मिसाल है। पारंपरिक जन-जागरूकता का ही परिणाम है कि देश के वन क्षेत्र में छत्तीसगढ़ का सबसे अहम स्थान है और अभी यहां का 44.21 प्रतिशत से अधिक भू-भाग वनाच्छादित है। 

*बनगोंदली और दसमूल प्रसाद परंपरा में सेहत सुरक्षा का ख्याल :

यह ऐसा प्रसाद है जो हरेली त्योहार के दिन सुबह गांवों के गौठानों में ही मिलता है। ये प्रसाद धेनु चराने का काम करने वाले चरवाहे राउत जन ही बांटते हैं। असल में गांवों के जंगलों से चरवाहे राउतों से अधिक परिचित कौन हो सकते हैं। धेनु चराते वो जंगल की जड़ी बूटियां और कंदमूल आसानी से ले भी आते हैं। बनगोंदली और दसमूल भी औषधीय गुणों से युक्त कंद-मूल हैं, जो छत्तीसगढ़ के जंगलों में पाए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर रदालू कांदा, बनकांदा, दसमूर, दसमुड़ ऐसे कई अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। हरेली के पहले चरवाहे राउत जन जंगल से ये कंद-मूल खोदकर लाते हैं, बड़े बर्तन में उबालते हैं और हरेली की सुबह गौठान में गांव वालों को काढ़ा सहित प्रसाद के रूप में बांटते हैं। गांव के लोग, बच्चे भी यह कंद-मूल रुचि से खाते हैं। माना जाता है कि औषधीय गुणों से भरे इन कंद-मूलों के सेवन से बरसाती मौसमी बीमारियों, संक्रमण और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से लड़ने के लिए शरीर सशक्त बनता है और बचाव कर पाता है। बरसात का मौसम जन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता है, अपने आस-पास उपलब्ध प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का सेवन कर हम किस प्रकार अपनी सेहत की रक्षा कर सकते हैं, इसका संदेश इस परंपरा से मिलता है।


*आटा और नमक लोंदी खिलाने की परंपरा में पशुधन की परवाह :

बरसात का मौसम लोगों के लिए ही नहीं, पशुधन के लिए भी अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए जन स्वास्थ्य के साथ ही पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण का ध्यान रखना जरूरी है। बरसात में नई-नई हरी-हरी घास पशुओं को लुभाती है, लेकिन घास चरते समय मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं, वायरस या बैक्टीरिया की चपेट में आ सकते हैं। पशुओं को इस समय भूजन्य रोगों का खतरा अधिक होता है। हरेली के दिन गौठान में पशुओं को दशमुड़ और बनकांदा के अलावा नमक और गेंहू आटे की लोंदी खिलाई जाती है। खम्हार पत्ता या अरंडी पत्ता में लपेटकर नमक और आटे की लोंदी को खिलाया जाता है। नमक पाचन के लिए और गेंहू आटा की लोई पोषण में सहायक होती है। यह पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण के प्रति जागरूकता का प्रयास है। एक लोई खिलाने से पशु को पोषण नहीं मिल जाता, यह संदेश है कि पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण का पूरा ख्याल रखें, जरूरत पड़े तो गेंहू आटे की लोई भी खिलाएं, क्योंकि पशु हमारी कृषि के प्रमुख आधार हैं और कृषि हमारे जीवन व संस्कृति का आधार है। हरेली के दिन घरों में कृषि औजारों की पूजा कर गुरहा चीला यानी गुड़ से बना चीला, गुलगुला बोबरा आदि खास पकवान खाने की परंपरा भी पोषण का ही हिस्सा है। स्वास्थ्य और सेहतमंद रहने के लिए अच्छा आहार भी आवश्यक है।




*पर्यावरण के अनुकूल हैं छत्तीसगढ़ सरकार की योजनाएं :

छत्तीसगढ़ सरकार की तमाम योजनाएं और कार्यक्रम प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल हैं। सुराजी गांव योजना के तहत इसके चार घटकों नरवा, गरवा, घुरवा और बारी कार्यक्रम के तहत जो कार्य किए जा रहे हैं उसमें प्रकृति की सेवा-सुरक्षा और जनकल्याण मूल भाव है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की इस सोच के अनुसार धरातल पर हो रहे कार्यों का व्यापक और गहरा प्रभाव अब परिलक्षित होने लगा है। नरवा कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 12743 बरसाती नदी-नालों का ट्रीटमेंट कर उन्हें पुनर्जीवित किया गया है। उनके जल धारण क्षमता में बढ़ोतरी से भू-जल स्तर में जबरदस्त सुधार हो रहा है। इससे जंगलों में हरियाली का बढ़ना भी स्वाभाविक है, और जीव-जन्तुओं के लिए अनुकूलता भी। नदियों के तटों पर लाखों की संख्या में पौधे लगाए जा रहे हैं। इस साल नदी तट वृक्षारोपण योजना के तहत हसदेव, गागर, बांकी, बुधरा, बनास, जमाड़, महानदी, शिवनाथ, खारून नदी के तट पर 4 लाख से अधिक पौधों का रोपण किया जाएगा। किसानों को वाणिज्यिक प्रजाति के वृक्षारोपण हेतु प्रोत्साहित करने के लिए मुख्यमंत्री वृक्ष संपदा योजना भी लागू की गई है। शहरों में नए ऑक्सीजोन के रूप में कृष्ण कुंज आकार ले रहे हैं।

विशेष आलेख - ✍️ ललित मानिकपुरी



मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

रावण का पुतला बोला "अगर ना जलूॅं तो?"

व्यंग्य : रावण बोला "अगर ना जलूं तो?"

"सुनो... सुनो ना... अरे इधर-उधर कहाँ देख रहे हो, सामने देखो, मैं बोल रहा हूँ रावण।" 

इस आवाज से पुतला बनाने वाले आर्टिस्ट की हालत खराब हो गई। काँपते अधरों से बस तीन शब्द बोल पाया "रा...वण!" 

 "हाँ... रावण!" पुतला फिर बोला।

डर के मारे‌ आर्टिस्ट ऊॅंचे मचान से गिरते-गिरते बचा।

पुतला बोला - "अरे डर क्यों रहे हो? तुमने ही तो बनाया है ना मुझे?"

आर्टिस्ट मन ही मन कहने लगा- "ये क्या हो रहा है? आज तक तो ऐसा नहीं हुआ।" वह रावण के पुतले को आश्चर्य से देखे जा रहा था। 

इतने में पुतला फिर बोला- डरो नहीं, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।"  

किसी तरह खुद को संभालते हुए आर्टिस्ट बोला - "कहिए सर, क्या कहना चाहते हैं?" 

"मैं जानना चाहता हूँ कि तुम्हारी इच्छा क्या है?" 

रावण के पुतले का ऐसा बोलना था कि आर्टिस्ट काँपने लगा। बोला- "सर मेरी आखिरी इच्छा क्यों पूछ रहे हैं? मैं मरना नहीं चाहता। मुझसे कोई गलती हुई है तो प्लीज़ माफ़ कर दीजिए।"

"अरे तुम्हारी आखिरी इच्छा नहीं पूछ रहा हूँ। मैं ये पूछ रहा कि तुम इतनी मेहनत से ये जो मेरा पुतला बना रहे हो, उसका करोगे क्या?" 

रावण के पुतले और आर्टिस्ट के बीच संवाद जारी रहा।

"मैं कुछ नहीं करूंगा सर, कसम से मैं कुछ भी नहीं करूंगा।" 

"तो फिर बना क्यों रहे हो?"

"वो तो समिति वालों ने आर्डर दिया है सर। दशहरा के दिन आपको जलाएंगे।"

"और तुझे क्या लगता है, मैं जल जाऊंगा?"

"सर आज तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ है कि लोगों ने आपको जलाया और आप न जले हों।"

"अच्छा, और अगर न जलूॅं तो?"

"आपके अंदर बारूद-फटाखे तो पहले ही भरे होते हैं, केरोसिन डालकर जला डालेंगे।"

"हा हा हा हा..." अट्टहास करते हुए रावण के पुतले ने कहा - "ये, ये लोग मुझे जलाएंगे?  "हा हा हा हा...हा हा हा हा..." रावण को जलाएंगे? नहीं...नहीं जलूंगा।" 

आर्टिस्ट थरथरा रहा था। लेकिन प्राणों से ज्यादा फिक्र पैसे की हो रही थी। हिम्मत कर उसने कहा- "सर आप नहीं जलेंगे तो, ये लोग मेरी ऐसी-तैसी कर डालेंगे। पैसा भी नहीं देंगे। हजारों-लाखों रुपए लगते हैं सर रावण बनाने में, आई मिन आपका पुतला बनाने में। पुतला दहन के साथ ही आतिशबाजी भी होती है। सब गड़बड़ हो जाएगा। मेरे इतने दिनों की मेहनत और खर्च बर्बाद हो जाएगा। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ सर, इस काम से जो पैसा मिलेगा, उसी से परिवार के लिए राशन पानी का इंतजाम करूंगा। आप नहीं जलेंगे तो बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी।" इतना कहते-कहते आर्टिस्ट की आँखें डबडबा गईं।

"अरे यार तुम तो रोने लगे। मैं तो यूँ ही मज़ाक कर रहा था। दरअसल मैं तुम्हारी कला से बहुत खुश हूँ। तुमने बहुत परिश्रम से मेरा पुतला बनाया है। तुम जब मेरी मूँछों को बढ़िया ऐंठनदार बना रहे थे, तभी तुमसे मज़ाक करने का मन हुआ।" 

यह कहते-कहते रावण के पुतले ने पूछा -"अच्छा ये बताओ तुम्हें कैसे पता कि मेरी मूँछें थीं?

आर्टिस्ट हड़बड़ा गया। हिचकते हुए बोला - "सर मैं क्या कहूँ, बस ऐसे ही आपकी मूँछें बनाते आ रहे हैं। आ..आप रावण हैं, तो आपकी मूँछें भी रही होंगी। ऐसे ही रौबदार।"

इतना सुनते ही रावण के पुतले ने फिर ठहाका लगाया। "हा हा हा हा...हा हा हा हा...।"

"तो सर आप जलेंगे ना?" आर्टिस्ट ने हाथ जोड़कर पूछा।

रावण के पुतले ने गंभीरता से कहा- "हाँ जलूंगा, क्योंकि मेरे जलने से तुम्हारे घर का चूल्हा जलता है।" 


रचना- ✍️ ललित मानिकपुरी, बिरकोनी, महासमुंद (छ.ग.)


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शनिवार, 30 जुलाई 2022

छत्तीसगढ़ी हास्य रचना

कुकुर मन के जबर फिकर...




कलवा कुकुर- गली सड़क म गरवा मन ला भूँक-भूँक के दउड़ावन त का मजा आवय यार। अब मजा नी आवत हे। 

भुरवा कुकुर- हाॅं यार सब गरवा मन तो गौठान म ओइलाय हें, बाॅंचे खुचे‌ मन कोठा म बॅंधाय हें। गली डाहर सुन्ना पर गे हे। 

खोरवा कुकुर- अरे गौठान म उॅंखर बर का गजब बेवस्था हे भाई, चारा, पानी, छइहाॅं...अरे मत पूछ। हमीं मन लठंग-लठंग एती-ओती फिरत हन। कुकुर मन के तो कोनो पूछइया नी हे। 

झबला कुकुर- अरे धीरे बोल रे भाई, नी जानस का? छत्तीसगढ़ सरकार ह पहिली तो गोबर खरीदी चालू करिस, अउ अब गौमूत्र घलो बिसावत हे। देखत रहिबे बाॅंचे-खुचे गरवा मन घलो गौठान म ओइला जहीं, नी ते कोठा म बॅंधा जहीं। हमन तो एती-ओती गली-डाहर के घुमइया अउ मस्त रहइया कुकुर आन, सोचव भूपेश सरकार के नजर कहूॅं हमर ऊपर पर गे, तब का होही? 

भुरवा कुकुर- बने कथस भाई, जनता के फायदा करे बर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के दिमाग म कोई भी आइडिया आ सकत हे। "गोधन न्याय योजना" के जइसे कहूॅं "श्वान धन योजना" लॉन्च कर दिस तब का होही? हमर तो मरे बिहान हो जही। सब मोर बात मानव, अउ अतलंग करना बंद करौ, जबरन भूॅंकना हबरना बंद करौ। रात म अपन ड्यूटी करौ अउ दिन म सबला " जोहार" करौ। 

जोहार...    

- साहेब छत्तीसगढ़िया, महासमुंद

रविवार, 1 मई 2022

छत्तीसगढ़ के बोरे-बासी Bore-Basi


(अपना पसीना बहाकर देश-दुनिया में विकास की क्रांति लाने वाले, अपने सृजन से नव दुनिया का निर्माण करने वाले, संसार का पोषण करने के लिए खेतों अन्न उपजाने वाले श्रमवीरों के सम्मान में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी सहित लाखों छत्तीसगढ़िया लोगों ने आज श्रमिक दिवस पर "बोरे-बासी" खाकर छत्तीसगढ़िया मेहनतकश मजदूर किसान वर्ग के इस पारंपरिक आहार की महत्ता को वैश्विक पटल पर स्थापित करने के प्रयासों में अपना महती योगदान किया।)



छत्तीसगढ़ के सीधे-सरल और मेहनतकश लोगों, किसान, मजदूर, वनवासी, आदिवासी जन के जीवन में "नवा बिहान" लाने छत्तीसगढ़ राज्य का स्वप्न देखने वाले हमारे पुरखों ने उस दौर में यहां सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक जागरण के लिए अपने-अपने ढंग से अथक प्रयास किए। डाॅ. खूबचंद बघेल जी और पद्मश्री पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी हमारे उन महान पुरखों में अग्रणी थे। उन्होंने अपनी लेखनी से भी जनजागरण का अलख जगाया। यहां तक छत्तीसगढ़ियों के प्रमुख आहार "बासी" को भी छत्तीसगढ़िया जागरण का प्रतीक बनाया। बासी के वैज्ञानिक गुणों, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता को समझते हुए उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से किस तरह "बासी" की महिमा गाई और जन-जन को छत्तीसगढ़िया गौरव का एहसास कराया उसका एहसास आप भी कीजिए। 


गजब बिटामिन भरे हुये हैं,

(डाॅ. खूबचंद बघेल जी की रचना)

बासी के गुण कहूँ कहाँ तक, इसे ना टालो हाँसी में।

गजब बिटामिन भरे हुये हैं, छत्तीसगढ़ के बासी में।।

नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में,

फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में।।

अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में,

बुद्ध-कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में।।

बासी के गुण कहूँ कहाँ तक, इसे ना टालो हाँसी में।।

विद्वतजन को हरि-दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फाँसी में,

राजनीति भर देती है यह, बूढ़े में, संन्यासी में।।

विदुषी भी प्रख्यात यहाँ थी, जो लक्ष्मी थी झाँसी में,

स्वर्गीय नेता की लंबी मूंछें भी बढ़ी हुई थी बासी में।।

गजब बिटामिन भरे हुये हैं, छत्तीसगढ़ के बासी में।।

**********************************


छत्तीसगढ़ के बासी

- (पद्मश्री पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी की रचना)


जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।

ठाढ बेरा म माई पिल्ला, खेत खार ले आथन तौ।

एकक बटकी हेर हेरके, चटनी लुन म खाथन तौ।।

जिव हर निचट जुड़ाथे चाहे कतको रही थकासी मा।

जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

चाह पिअइया मन ला देखेन, झीटी कस हो जायें गा।

एक मुठा तो भात ला खाथे, का सेवाद ला पायें गा?

ओमन गुनथें बासी खाके, झन पर जाई हाँसी मा। 

हम रथन टनमनहा उनमन फदगे रइथें खांसी मा॥

बासी खाके जमो देस बर चाउर हमीं कमाथन गा। 

तभ्भो उलटा पुलटा हमन अंड़हा मुरुख कहाथन गा।।

हम छोड़बो बासी ला, तब सब पर जाहीं हांसी मा।

जम्मो राज के जिव परान हे छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

पेज समुंद मा बासी बिस्नु, बुड़े बिहनहे ले देखा। 

पंचामृत कस पीवो खा परसाद बरोबर अनलेखा॥

बासी खाके ओ फल पावा, जउन अजोध्या कांसी मा। 

जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

**********************************


(एक मेरी रचना)

बड़ सुहाथे बासी...

- ललित मानिकपुरी 


बिहनियाँ नहा-खोर के,

बइठ पालथी मार के,

पहिली भोग लगाती, बड़ सुहाथे बासी।।

***

एक फोरी अथान के,

नून डार ले जान के,

गोंदली चानी उफलाती, बड़ सुहाथे बासी।।

***

खेत के मेड़ पार म, 

डोंगरी जंगल खार म,

करम के ठठाती, बड़ सुहाथे बासी।।

***

ठीहा म, खदान म,

कारखाना बूता-काम म,

पछीना के ओगराती, बड़ सुहाथे बासी।।

***

किसान के बनिहार के

बिटामिन ए परिवार के

तन-मन के जुड़वासी, बड़ सुहाथे बासी।।

******************************

बासी म बिस्नू बसैं, 

ब्रम्हा बरी, अथान,

गोंदली गणपति, मही महेश,

बस महाप्रसादी जान।

*****************************




शनिवार, 7 अगस्त 2021

छत्तीसगढ़ी म एक ग़ज़ल

 

मिरगा के पिला मन ल बघवा दुलरावत हे,

जंगल म पक्का चुनई के मउसम आवत हे।

***

कोकड़ा ह जेन दिन ले टिकट पाए हे,

तरिया भर मछरी मन ल चारा बँटवावत हे।

***

जंगल के राजा करय सबके विकास,

हिरनी मन बर तरिया खनवावत हे।

***

चाँटा-चाँटी मन तो ताला-बेली होगें,

लॉकडाउन म मुसवा मन मोटावत हें।

***

दिन भर देस-दुनिया म का-का होइस,

अपन टीवी चैनल म चमगेदरी बतावत हे। 

***

नीर-छीर करे बर कंउआ मन भिड़े हें,

हंस मन तो मुकदमा म पेरावत हें।

***

कछुआ, खरगोस तो इनाम रखे गे हें,

दउड़ म ए दरी अजगर अगुवावत हे।

****************************

रचना :- ललित मानिकपुरी, स्वतंत्र पत्रकार, महासमुंद (छग) 


बुधवार, 27 मई 2020

'यमलोक में कोरोना इफेक्ट'






"मैं तो कहता हूँ महाराज अभी आप पृथ्वी पर जाना बंद ही कर दीजिए। यमलोक में लॉकडाउन कर दीजिए और सबसे पहले आप और यमलोक के सारे यमदूत जो विगत कुछ महीनों में पृथ्वी से यात्रा कर आए हैं, सब के सब क्वारेंटाइन हो जाइए।" चित्रगुप्त ने हाथ जोड़कर यमराज से कहा।

"ये क्या कह रहे हो चित्रगुप्त, ऐसा कैसे हो सकता है? जिन लोगों का डेथ वारंट कट चुका है, उनको तो यमलोक लाना ही पड़ेगा। भला उनको कैसे छोड़ सकता हूँ? इससे तो पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी।" यमराज ने कहा।

"महाराज व्यवस्था तो गड़बड़ा ही चुकी है। अब आप ही बताइए जिन लोगों को यमलोक लाया जा रहा है उन्हें आखिर हम कहाँ भेजें? स्वर्ग में भारी विरोध हो रहा है। अरे जो नरक में हैं वो भी बवाल मचा रहे हैं। सब यही कह रहे हैं, इन्हें अंदर नहीं आने देंगे। इस समय हम लोग केवल पाप और पुण्य का हिसाब लगाकर इन्हें स्वर्ग या नरक में नहीं भेज सकते। पृथ्वी के तमाम देशों में इस समय कोरोना वायरस (कोविड-19) फैला हुआ है। इस वायरस के बारे में अभी तक वहाँ के वैज्ञानिक ही ठीक से नहीं जान पाए हैं। यह भी कहा जा रहा है कि यह वायरस हर जगह वहाँ की स्थिति, परिस्थिति के अनुसार खुद को अपडेट कर लेता है। कहीं हमारे यमलोक और स्वर्ग या नर्क में कोरोना आ गया, तब फिर क्या होगा?" चित्रगुप्त बोले जा रहे थे। उन्हें टोकते हुए यमराज बोल पड़े।

"तो तुम्ही बताओ चित्रगुप्त हम क्या करें? हम यमराज हैं। जिनके जीवन की घड़ी समाप्त हो जाती है, उन्हें यमलोक में लाना और उनके पाप-पुण्य का हिसाब लगाकर स्वर्ग या नरक में भेजना हमारा काम है। हम अपने कर्तव्य से किंचित भी विरक्त नहीं हो सकते।"

चित्रगुप्त ने कहा "यही तो समस्या है महाराज कि स्वर्ग या नरक के बीच आपने कोई जगह बनवाई ही नहीं, जहाँ इस समय मर रहे लोगों को अलग से रखा जा सके। भारत में तो उन लोगों को अपने ही गाँव में घुसने नहीं दिया जा रहा है, जो अपने गाँव छोड़कर बाहर रोजी-मजदूरी करने गए थे। ऐसे लोगों को गाँव के बाहर क्वारेंटाइन किया जा रहा है। जो लोग कोरोना से मर रहे हैं, उनके पास तो परिजन भी नहीं फटक रहे। अंतिम क्रिया-कर्म भी सरकारी मुलाजिम कर रहे हैं। मैंने तो यह भी सुना है कि हमारे कुछ यमदूत भी छींक-खाँस रहे हैं।"
 इतना सुनते ही यमराज भड़क गए। बोले- "चित्रगुप्त! तुम कुछ सत्य के साथ कुछ झूठ मिलाकर अफवाह फैलाने का काम कर रहे हो। जैसा कि इन दिनों कुछ धूर्त लोग पृथ्वी में कर रहे हैं। तुम खुद डरे हुए हो और हमें भी डराने का प्रयत्न कर रहे हो। जानते नहीं, हम यमराज हैं, यमराज। ये सब वायरस फायरस हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, ये सब मृत्युलोक के लोगों के लिए है। स्वर्ग और नरक दोनों जगह जाकर वहां के निवासियों को समझाओ कि पृथ्वी लोक से आने वाले किसी भी व्यक्ति से उन्हें कोई खतरा नहीं। व्यर्थ का बवाल न मचाएं।"

चित्रगुप्त ने कहा- "खतरा कैसे नहीं है महाराज, जो वायरस चीन के एक वुहान शहर से निकलकर पूरी दुनिया में फैल सकता है, उसका क्या भरोसा कि वो यमलोक को छोड़ दे। मैं स्वर्ग और नर्क के निवासियों को समझा भी लूँ महाराज, किंतु अपने आप को कैसे समझाऊं। पहली बार इतना विचलित हूँ। इन दिनों जिन लोगों को यमदूत पकड़कर ला रहे हैं, उनमें अधिकतर लोग ऐसे हैं जो कोरोना महामारी से नहीं मरे, बल्कि लॉकडाउन के बाद बेरोजगारी के आलम में भूख और प्यास से जूझते हुए, अपने घर लौटने के लिए हजारों किलोमीटर दूर तक पैदल चलते हुए, कहीं ट्रेन से कटकर, कहीं ट्रक से कुचलकर मर गए। बीमारी से ज्यादा गरीब, मध्यमवर्गीय लोगों को यह बेबशी मार रही है। काम-धंधे बंद हो गए हैं, नौकरियां जा रही हैं, लोग दुर्दिन स्थिति से जूझ रहे हैं। ऐसे असहाय लोगों पर दया कीजिए। पूरी दुनिया इस समय कोरोना वायरस से लड़ रही है, इस लड़ाई में दुनिया को जीतने दीजिए महाराज। यदि आप मृत्युलोक से ला सकते हैं तो कोरोना को लाइए और उसे खत्म कर दीजिए। यदि नहीं कर सकते तो यह काम इंसान को करने दीजिए। आप बस इतना सहयोग कीजिए कि अपने यमदूतों को पृथ्वी लोक में अभी न भेजिए। यदि यह भी नहीं कर सकते तो दरबार में मुझसे ये न पूछिए कि किसके कितने पाप-पुण्य हैं। इन बेबश और असहाय लोगों के पाप-पुण्य का हिसाब मैं नहीं बता पाऊँगा महाराज, नहीं बता पाऊँगा।"

यमराज बोले- "तुम्हें पहली बार इतना विचलित देख रहा हूँ चित्रगुप्त। मैं यमराज हूँ, मृत्यु का देवता हूँ। लोगों के प्राण हरणा हमारा काम है। अपने काम से मुँह नहीं मोड़ सकते। किंतु कोरोना को खत्म करना मेरे बस की बात नहीं है। इसे तो इंसान ही खत्म कर सकता है। हाँ, मैं इतना सहयोग जरूर कर सकता हूँ, जहाँ लोग ईमानदारी से कोरोना से लड़ाई लड़ेंगे, नियमों का पालन करेंगे, साफ-सफाई का ध्यान रखेंगे,  मास्क लगाएंगे, जरूरतमंद लोगों की मदद करेंगे, वहाँ के लोग यमदूतों के प्रकोप से बचे रह सकेंगे।"

रचनाकार - ललित दास मानिकपुरी (पत्रकार)
ग्राम-बिरकोनी, जिला- महासमुंद (छत्तीसगढ़) 
पिन-493445
मो. - 9752111088, 9753489798

#corona_virus #covid-19 #कोरोना #कोविड-19

गुरुवार, 2 मई 2019

इन चीखों और कराहों को सुन लीजिए सरकार


मजदूर दिवस :
इन चीखों और कराहों को सुन लीजिए सरकार
.......................................
वह बालक तड़फ रहा था। रह-रहकर चीख रहा था। उसके बदन के करीब आधे हिस्से की चमड़ी उधड़ चुकी थी और आधे बदन की चमड़ी पपड़ी की तरह चटक रही थी। 33 केवी हाई वोल्टेज विद्युत लाइन ने उसे भुन-सा दिया था।
12-13 साल का यह बालक बिजली तारों में चिपक कर मिनटों में ख़ाक हो गया होता अगर तकनीकी कारणों से विद्युत प्रवाह तुरंत बंद नहीं हुआ होता। शायद भगवान ने उसे बचा लिया और शायद इसलिए कि उसके खाते अभी और पीड़ा सहनी बाकी है। रूह कांप जाती है यह सोचकर कि करंट से करीब 80 प्रतिशत तक झुलसा वह बालक एक-एक पल कितनी भयानक पीड़ा झेल रहा होगा। इस समय वह डीकेएस रायपुर की बर्न यूनिट में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है। मैं उसकी सलामती की दुआ करता हूं। बेशक आप भी करेंगे। कीजिए, जरूर कीजिए, आज मजदूर दिवस भी है। बताया जाता है कि वह बालक भी 'मजदूर' है। छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में एनएच-53 पर स्थित बिरकोनी के समीप एक ढाबा में यह बालक काम करता था। जहां किसी काम से छत पर गया और छत के बिलकुल करीब से गुजरी हाई वोल्टेज विद्युत लाइन की चपेट में आ गया। 29 अप्रैल को सुबह करीब 10.30 बजे हुई यह घटना न ही पहली घटना है और न शायद आखिरी, जिसमें कोई बालक हालात या अवसरपरस्त लोगों के हाथों मजबूर हो जाता है और महज़ दो वक्त की रोटी के लिए दिन रात जूझते हुए मौत के मुंहाने पहुंच जाता है। आज मई दिवस पर पूरी दुनिया शिकागो के शहीद मजदूर नेताओं अल्बर्ट पार्सन्स, ऑगस्ट स्पाइस, एडॉल्फ फिशर, जॉर्ज एंजिल और लुइस लिंग्ग को बहुत सम्मान के साथ याद कर रही है, जिन्होंने इंसानियत के बेहतर भविष्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1887 में हुई उनकी शहादत को 131 साल हो गए हैं। तब से अब तक न जाने कितने आंदोलन हुए। सदी बदल गई, समय बदल गया, सीमाएं बदल गईं, सत्ताएं बदल गईं, नियम-कानून बदल गए, नहीं बदला तो ग़रीब मजदूरों का भाग्य। क्या इस तड़फते बालक की चीखों और कराहों को सुनकर शासन-प्रशासन उन नन्ही जानों की सुध लेगा, जो खेलने-कूदने और स्कूल जाने की उम्र में चाकरी, बेगारी या मजदूरी करने मजबूर हैं? क्या महासमुंद के इस पीड़ित बालक को न्याय मिलेगा?
- ललित मानिकपुरी, जर्नलिस्ट, महासमुंद (छग)

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो

धरे रहो मत वीणा मैया...
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धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।
छेड़ो ऐसी तान कोई अब, कण-कण में टंकार भरो।।

हंस तुम्हारे दाना तरसें, कौए मोती पेल रहे।
फटेहाल श्रम करने वाले, शोषक मेवा झेल रहे।।
देखो जग की हालत मैया, आँखों में अंगार भरो।
धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।।

कपटी और मक्कार फरेबी, सत्ता का सुख भोग रहे।
घायल करके लोकतंत्र को, लहू देश का चूस रहे।।
होश ठिकाने आए इनके, जन-जन में हुंकार भरो।
धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।।

ललनाओं की लाज लुट रही, चीख रही है मानवता।
वेश बदल रावण फिरते हैं, पल-पल बढ़ती दानवता।।
वीणा से शोला निकले अब, सरगम प्रलयंकार करो।
धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।।

जहर हो रही हवा आज, नदियाँ आँसू बहा रहीं।
वन उपवन सब उजड़ रहे हैं, धरती मैया सुबक रही।।
राग नया कोई छेड़ो मैया, प्रकृति का नव श्रृंगार करो।
धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।।

देश हमारा मधुबन जैसा, ऋतुराज वसंत भी आते हैं।
पर कोयल सब खामोश खड़ी हैं, हर साख पे उल्लू गाते हैं।।
हे शारद वीणापाणी माँ, दो नव विहान उपकार करो।
धरे रहो मत वीणा मैया, तारों में झंकार भरो।।
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ललित मानिकपुरी
वरिष्ठ पत्रकार, महासमुंद

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

नदी की धारा में पैसे ढूँढता बचपन


गाहे-बगाहे...

अस्तांचल की ओर बढ़ते सूर्य की किरणें महानदी की सुनहरी रेत पर चमक रही थीं। मैं और दो मेरे मित्र नदी के मध्य दो पुलों के बीच खड़े थे। पंछियों का विशाल झुंड हमारे ऊपर आसमान में अटखेलियाँ कर रहा था। हजारों परिंदे करीब सौ मीटर के दायरे में उड़ते हुए हवा में गोते लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था वो मस्ती में डूबे हुए हैं और सब मिलकर कोई नृत्य कर रहे हैं, और नृत्य करते-करते आसमानी कैनवास पर चित्रकारी कर रहे हैं, अपनी उड़ान से अकल्पनीय आकृतियाँ बना रहे हैं। उनकी चहचहाट कानों में संगीत घोल रही थी।

 वहीं दूसरी ओर महानदी की धारा में दो बच्चे गोता लगा रहे थे। ऐसा लगा कि वे मछली पकड़ रहे हैं। हमने उनके पास जाकर पूछा, "कितनी मछली पकड़े हो, दिखाओ।" 

उन्होंने कहा "हम मछली नहीं पकड़ रहे हैं।" हमने पूछा "तो क्या कर रहे हो, नहा रहे हो?"

 बहुत पूछने पर एक बच्चे ने कहा, "हम 'पैसे' ढूंढ रहे हैं।"
 बच्चे का जवाब हैरान करने वाला था। हमने फिर पूछा "पैसा! क्या पैसा पानी में बह के आता है या यहां नहाने वाले पैसा डाल जाते हैं?"

 "नहीं" दोनों बच्चों ने जवाब दिया। उन्होंने कहा, "पुल से पार होते समय यात्री नदी में पैसे फेंकते हैं। हम उन्हीं पैसों को ढूँढ़ते हैं।" 

बात करते-करते भी बच्चे पानी में गोते लगाकर पैसा ढूँढने के प्रयास में लगे रहे। अब सूर्यास्त होने ही वाला था। दोनों बच्चे नदी की धारा से बाहर निकले।

 हमने पूछा "कितने पैसे मिले?" एक ने बताया तेरह रुपए और दूसरे ने कहा पांच। 

पूछने पर बच्चों ने बताया कि वे दोपहर 2 बजे से नदी में पैसे ढूँढ रहे थे। सड़क पुल फिर रेलवे पुल के नीचे करीब 4 घंटे गोता लगाने के बाद उन्हें इतने रुपए मिले थे। उन्होंने बताया कि रोज इतने रुपए नहीं मिलते, कभी 5-7 रुपए तो कभी एक सिक्का भी नहीं मिलता।

 हमने इन बच्चों के फोटो और वीडियो भी बनाए थे। वे विनम्रता से कहने लगे, " सर वाट्सएप में न डालिएगा, घर वालों को पता चल गया तो डाँट पड़ेगी।"

 "क्यों स्कूल नहीं जाते इसलिए? हमारे इस सवाल पर बच्चों ने जो सच्चाई बताई उसे भी जान लीजिए। 

एक बच्चा जो करीब 15 साल का था, बताया कि "आठवी के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई। मम्मी-पापा पत्थर खदान में मजदूरी करते थे। अब मम्मी बहुत बीमार है। उनके पैर की नस चिपक गई है। तीन-चार दिनों से उसे बहुत तेज बुखार भी है। उसे खरियाररोड एक बैगा के पास भी ले गए थे। कोई आराम नहीं मिला। पापा की कमाई कम है। मम्मी की गोली-पानी के लिए कुछ पैसे जुटा सकूँ यही सोचकर नदी में पैसा ढूँढने आया था। इससे पहले गाँव के ही एक हॉटल में काम करता था, लेकिन मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो छोड़ दिया।"

 दूसरा बच्चा जो महज 13 साल का था, उन्होंने बताया, "पापा नहीं हैं, उनकी मृत्यु हो चुकी है। मम्मी पत्थर खदान में मजदूरी करती हैं। पैसे की हमेशा तंगी रहती है। सुबह स्कूल जाता हूँ और छुट्टी के बाद नदी में पैसा ढूँढने आता हूँ, लेकिन रोज नहीं। रोज पैसा मिलता भी नहीं।"

सिक्कों की आस में ये बच्चे घंटों पानी में रहते हैं। धारा के नीचे आँखें खुली रखकर, साँसों को जितनी अधिक देर रोक सकते हैं उतनी देर तक रोके रखकर सिक्कों की तरह चमकती चीजों को टटोलते हैं। इस तरह लगातार मशक्कत के बाद कुछ सिक्के हाथ आ जाते हैं।

ये बच्चे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कोई 40 किमी दूर महासमुंद जिले की सीमा पर स्थित ग्राम घोड़ारी के हैं। 

महानदी के तट पर घोड़ारी जैसे कई गाँव हैं, जहाँ नदी ने मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं के लिए बहुत उदारता के साथ जीवन-साधन और अनुकूल वातावरण दिया है। 

नदी के पुराने सड़क पुल के नीचे की ओर मिट्टी के आकर्षक और सुरक्षित घरौंदे बनाकर जिस तरह परिंदे भरपूर आनंद से अपनी जिंदगी जी रहे हैं, इन गाँवों के वासिंदे भी जी सकते हैं। 

यहाँ की खदानों से करोड़ों रुपए के फर्शी पत्थर का उत्खनन होता है। नदी से रेत भी निकाली जाती है। शासन के खजाने में करोड़ों का राजस्व जाता है, लेकिन यहाँ के मूल निवासियों का जीवन कमोबेश वैसा ही है, जैसा कि उन बच्चों ने बताया। 

हमारे प्रदेश को प्रकृति ने भरपूर नेमतें बख्शी है और निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ ने तेजी से विकास किया है, यह नजर भी आता है, लेकिन उस पहलू को भी देखने की जरूरत है, जो आसानी से नज़र नहीं आता या नजरअंदाज कर दिया जाता है। 

नारों और जुमलों के शोर के साथ योजनाओं की तमाम गाड़ियाँ चलती हैं, किन्तु आम आदमी के सिर से उसी तरह गुजर जाती हैं, जिस तरह नदी ऊपर के पुल से गाड़ियाँ। उनसे कुछ फेंक भी दिए जाते हैं तो उसे पाने के लिए आम आदमी को वैसी ही जद्दोजहद करनी पड़ती है, जैसे इन बच्चों की दास्तां में प्रकाशित हुआ।

- ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छग)
9752111088

#महानदी #महासमुंद #छत्तीसगढ़
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मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

रण में विजय के लिए मां चण्डी की पूजा करते थे बाणासुर के सैनिक : मां चंडी सिद्ध शक्ति पीठ बिरकोनी, महासमुंद, छत्तीसगढ़ की रोचक कहानी


भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं बिरकोनी की मां चण्डी, भटके लोगों को बताती हैं राह

रणचण्डी की इतनी सुंदर पाषाण प्रतिमा अन्यत्र दुर्लभ

महासमुंद जिले के ग्राम बिरकोनी की पुण्यधरा पर अवस्थित आदिशक्ति स्वरूपा मां चण्डी का मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। यहां सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।

 इस विश्वास भाव के प्रतिफल ही देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आते हैं और माता का दर्शन-पूजन कर अलौकिक सुख-शांति का अनुभव करते हैं।

यहां की मां चण्डी अद्वितीय सुंदरी हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित इतनी सुंदर रणचण्डी की प्रतिमा अत्यंत दुर्लभ है।

कहते हैं नवरात्र में हर रात मां के चेहरे का भाव परिवर्तन होता रहता है। कभी प्रचण्ड तेजस्विनी दिखती हैं, तो कभी सौम्य ममतामयी,
परन्तु हर रूप में वह मनोहारिणी हैं।

मां चण्डी की कीर्ति मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात वर्ष 2002 में शासन के निर्देश पर इस मातृशक्ति स्थल के संबंध में शिक्षक पोखन दास मानिकपुरी द्वारा यहां के बड़े-बुजुर्गों और जानकारों से रूबरू चर्चा कर  प्राप्त तथ्यों और जानकारी के आधार पर संकलन आलेख तैयार किया गया था। उस आलेख के अनुसार इस स्थल पर देवी कब से विराजमान हैं, इसका स्पष्टतः उत्तर बुजुर्गों के पास भी नहीं है। 

किन्तु जनस्रुतियों के आधार पर इसका इतिहास पौराणिक काल से शुरू होता है, जब श्रीपुर यानी वर्तमान सिरपुर बाणासुर की राजधानी थी। उसकी सैनिक छावनी बिरकोनी के पास थी। उनके सैनिकों ने ही रणचण्डी की प्रतिमा यहां एक टीले पर स्थापित की थी। युद्ध पर जाने से पूर्व वे विजय की कामना करते हुए मां चण्डी की पूजा करते और जयकारा लगाते हुए रणभूमि को प्रस्थान करते थे।

 कुछ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर प्राचीन राज्य सिरपुर या आरंग के सैनिकों की छावनी रही होगी। इस स्थान को बिरकोनी के पास महानदी किनारे स्थित ग्राम राजा बड़गांव में हुए हैहृयवंशी राजपूत ठाकुरों की सैनिक छावनी होने का अनुमान भी लगाया जाता है। 

अनुमान अलग-अलग होने के बावजूद एक तथ्य जो सभी स्वीकारते हैं, वह यह है कि इस देवी स्थल के आसपास सैनिकों की छावनी थी। वीर सैनिकों के रहने के कारण ही इस गांव का नाम 'बीरकोनी' पड़ा जो बाद में अपभ्रंश होकर 'बिरकोनी' हो गया। वर्तमान में मंदिर स्थल पर सैनिक छावनी होने के अनेक प्रमाण मौजूद हैं। 

मंदिर के रास्ते पर एक आयताकार क्षेत्र है, जिसे लोग 'हाथी गोड़रा' कहते हैं, जिसका अर्थ है हाथी रखने का स्थान। हाथी गोड़रा का भग्नावशेष यहां मौजूद है। युद्ध में जाने के पूर्व सैनिक मां चण्डी की पूजा-अर्चना करते थे। आज भी प्रतीकात्मक रूप से विजयादशमी पर्व के अवसर पर ऐसा किया जाता है। ग्रामीण पहले मां चण्डी मंदिर आकर पूजा-अर्चना करते हैं, फिर बस्ती में रामलीला का आयोजन होता है, जिसमें रावण का वध किया जाता है।

 माता के संबंध में एक किवदंती यह भी है कि उनका प्रारंभिक वास तुमगांव समीपस्थ ग्राम भोरिंग में था, किन्तु वे किसी बात से रूष्ठ होकर बिरकोनी आ गईं। भोरिंग के लोग आज भी मां चण्डी को ग्राम्य देवी की तरह पूजते हैं।

 मान्यता यह भी है कि बिरकोनी की मां चण्डी, बेमचा की मां खल्लारी और भीमखोज खल्लारी माता का आपस में बहन का नाता है। इसके संबंध में प्रचलित किवदंतियों के तार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।



बिरकोनी में मां चण्डी का मंदिर जिस स्थान पर है वह पहले वनाच्छादित था। कोरिया, कुर्रू व महुआ के पेड़ों की बहुलता थी। महुआ को स्थानीय बोली में मउहा कहा जाता है। महुआ पेड़ों की बहुलता के कारण ही इस वन क्षेत्र को मउहारी कहा जाता था। मउहारी क्षेत्र में चिंगरीडीह व चूहरीडीह नामक दो वनग्राम थे, जो अब नहीं हैं, लेकिन इन बस्तियों के नाम पर चिंगरिया और
चुहरी नामक तालाब आज भी हैं।

 स्थानीय निवासी जंगल के बीच पत्थरों के टीले पर विराजमान मां चण्डी को ग्राम्यदेवी के रूप में पूजते थे। चूंकि मउहारी वन में वन्यप्राणियों का स्वच्छंद विचरण होता था, इसलिए माता तक पहुंचना आसान नहीं था। तब भी एक बैगा दंपति माता की सेवा में लगी रहती थी। 

बताया जाता है कि बैगा भैयाराम यादव व उनकी पत्नी को माता की कृपा से कई सिद्धियां प्राप्त थीं। बैगा भैयाराम यादव की चमत्कारिक शक्तियों के रोचक किस्सों की चर्चा ग्रामीण आज भी करते हैं। दूर-दूर से दुःखी जन उनके पास आते थे और अपनी पीड़ा का समाधान पाते थे। बैगा भैयाराम पीड़ितजन को मां चण्डी की चरण-शरण होने के लिए प्रेरित करते थे।

 इस तरह मां चण्डी के प्रति लोगों की आस्था बढ़ती गई और इसकी कीर्ति मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में फैलती गई। बैगा भैयाराम यादव की समाधि मां चण्डी मंदिर के बाजू में ही स्थित है, लोग आज भी उन पर श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं।

 लोग बताते हैं, जब सड़क नहीं थी, तब जंगल के रास्ते पैदल ही आना जाना करते थे। कहते हैं कि जब लोग रास्ता भटक जाते थे तब मां चण्डी की मानव के रूप में प्रकट होकर उन्हें रास्ता बताती थीं।

 उस समय देवी के स्थल पर सर्पों का बसेरा होता था। नाग-नागिन के अलावा एक विशाल अजगर का भी लोग उल्लेख करते हैं, जो हर समय माता के ईर्द-गिर्द रहते थे। जब भव्य मंदिर निर्माण के लिए गर्भगृह से लगे एक पेड़ की कटाई की गई, तो उसके भीतर एक बड़े खोल में अजगर का विशाल कंकाल सुरक्षित मिला।

 नाग-नागिन के संबंध में कहा जाता है कि वे आज भी मंदिर के उत्तर-पश्चिम कोने में स्थित एक पुराने वट वृृृक्ष में वास करते हैं। लोग इस वट वृक्ष की पूजा करते हैं और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए लाल कपड़े में नारियल, सुपारी लपेटकर बांधते हैं। ऐसे भाव-बंधनों से यह वट-वृक्ष भरा हुआ है।

 वर्ष 1937-38 में जब ब्रिटिश शासन काल में रायपुर-विजयनगर रेल पांत बिछाई गई और महानदी में पुल निर्माण किया गया तब बिरकोनी की भूमि पर उपलब्ध ग्रेनाइट चट्टान के विशाल भंडार से गिट्टी, बोल्डर की ढुलाई की जा रही थी। उस समय महाराष्ट्र से आए ठेकेदार मजदूरी का भुगतान मां चण्डी की प्रतिमा के पास बैठकर करते थे। उन्होंने वहां पत्थरों से वर्गाकार चबूतरा बनाकर उस पर प्रतिमा को स्थापित कराया।

 स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस चबूतरे पर सीमेंट कंक्रीट का कमरानुमा मंदिर बनाया गया। यह निर्माण दाई भोरमबाई चंद्राकर के पुत्र बिसौहा चंद्राकर ने कराया था। 

कहते हैं कि भोरम बाई व गंगू चंद्राकर ने पुत्र प्राप्ति की कामना की थी, जिसे मां चण्डी ने पूरी की थी। दाई भोरम बाई चंद्राकर की इच्छा के अनुरूप पुत्र बिसौहा चंद्राकर ने यह मंदिर बनवाया। वर्षों बीत गए, मंदिर की यह संरचना भी पुरानी पड़ गई।

 इधर माता के दरबार मंे आने वाले श्रद्धालु पीने के पानी को तरस जाते थे। गांव के मजदूर लच्छीराम निषाद ने कुआं खोदने का निश्चय
किया और खुदाई शुरू की, लेकिन बीच में चट्टान आ गया। शासन से आर्थिक मदद मिलने पर वे चट्टान को भी तोड़ गए और कुछ दिनों बाद कुआं मीठे पानी से भर गया।

 इस चट्टानी भूमि पर कुआं और उसमें पानी देखकर लोगों में आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इसे माता का चमत्कार माना गया और लोग मंदिर विकास के लिए उत्साहित हुए। 

रामा चंद्राकर ने तब तक मंदिर के चारों ओर चबूतरे का विस्तार करा दिया था। गांव के दुर्गा समिति के सदस्यों ने मां चण्डी मंदिर के विकास में जुटने का निश्चय किया और मां चण्डी मंदिर विकास समिति का गठन किया। बलदाऊ चंद्राकर अध्यक्ष, दीनबंधु चंद्राकर उपाध्यक्ष, दामजी चंद्राकर सचिव, अशोक चंद्राकर कोषाध्यक्ष और ओमप्रकाश चंद्राकर संयोजक बनाए गए। 

अघोर पंथ के लहरी बाबा ने उन्हें मंदिर निर्माण के लिए प्रेरित किया। समिति के सदस्यों ने लाखों की लागत वाले भव्य मंदिर निर्माण की योजना बनाई, इसके लिए प्रारंभ में अपने बीच ही सहयोग राशि एकत्रित की। 

मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो जनसहयोग बढ़ता गया। मंदिर का भूमिपूजन तत्कालीन सांसद संत पवन दीवान ने किया। आगे भी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन का सहयोग मिलता गया और मंदिर का विकास होता गया। 

सड़क, बिजली, पानी की सुविधाओं के साथ ज्योति कक्ष, रंगमंच, यज्ञ शाला, सामुदायिक भवन आदि का निर्माण हुआ। रायपुर के इंजीनियर दिलीप पाणिग्रही द्वारा तैयार नक्शा के आधार पर व उनके मार्गदर्शन में करीब 51 लाख की लागत से अष्ट कोणीय भव्य मंदिर का निर्माण हुआ और पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की गरिमामय उपस्थिति में शिखर कलश की स्थापना हुई। 

आज इस मंदिर की शोभा देखते ही बनती है। करीब पांच दशक पूर्व बिरकोनी के लोकप्रिय सरपंच रहे दाऊ पोखन चंद्राकर चैत्र नवरात्र में भैयाराम बैगा के मार्गदर्शन में ज्योति प्रज्ज्वलित कराते थे। साथ ही आचार्य पं. उमाशंकर शर्मा द्वारा अष्टमी पर हवन-पूजन कराते थे।

 दाऊ पोखन चंद्राकर के अनुज खोमन चंद्राकर ने वर्ष 1981 में मां के मंदिर में प्रथम बार पांच मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। इसके बाद ज्योति कलशों की संख्या बढ़ती गई और आज इस देवी शक्तिपीठ में अखंड ज्योति के अलावा चैत्र और क्वांर नवरात्र में हजारों की संख्या में मनोकामना ज्योति कलश स्थापित की जाती है।

 नवरात्र में हजारों मनोकामना ज्योति कलशों की झिलमिल छटा दर्शनीय है। दोनों नवरात्र में मां चण्डी के दरबार में श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है। वहीं पौष पूर्णिमा पर मेला लगता है। 

वर्तमान में दिनेश्वर चंद्राकर की अध्यक्षता।में मंदिर कमेटी पूरी व्यवस्था का संचालन कर रही है। मां चण्डी का दरबार धर्म, आध्यात्म, कला, संस्कृति के संवर्धन का केन्द्र बना हुआ है।

स्थिति: मां चण्डी सिद्ध शक्तिपीठ बिरकोनी का यह प्रसिद्ध मंदिर बिरकोनी बस्ती की दक्षिण दिशा में लगभग डेढ़ किमी दूर स्थित है। यह गांव नेशनल हाइवे क्रमांक 53 पर महानदी के पूर्व में राजधानी रायपुर से लगभग 45 किमी और जिला मुख्यालय महासमुंद से लगभग 15 किमी दूर स्थित है। रायपुर-विशाखापट्टनम रेलमार्ग पर बेलसोंडा स्टेशन मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में मात्र 2 किमी दूर है। इसका निकटतम हवाई अड्डा राजधानी रायपुर का माना स्थित स्वामी विवेकानंद हवाई अड्डा है।

प्रस्तुति एवं संपादन- 
 ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छग)

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