शुक्रवार, 3 जून 2011

छत्तीसगढ़ : फागुनी रंग घोलती फाग और रहस की सुरीली संस्कृति Chhattisgarh: The melodious culture of Faag and Rahas adding color to Faguni.


'मन डोले रे माघ-फगुनवा'



वासंती छटा बिखरने के साथ ही छत्तीसगढ़ की फिजां में फाग और रहस का राग-रंग घुलने लगता है।

 'राजा बरोबर दिखे मोर आमा, रानी सही परसा फुलवा।
 मन डोले रे माघ-फगुनवा, तन डोले रे माघ-फगुनवा।' 

छत्तीसगढ़ के सुविख्यात गीतकार और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया के इस लोकप्रिय गीत में कल्पित भावों के अनुसार, माघ-फागुन के महीने में बौर से लदकर आम का पेड़ राजा बन जाता है, वहीं चटख टेसुओं का श्रृंगार कर रानी का रूप धर लेता है पलास। नए कोपलों और रंग-बिरंगे फूलों का मनोहारी दृश्य और वासंती बयार में घुलकर चारों ओर बिखरती उनकी भीनी खुशबू जंगल में गजब ढा देता है। पशु-पक्षी भी मस्त हो जाते हैं। इस सुखद अनुभूति के साथ लोगों का मन रहस-फाग के लिए मचल उठता है। 
कह उठता है-' अर रर रर...।' 

 नगाड़े गड़गड़ा उठते हैं। माटी का मांदर गूंज उठता है और झांझ-मजीरों की झंकार से समूचे वातावरण में फाग की तरंगें दा़ैड पड़ती हैं। फिर एक पल के लिए छा जाती है खामोशी। जैसे उन तरंगों के आगोश में आकर वक्त भी स्तब्ध हो गया हो। इस खामोशी को चीरता हुआ कोई दोहा, स्थानीय पुट के साथ टोली के प्रमुख गायक के कंठ से फूटता है।

 चित्रकूट के घाट में भइया, भये संतन के भीर...,
तुलसीदास चंदन घिसैं अउ तिलक लेत रघुबीर...

 दोहे की रागात्मक पूर्णता के साथ ही नगाड़ा सहित सारे वाद्य एक बार फिर झंकृत हो उठते हैं। यह फाग गायन शुरू करने के पूर्व गले के सुर और साजों की आवाज को साधने का उपक्रम जैसा है।
दोहे के बाद टोली यह शब्द रागती है - गंगासागर में...

अब शुरू  होता है फाग गीत-
वृंदावन में श्याम खेलै होरी हो, जिहां बाजे नगाड़ा दस जोड़ी।

मुख्य गायक गीत की कड़ी उठाता है और टोली के अन्य सभी सदस्य इसे दोहराते हैं। गीत धीमी गति से प्रारंभ होता है। उसका मुखड़ा दोहराने के बाद पुनः प्रथम पंक्ति को उठाते ही नगाड़ा और उसके सहवाद्य द्रुत गति से बजते हुए संगीत का ऐसा जादू बिखेरते हैं कि  श्रोताओं के कदम स्वयमेव ही थिरकने लगते हैं। गुलाल की बौछार होने लगती है और सारे लोग रंग-बिरंगे गुलाल से पुत जाते हैं। एक के बाद एक कई गीत गाए जाते हैं और अंत होते-होते फाग की मस्ती चरम पर होती है।
 
फाग गायन की शुरुआत गणेश वंदना से होती है। बाद में गाए जाने वाले अधिकांश गीत कृष्ण-राधा पर केंद्रित होते हैं। नंद बाबा, यशोदा मैया, गोप-गोपियां, बृज, गोकुल, मधुबन, गाय, दूध, दही, वंशी आदि विषयों पर मधुर लोक गीत पारंपरिक रूप से गाए जाते हैं। अन्य देवी-देवताओं, लोक कथाओं, संस्कृति और लोक जीवन से जुड़े विषयों पर भी फाग गीतों की रचना होती है। 

फाग गीतों में देवर-भौजी, समधिन-समधन, सइयां-बहुरिया जैसे सामाजिक रिश्तों के बीच की मधुरता को प्रमुखता से स्थान मिलता है। 

चढ़गे मझनिया के घाम रे आमा तरी डोला ल उतार दे- जैसे यौवन की लहरों में लहराते और मीठी छेड़छाड़ भरे गीत युवा टोलियों में मस्ती भर देते हैं। इसमें संदेश भी छुपा होता है। जैसे- 

दगा दे गई जवानी... 
अब का होत पछताए रे.. दगा दे गई जवानी। 

फाग गीत प्रमुखतः सवाल-जवाब शैली में होते हैं। एक अंतरा में सवाल होते हैं, दूसरे अंतरे में जवाब। जैसे- 

कौने नगर के गोपे-गुवालीन, कौने नगर दही बेचे...।

इसका जवाब होता है-
गोकुल नगर के गोपे गुवालीन मथुरा नगर दही बेचे...।

फिल्मी गीत भी खूब गाए जाते हैं। अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया उनके पिता हरिवंश राय बच्चन का गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' भी युवाओं में खूब गाया जाता है। 

    छत्तीसगढ़ में फाग गायन की शुरुआत वसंत पंचमी के दिन से होती है। इस दिन होली डांड़ (होलिका दहन स्थल) में अरंडी का पौधा गड़ाया जाता है और नगाड़े बजाना शुरू  किया जाता है। जो होली त्योहार तक बल्कि उसके बाद भी प्रतियोगिता के रूप में जारी रहता है। इस दौरान आंचलिक कलाकारों के फाग गीतों के आडियो-वीडियो कैसेट भी खूब बजते हैं। 

इन दिनों लोकगायक दुकालू राम यादव आदि कलाकारों के नए-नए फाग गीत खूब पसंद किए जा रहे हैं, लेकिन पुराने फाग गीत और पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाए जा रहे फाग गीतों का जादू अब भी सिर चढ़कर बोलता है। फागुन के महीने  को लेकर छत्तीसगढ़ी में इतने सुंदर गीत रचे गए हैं कि ये गीत  कभी भी कानों में पड़ जाए तो ऐसा लगता है कि फागुन आ गया।

एक ओर जहां फाग के साथ नगाड़ों की गड़गड़ाहट फिजां में गूंजती रहती है, वहीं गली-सड़कों पर रहस (रास नृत्य) की मनमोहक छटा बिखरी होती है। 

दर्जनभर से अधिक सदस्यों वाली रहस टोली बच्चों की मासूमियत, युवाओं के जोश और बुजुर्गों के अनुभव से भरी होती है। किसी एक राग और एक धुन पर तीनों ही अवस्था के लोग एक नहीं, बल्कि हजारों टोलियों में एक-जैसा नृत्य करें और एक-जैसी आनंद की अनुभूति करें, ऐसा संयोग दुर्लभ है, जो छत्तीसगढ़ के इस रहस नृत्य में देखने को मिलता है। 

मांदर की थाप और मजीरों की खनक के साथ ही रहस में छोटे-छोटे डंडों के टकराने की आवाज मधुरता से घुली होती है। यही इसकी प्रमुख विशेषता है। रहस को डंडा नृत्य भी इसीलिए कहा जाता है।

 हाथों में छोटे-छोटे डंडे लेकर, छोटे-छोटे बच्चे कृष्ण-राधा,ग्वाल-बाल और गोपियों का रूप धरकर नृत्य करते चलते हैं। वहीं युवा भी स्त्री या पुरुष वेशभूषा में परिहास-बोधक श्रृंगार कर कदम थिरकाते चलते हैं। चौक-चौक पर आवृत्त बनाकर रहस नृत्य की आकर्षक प्रस्तुति देते हैं और लोगों से खूब इनाम बटोरते हैं। वरिष्ठ कलाकार बीच में गायन-वादन करते चलते हैं। 

रहस गीतों में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं, राधा और गोप-गोपियों के संग रासनृत्य व होरी खेलने के प्रसंगों का आंचलिक बोली में सरस और भावपूर्ण वर्णन होता है।

हुंकारू डंडा नृत्य :
रहस नृत्य के अलावा होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा एक अन्य शैली में भी डंडा नृत्य किया जाता है, जिसे हुंकारू  डंडा नृत्य के नाम से जाना जाता है। यह ग्रामीण छत्तीसगढ़ का अत्यंत विशिष्ट लोकनृत्य है। यह नृत्य बिना वाद्य और गीत-संगीत के ही अत्यंत ही मनमोहक ढंग से किया जाता है। दर्जनभर से अधिक के समूह में किसान गोल घेरे में घूमते रहते हैं। कोई एक सदस्य कंठ से एक खास तरह की आवाज ऊ-हू-ऊ-हू (हुंकारू) निकालता रहता है, हुंकारू  के साथ ही आवृत्त में खड़े नर्तक एक दूसरे को तेजी से क्रास करते हुए डंडे टकराते जाते हैं। अब इस नृत्य का चलन कम हो चला है। कहीं-कहीं पुरानी पीढ़ी के लोग ही यह नृत्य करते हैं।

टेसू के रंग : 
होली जैसे-जैसे नजदीक आती जाती है, माहौल रहस और फागमय होते जाता है। इसके साथ ही रंग-गुलाल और पिचकारी का दौर भी शुरू  हो जाता है। होलिका दहन के दूसरे दिन जमकर होरी खेली जाती है। बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सभी होरी के रंग में रंग जाते हैं। रंग होता है टेसुओं (पलास के फूल) का। जंगल में अपने चटख रंग से आग सा दहकते प्रतीत होते पलास के पेड़ टेसुओं से लदे होते हैं। टेसुओं को पानी में उबाल कर रंग बनाया जाता है और पिचकारियों में भर-भरकर उड़ेला जाता है। वहीं सूखे टेसुओं को पीस कर गुलाल बनाया जाता है। प्राकृतिक गुणों से भरपूर इस रंग-गुलाल से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि इससे सराबोर होने का आनंद ही कुछ और होता है। हालांकि यह आनंद अब वनांचल तक ही सिमटता जा रहा है। शहरी और कस्बाई इलाकों सहित मैदानी क्षेत्र में जहां वनों का विनाश हो चुका है या पलास के पेड़ नहीं हैं, वहां बाजारू  रंगों का प्रयोग होता है। कालिख, आइल, पेंट जैसे खतरनाक रासायनिक पदार्थों और रंगों के बढ़ते प्रयोग से लोग होरी खेलने से परहेज करने लगे हैं।

होली अब हुड़दंग : 
गांव हो या शहर नशा तो जैसे होली का अनिवार्य तत्व बन गया है। भंग या महुआ रस के रूप में नशा पहले भी हुआ करता था, लेकिन इसकी भी एक मर्यादा थी। अब तो गांव-गांव में शराब के नाले बह रहे हैं। शराब की सुलभता और नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण होली का त्योहार हुड़दंगियों का त्योहार बनता जा रहा है। होली के दिन इस कदर लड़ाई-झगड़े, मारपीट, छेड़छाड़ और हत्या जैसे संगीन जुर्म होने लगे हैं कि होली का असली मजा काफूर हो चला है। नशा नहीं करने वाले या शांति प्रिय लोग तथा महिलाएं होली खेलने के बजाय हुड़दंगियों से बचने के उपाय करते रहते हैं।

प्रकृति की ओर : 
राजधानी रायपुर में बीते कुछ वर्षों से कुछ संगठनों द्वारा फूलों से होली खेलने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। फिर से प्रकृति की ओर लौटने और उसके रंगों से सराबोर होने की ललक शहरी जनमानस में दिख रही है। हालांकि छत्तीसगढ़ का विशाल ग्राम्यांचल होली ही नहीं, अपना हर त्योहार प्रकृति से जुड़कर ही सोल्लास मनाता है।

तो नहीं मनाते होली :  
गांव में महामारी फैली हो या बच्चों में छोटी माता (चिकनपॉक्स) का प्रकोप हो या मवेशियों में खुरहा-चपका या किसी अन्य बीमारी का प्रकोप हो तो गांव में होली नहीं मनाई जाती। न तो होली जलाई जाती है और न ही ढोल-नगाड़े बजते हैं, रंग-गुलाल का भी प्रयोग नहीं होता। किसी प्राकृतिक आपदा या दैवीय प्रकोप की स्थिति में ग्रामीणों की आपसी सहमति से गांव में पहले ही यह मुनादी कर दी जाती है कि इस बार होली का त्योहार नहीं मनाया जाएगा।

- ललित मानिकपुरी 

छत्तीसगढ़ : लोक हर्ष की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति 'मड़ई-मेला' Chhattisgarh: 'Madai-Mela', a cultural expression of folk joy






चहर्र...चहर्र...करती रहचूली (लकड़ी का चार पंखुड़ियों वाला  झूला) पर झूलते मज़ा लेते युवा, चरखी झूले पर चहकते बच्चों की टोलियां। कहीं बासुरी की तान व डमरू की डम-डम पर बंदरिया का नाच या सांप-नेवले की लड़ाई दिखाता मदारी। तो कहीं मयूर पंख और कौड़ी पहन कर लाठियां लहराते हुए पारंपरिक वेषभूषा में थिरकते व दोहा पारते राउतों की टोली और उनके दोहों के साथ रह रहकर गूंजता गड़वा बाजा।
 
छत्तीसगढ़ के मड़ई-मेले का नाम लेते ही जेहन में कुछ ऐसी ही तस्वीरें उभरती चली जाती हैं।

मड़ई-मेले में प्रवेश कहीं से भी करें मड़ई का माहौल मन को मोह लेता है। एक ओर रसभरे गन्नों की कतार, तो दूसरी ओर हरी-हरी सब्जी-तरकारियों की बहार। दूर से आती है मिठाइयों की महक। चांदी सा चटख बताशे, सुनहरे ओखरे। रसगुल्ले, गुलाबजामुन, बालूसाय, बूंदी, सेव, पेड़ा और बर्फी से भरी परातें, तो दूसरी ओर खौलती कड़ाही से छन-छन कर निकलती गरमा-गरम जलेबियां, आहा...आलूचाप, समोसे और गुलगुले भी। यहां खजूर, पेठे, सोनपापड़ी तो वहां चटपटी चाट और भेलपुरी।

नजर जिधर पड़े उधर, नजारा गुदगुदाने वाला होता है। इधर साड़ी-कपड़े और मनिहारी वालों की कतार, तो उधर पान वालों की दुकान। होंठ लाल कर दर्पण देख बार-बार जुल्फें और मूछें सवांर, पान ठेलों से मनिहारी लाइन पर नजरें टिकाए छोकरे, तो दूसरी ओर कलाइयों में चूड़ियां पहनती हुई तिरछी नजरों से छोकरों की टोह लेती छोकरियां।

 एक ओर सीताराम महाप्रसाद, सीताराम...कहते हुए हाथ जोड़कर अपने मीत-मितानों  से मिलाप करते लोग। तो चूड़ियों की खनक के साथ उनके धूलधूसरित पांवों को छू-छूकर माथे से लगाती उनकी लुगाइयां। 

भैया जरा बच के, यहां भविष्य बताता तोता पंडित और गधा महाराज भी होता है। फटफटी व मोटरकारों की रफ्तार से सिर चकराने वाला मौत का कुआं, युवा दिलों की धड़कन मुन्नी का नाच या लैला का डिस्को, बड़े मेलों की शान हुआ करते हैं। यहां मीनाबाजार भी होता है, आकाश झूले पर बैठो और एक नजर में पूरा मेला का विहंगम नजारा देख लो।

मड़ई-मेले छत्तीसगढ़ के ग्राम्यजीवन का ऐसा सांस्कृतिक पर्व, उत्सव है, जिसमें लोक संस्कृति की इंद्रधनुषी छटा बिखरती है और जिसमें ग्राम्य जीवन की अनोखी परंपराओं का निर्वहन शान से होता है। 

 वास्तव में लोकहर्ष की वार्षिक अभिव्यक्ति हैं मड़ई-मेले। खरीफ फसल की कटाई, मिंजाई के बाद जब घर-घर में धन-धान्य के रूप में लक्ष्मी का वास हो जाता है और खेती का एक  सत्र पूर्ण हो जाता है, तब अवकाश के क्षणों में कार्तिक पूर्णिमा से लेकर फाल्गुन माह तक मड़ई का आयोजन गांव-गांव में होता है।
 
गांव में जिस दिन मड़ई का आयोजन होता है, उस दिन खेत-खारों से लेकर बस्ती में स्थापित सभी देवी-देवताओं की विशेष-पूजा होती है। तोरण पताकों से सजा बांस का विशाल स्तंभ निकाल जाता है, जिसे 'मड़ई' कहते हैं। यह विशाल स्तंभ मड़ई आयोजन का प्रतीक होता है।

  'मड़ई' स्तंभ पारंपरिक रूप से किसी निश्चित स्थान से पूजा-पाठ के बाद, बाजे-गाजे के साथ निकाला जाता है और मड़ई स्थल पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है। 

राउत जाति के लोग पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य करते चलते हैं। कर्म, भक्ति और प्रेम के दोहे गाते राउतों की टोली मड़ई में पारपंरिक राउत नृत्य की आकर्षक छटा बिखेरते हैं। 

वहीं गड़वा बाजा की गूंज पूरे मड़ई स्थल पर होती है। दोहों की लड़ियों के बीच मोहरी की ऊंची तान पर ढोल, निशान, डफड़ा, टिमटिमी, झूमका आदि साजों का समवेत स्वर रह-रहकर मड़ई स्थल पर गूंजते रहता है। 




रात में छत्तीसगढ़ी नाचा या आकेस्ट्रा का रंगारंग कार्यक्रम होता है। इसमें लोक कलाकार पूरी रात लोक गीत-संगीत और नृत्य के साथ गम्मत (प्रहसन) से सैकड़ों लोगों का भरपूर मनोरंजन करते हैं।
 
आदिवासी क्षेत्रों में मड़ई का अंदाज और भी निराला होता है। वर्षों पुरानी मान्यताओं पर आधारित रोचक रस्मों रिवाज का निर्वहन वनवासी बड़ी शिद्दत से करते हैं। मड़ई-मेला गायन, वादन और नर्तन में आदिवासी पुरुषों की मुख्य भूमिका होती है। 





  आस्था और आयोजन के  ध्वज युक्त प्रतीक स्तंभों के साथ मड़ई की शोभायात्रा बाजे-गाजे के साथ धूमधाम से निकाली जाती है। प्रतीक स्तंभों को थामकर आदिवासी पुरुष कतारबद्ध होकर चलते हैं। विभिन्न स्थलों पर स्थापित देवताओं को मड़ई-मेला का आमंत्रत देते हैं। मड़ई में आदिवासियों की अनूठी संस्कृति और सभ्यता की शानदार झलक देखने को मिलती है।

मैदानी क्षेत्रों में जहां मड़ई के रस्मों-रिवाज में यादव (राउत), निषाद (केंवट), गोंड़ बैगा सुविधा के अनुसार मड़ई का आयोजन हर गांव में अलग-अलग दिन होता है। ताकि आसपास के गांवों के लोग उसमें शामिल हो सकें। 

अमूमन मड़ई का आयोजन साप्ताहिक बाजार के दिन होता है। जिन गांवों में साप्ताहिक बाजार नहीं होते, उन गांवों में कोई भी ऐसा दिन मड़ई के लिए तय किया जाता है, जिस दिन आसपास किसी गांव में साप्ताहिक बाजार या मड़ई का आयोजन न हो। 

मड़ई बाजार का ही स्वरूप है, लेकिन यह सामान्य बाजार से पृथक इसलिए होता है कि इसमें उत्सवी माहौल होता है। गांवों और क्षेत्र के देवी-देवताओं से लेकर पंचायत प्रमुखों, ग्राम पटेलों, गणमान्य नागरिकों, जनप्रतिनिधियों व आम जनता को पूरे गांव की ओर से आमंत्रित किया जाता है। सगे-संबंधियों, मीत-मितानों, नाते-रिश्तेदारों को न्यौता जरूर दिया जाता है।  

 
मड़ई एक ऐसा संगम होता है, जिसमें कला, संस्कृति, व्यापार, मनोरंजन सहित सामाजिक व पारिवारिक  समागम होता है। घर-घर में मेहमान आते हैं, नाते-रिश्तेदारों  से सार्थक मेल-मिलाप भी हो जाता है। 

सुख-दुख की बातें हो जाती हैं। सबका हाल-चाल मालूम हो जाता है। पारिवारिक योजनाओं के संबंध में विचार-विमर्श हो जाता है। युवक-युवतियों के ब्याह संबंधी चर्चा होती है। सभी को इतला हो जाती है कि इस साल ब्याह की तैयारी है और सब योग्य वर-वधु की तलाश में जुट जाते हैं।

 
 मड़ई-मेले में लोग सपरिवार या दोस्त-यारों के साथ जाते हैं। मनोरंजन के अलावा अपनी दैनिक जरूरतों के सामान खरीदते हैं। झाड़ू, सूपा, टोकरी से लेकर कृषि औजार, कपड़े, बर्तन, आदि जरूरत की प्रायः सभी चीजें ग्रामीणों को मड़ई-मेले में मिल जाती हैं। महिलाएं सौंदर्य प्रशाधन खरीदती हैं, वहीं बच्चे खिलौने। मड़ई से गांव-कस्बे के छोटे-छोटे व्यवसायियों को रोजगार धंधे का अच्छा अवसर मिलता है। व्यवसायी मड़ई-मेलों में घूम-घूम कर अपना सामान बेचते हैं।

मेले का लघु रूप है मड़ई। मड़ई ग्राम्य स्तर का आयोजन है, जबकि मेले किसी पर्व तिथि विशेष पर उन स्थानों पर होते हैं, जिन स्थानों का धार्मिक, पौराणिक, या सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व होता है।

  छत्तीसगढ़ धार्मिक तीर्थों से परिपूर्ण प्रदेश है। यह धार्मिक व पौराणिक कथाओं से जुड़ा हुआ है। युगों-युगों में घटित उन महान घटनाओं का साक्षी रहा है, जिसका स्मरण लोग बड़ी आस्था और गर्व से करते हैं। 

छत्तीसगढ़ यानी प्राचीन कोसल प्रदेश भगवान राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि है। उनका नाम भी इस पावन भूमि के कारण कौशल्या पड़ा। 

यह माना जाता है कि भगवान राम के वनवास काल के कई वर्ष छत्तीसगढ़ में बीते। यहां का शिवरीनारायण धाम उस सबरी के नाम से प्रसिद्ध है, जिसने भगवान राम को मीठे बेर खिलाए थे। रामभक्त माता सबरी के नाम से यहां भगवान का एक नाम सवरीनारायण (शिवरीनारायण) पड़ा। यहां सवरीनारायण का प्राचीन मंदिर है, जहां दर्शन-पूजन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। यहां प्रतिवर्ष पंद्रह दिनों का मेला होता है। 

रामगढ़ पहाड़ पर राम के पदचिन्ह होने की मान्यता है, यहां भी मेला लगता है। महाभारत काल में हुए पांडवों ने भी अपना वनवास काल का कुछ समय छत्तीसगढ़ में बिताया। महासमुंद जिले के खल्लारी डोंगरी व उसके आसपास पांडवों के निवास और उनसे जुड़ी रोचक घटनाओं का जिक्र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता रहा है। कहा जाता है हिडिम्बा राक्षसी से भीम का ब्याह खल्लारी में ही हुआ। यहां खल्लारी देवी का प्रसिद्ध मंदिर है, जहां तीन दिनों का मेला होता है। छत्तीसगढ़ में करीब  २५ स्थानों में आयोजित होने वाले  मेले काफी प्रसिद्ध हैं। 

तीन नदियों के संगम पर बसा राजिम तो छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। जहां प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला होता है।  इस मेले को हिन्दू धर्माचार्यों ने पांचवें महाकुंभ का दर्जा दिया है। यह देश का ऐसा कुंभ मेला है, जो हर वर्ष आयोजित होता है। 

प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रहे सिरपुर में महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाला मेला प्रसिद्ध है। बस्तर का जात्रा, दशहरा मेला तो विश्व प्रसिद्ध है। 

संत गुरुघासी दास की जन्मस्थली गिरौदपुरी और कर्मस्थली भंडारपुरी में विशाल गुरुदर्शन मेले होते हैं।  वहीं दामाखेड़ा के संत समागम मेले में दुनियाभर के कबीरपंथी खींचे चले आते हैें। कुदुरमाल (चांपा) में भी कबीरपंथियों का मेला भराता है।



 महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्‌य स्थल चम्पारण्य का मेला,  चित्रोत्पला गंगा महानदी के उद्‌गम स्थान श्रृंगी ऋषि पर्वत सिहावा का मेला,  सिहावा के ही पास देउरपारा बुनेसर का कणेश्वर मेला, पाताल फोड़ निकली सेतगंगा बम्हनी (महासमुंद) का मेला, बिरकोनी (महासमुंद) का पौष पूर्णिमा चंडी मेला, नारायणपुर का  मड़ई-मेला, कांकेर का मेला, डोंगरगढ़ (राजनांदगांव) का मां बमलेश्वरी मेला, कनकी (बिलासपुर) का शंकर महादेव मेला, रतनपुर का मेला, दंतेवाड़ा का दंतेश्वरी मेला, रायपुरा महादेवघाट का मेला, कवर्धा का भोरमदेव मेला, खपरीभट्ठी (तिल्दा) मां बंजारीधाम का मेला, नरसिंह मेला, रूद्री (धमतरी)का डोंगापथरा मेला,  धमतरी का बिलाईमाता मेला, कसडोल का तुरतुरिया मेला, ओरछा (बस्तर) का आदिवासी मेला और  झलमला बालोद का मेला बड़े प्रसिद्ध मेले हैं।

  मड़ई-मेला सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक सपन्नता को बढ़ाते हैं। समाज में एकता और भाईचारा की भावना को और पुष्ट करते हैं। मड़ई-मेला के आयोजन से ग्राम्यांचल का माहौल उल्लासमय हो जाता है। 

छत्तीसगढ़ में मड़ई-मेलों की आकर्षण और बढ़ गया है, बल्कि मड़ई-मेले पहले से कहीं अधिक व्यापक रूप में आयोजित किए जा रहे हैं। प्रमुख मेलों के लिए  सरकार की ओर से भरपूर आर्थिक सहायता भी मिल रही है। यह सहायता लाखों में होती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भव्य रूप से किया जाने लगा है। अंचल के लोक कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन के लिए अच्छा मंच मिल रहा है। वहीं लोगों को स्थानीय और अन्य प्रदेशों के विख्यात कलाकारों की कला का दर्शन भी सहज रूप में हो जाता है।
 
  समय के साथ मड़ई-मेलों में सामाजिक बुराइयों का भी साया पड़ता जा रहा है। शराब, जुआ का अवैध कारोबार हावी हो रहा है, बल्कि कई गांवों में इन अवैध कारोबार से जुड़े लोग ही मड़ई का आयोजन करते हैं। बैगा-गुनिया और पंचायत के कुछ प्रमुखों के लिए मांस-मदिरा और रात में नाच-गान की व्यवस्था के लिए कुछ हजार रुपए दे देते हैं। फिर खुलेआम शराब बेचकर और जुआ खेलाकर भारी कमाई करते हैं। इसका कुछ हिस्सा मिलने से थाने वाले भी खुश हो जाते हैं। नेता लोगों को भाषण पिलाने के लिए बिना मशक्कत के लोगों की भीड़ सुलभ हो जाती है। 

शराब और जुआ का प्रभाव पूरे मड़ई -मेले पर पड़ने लगा है। असामाजिक तत्व हावी हो जाते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ गई है। मड़ई-मेले का माहौल इस कदर खराब हो गया है कि लोग परिवार की महिलाओं को ले जाना पसंद नहीं करते। मड़ई-मेलों में पुलिस बल भी तैनात रहता है, लेकिन नेता जी के जाने के बाद उनका ध्यान कमाई में ज्यादा रहता है। पाकिटमार और उठाईगीर सक्रिय हो जाते हैं। महिलाओं के गले से गहने और लोगों की जेब से बटुए कब पार हो जाते हैं पता नहीं चलता। इन असामाजिक गतिविधियों के बावजूद मड़ई-मेले की महत्ता बनी हुई है और वर्षों तक बनी रहेगी।

- ललित मानिकपुरी 

गुरुवार, 2 जून 2011

छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा...


छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा...
         
यह पंक्तियां पूस पूर्णिमा के दिन द्वार-द्वार, गली-गली, और गांव-गांव में किसी जन नारे की तरह गूंजती हैं, जब समूचे छत्तीसगढ़ में छेरछेरा का त्योहार अन्न दान के उत्सव के रूप में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। 

युवा-बालवृंदों की दस्तक इन पंक्तियों का उद्‌घोष के साथ द्वार-द्वार पर होती है और हर द्वार पर मौजूद बड़े-बुजुर्ग उनकी टोकरी या थैलों में मुट्ठी-मुठ्ठीभर धान डालते जाते हैं।

 बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। वे एक से दूसरे द्वार दौड़-दौड़कर जाते हैं। वहीं युवा भी जोड़ियों या समूहों में पूरी बस्ती छान मारते हैं।

 रामायण-कीर्तन मंडलियां कीर्तन करते हुए आती हैं, तो पंथी आदि लोकनृत्य करने वाले बाजे-गाजे के साथ लोकनृत्यों की छटा बिखेरते चलते हैं। 

नाचा-नौटंकी वाले नजरिया परी (नचनिया) के साथ नाच-गान करते हुए धान बटोरते हैं, तो लीला मंडलियां भी लीला मंचन के दौरान प्रस्तुत धार्मिक झांकियों में ग्रामीणों द्वारा अर्पण किए गए धान को भी इसी दिन एकत्र करती है।

घर-घर से धान मांगने की इस परंपरा को 'छेरछेरा मांगना' या 'छेरछेरा कूटना' कहा जाता है।

धान का दान देने और लेने का यह त्योहार किसी धार्मिक या पौराणिक मान्यता अथवा इतिहास के किसी घटना या पात्र विशेष की भूमिका पर आधारित नहीं है, बल्कि यह विशुद्ध रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित एक प्रमुख त्योहार है।

 इसमें अन्न दान की परंपरा का निर्वहन एक लोक-उत्सव के रूप में होता है। इस दिन लोग जी भर कर मॉंगते हैं और दिल खोल देते हैं। हर द्वार पर मांगने वालों का तांता लगा रहता है और किसी को खाली नहीं लौटाया जाता।

 इस दिन न मांगने में संकोच किया जाता है और न देने में। इसके मूल में सामाजिक समरसता, भाईचारा, समानता और सहअस्तित्व की भावना है। इस दिन अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, जाति-पाति का कोई भेद नहीं होता। कर्म, दान और धर्म का पालन करते हुए सर्वमंगल और सुख-सम्मृद्धि की कामना का सहज प्रकटीकरण छेरछेरा पर्व रूप में होता है।

छेरछेरा का त्योहार वस्तुतः ग्रामीण अंचल का त्योहार है। यह पूस के महीने में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। जब खेतिहर किसान-मजदूर परिवारों का वर्षभर का कठिन परिश्रम अन्न के रूप में साकार होकर उनकी कोठियों में भर जाता है। फसल की कटाई-मिंजाई का कार्य पूर्ण हो चुका होता है। 

खेतिहर परिवारों के लिए यह खेत और खलिहानों के परिश्रमपूर्ण कार्य से अवकाश का क्षण होता है। घर में फसल के रूप में श्री लक्ष्मी का वास और खेती के कार्य से अवकाश का यह समय आनंद से परिपूर्ण होता है। यह भ्रमण, मनोरंजन के साथ पारंपरिक मेले-मंड़ई, तीर्थाटन और धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भरपूर आनंद लेने का समय होता है।


 फसल प्राप्ति की प्रसन्नता में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पूजा-पाठ के साथ किसान छेरछेरा के पर्व पर समूचे गांव को धान का दान इसलिए करते हैं, ताकि अवकाश के इस क्षण को आनंदपूर्वक व्यतीत करने के लिए किसी की जेब खाली न रहे। विशेषकर बच्चों और युवाओं को दिल खोलकर धान दिया जाता है। 

एक तहर से अच्छी फसल होने की खुशी में यह उन्हें ईनाम स्वरूप दिया जाता है। वहीं बच्चे और युवक भी बड़े अधिकारपूर्वक घर-घर जाकर धान मांगते हैं। 

छेरछेरा त्योहार के इस सूक्ति वाक्य 'छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा' में भी यही भाव छिपा हुआ है। द्वार पर आने वाले बच्चों और युवाओं का समूह इस सूक्ति वाक्य में यह कहता है कि यदि सूपा और टोकरियों में रखा धान दान देते-देते खत्म हो गया हो, तो प्रमुख भंडार (कोठी) के धान को निकालकर दीजिए। 

द्वार-द्वार घूमते हुए थैला या टोकरियां कब भर जाती हैं पता ही नहीं चलता। छेरछेरा में मिले धान को बेचकर वे अच्छी राशि प्राप्त कर लेते हैं।

गांवों में बच्चों को छेरछेरा की प्रतीक्षा रहती है। उन्हें न केवल खई-खजानी के लिए रुपए मिल जाते हैं, बल्कि उनकी अन्य छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी पैसे की व्यवस्था हो जाती है।

 गांव की रामायण, लीला, नाटक मंडलियों, अखाड़ा दल, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को भी आर्थिक उर्जा छेरछेरा के दिन ही मिलती है। छेरछेरा के बाद गांव के बच्चों और युवाओं की कितनी ही क्रिकेट टीमें तैयार हो जाती हैं। नए-नए बेट, बॉल आदि सामान मिलने से उनका उत्साह छलकने लगता है।

 छत्तीसगढ़ में अन्नदान की परंपरा के रूप में मनाया जाना वाला इस पर्व की शुरुआत कब हुई यह कहना मुश्किल है। नदी-नाले, वन और खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ के वासी गरीबी और अभावों में जरूर जीते रहे हैं, लेकिन उनके व्यवहार में देने या बांटकर खाने की भावना सहज और स्वाभाविक रूप से रची-बसी है। 

छेरछेरा का त्योहार छत्तीसगढ़वासियों की सहज दानशीलता को अभिव्यक्त करता है। द्वार पर आने वाले को कभी भी खाली हाथ नहीं लौटाया जाता। छेरछेरा पर अन्न दान की परंपरा के प्रति लोग इस कदर भावनाशील व निष्ठावान हैं कि, जिसके पास खेत नहीं होता वह भी अन्न दान करने से पीछे नहीं हटता।

 जिनकी जमीन में धान की फसल नहीं होती या उदरपोषण के लिए जो कोदो-कुटकी की उगा पाते हैं वे भी छेरछेरा के दिन अपनी उपज का दान करने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं।

छेरछेरा का त्योहार ऐसे समय पर होता है, जब देने के लिए हर घर में धान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। किसानों की कोठियां भरी होती हैं, परछी से आंॅगन और देहरी तक भी धान बोरियों, सूपों या टोकरियों में ऐसे रखे होते हैं।

 कुछ धान बेचकर लोग अपने बच्चों या युवाओं को उनके मनोरंजन या अन्य जरूरतों के लिए पैसा दे सकते हैं। घर-घर घूमकर छेरछेरा मांगकर वे जितनी मात्रा में धान एकत्र करते हैं उससे अधिक मात्रा में उन्हें अपने ही घर से सहजता से मिल सकता है, फिर ऐसी परंपरा की क्या जरूरत। 

छेरछेरा की परंपरा इस कारण भी मायने रखती है कि यहां सिर्फ अपने घर के ही नहीं वरन पूरे गांव के बच्चों को समान रूप से धान दिया जाता है। इससे गांव के सभी बच्चों और युवाओं की मंडलियों को लगभग समान रूप से रुपए प्राप्त हो जाते हैं।

 इस राशि को वे अपनी कमाई के बतौर मनमर्जी खर्च कर सकते हैं। छेरछेरा की कमाई से कोई बच्चा सप्ताहभर टिकिया-बिस्कुट खाता है तो कोई नया कुर्ता सिला लेता है या खिलौने खरीद लेता है। समय के साथ बच्चों की पसंद बदल रही है और अब बच्चे क्रिकेट का बल्ले और गेंद लेना पसंद करते हैं। छेरछेरा के बाद नए बेट-बॉल से लैस कई टीमें तैयार हो जाती हैं। 

हम स्कूल के लिए छेरछेरा मांगते थे, स्कूल के बच्चों के साथ शिक्षक भी होते थे। हमें हर घर से अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही धान मिलता था। पूरे गांव से मिले धान को बेचकर जो राशि मिलती थी उसमें से दो-दो, चार-चार रुपए बच्चों को बांट दिए जाते थे और शेष राशि गुरुजी के पास जमा कर दी जाती थी। इस राशि से गणतंत्र दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने वाले बच्चों को पुरस्कार दिए जाते थे। पुरस्कार के आकर्षण और गुरुजनों की प्रेरणा से बड़ी संख्या में बच्चे गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों में उत्साह से भाग लेते थे।

 इस त्योहार को मनाने के लिए कोई विशेष अनुष्ठान या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही नए वस्त्र-परिधानों की अपेक्षा की जाती है। लोग जैसे हैं उसी स्थिति में ही यह त्योहार हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। 

यह जरूर है कि छेरछेरा के अवसर पर अनेक स्थानों पर मड़ई-मेला का आयोजन होता है, जिसमें लोग सज-धजकर आते हैं और खूब आनंद लेते हैं।

तुरतुरिया मेला और बिरकोनी (महासमुंद) का चंडी मेला पौष पूर्णिमा पर लगने वाले प्रमुख मेले हैं, जहां हजारों की भीड़ पहुंचती है। इन मेलों में रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है। जिसमें छत्तीसगढ़ के मजे हुए लोक कलाकारों की टीम अपनी मनभावन प्रस्तुति से दर्शकों को पूरी रात बांधे रखती हैं।

समय के साथ अन्य त्योहार की भांति छेरछेरा त्योहार के स्वरूप में भी परिवर्तन हो रहा है। टिकिया-बिस्कुट या खिलौने के लिए बच्चे अब छेरछेरा के धान के भरोसे नहीं रहते। खेती ही अब एकमात्र आय का जरिया नहीं रही, विभिन्न स्रोतों से ग्रामीणों की आमदनी भी अब बढ़ गई है। 

साधारण परिवार के बच्चों को भी इतनी तो मिल ही जाती है कि खिलौना या खेल का कोई सामान लेने के लिए उन्हें सालभर छेरछेरा त्योहार की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।  बदलते परिवेश में छेरछेरा मांगने के लिए टोकरी या थैला लेकर घर-घर जाने में युवा ही नहीं बच्चे भी संकोच करने लगे हैं। 

पहले संपन्न घरों के लोग भी अपने बच्चों को निःसंकोच इस परंपरा का भागीदार बनाते थे, लेकिन अब ऐसे परिवारों के बच्चे इस पंरपरा से दूर हो रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में तो इस त्योहार का पता भी नहीं चलता। शहरों के बहुतेरे बच्चे छेरछेरा त्योहार और इसकी परंपरा में कोई रुचि नहीं रखते। बल्कि इसमें भी संदेह है कि वे इस त्योहार की परंपरा से परिचित भी होंगे।

बावजूद इसके छेरछेरा का त्योहार छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख त्योहार है और ग्राम्यांचल में इस त्योहार पर अन्न दान की परंपरा का निर्वहन जिन सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों और जिन भावनाओं के साथ किया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही छत्तीसगढ़ की विशेष पहचान है।

- ललित मानिकपुरी, बिरकोनी, महासमुंद, (छ.ग.)


#छेरछेरा 
#chherchhera
#chhattisgarh #Chhattisgarh_culture #chhattisgarh_festival

बुधवार, 1 जून 2011

कुष्ठ और संसद

मित्र ने कहा, कितना अच्छा है न कि आप और हम कुष्ठ रोगी नहीं हैं? मैंने कहा कि हां, लेकिन आज अचानक यह सवाल आपके मन में कैसे आ गया, क्या कुष्ठ रोगियों की भयानक पीड़ा का अहसास हो गया? कितना अच्छा होता कि आप और हम कुष्ठ रोगियों की सेवा में कुछ कर पाते। यदि आप ऐसा कुछ करने की सोंच रहे हैं तो बहुत विचार बहुत अच्छे हैं। कुष्ठ पीड़ितों को नारकीय जीवन जीना पड़ता है। उनके हाथ-पैर धीरे-धीरे गल जाते हैं। भयानक पीड़ा होती है। इससे भी अधिक पीड़ा तब होती है जब इस रोग के कारण उन्हें समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें पापी कहकर धिक्कारा जाता है। परिवार के सगे संबंधी भी मुंह फेर लेते हैं, उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं। उन्हें उनके ही घर और गांव से निकाल दिया जाता है। अपने तन और मन की भयानक पीड़ा को सहते हुए वे सड़कों पर भीख मांगने के लिए विवश हो जाते हैं। जरा सोचों कि यह रोग हमें होता तो हम पर क्या बीतती।
मित्र ने कहा कि अरे भाई आप तो कुष्ठ रोगियों की कथा सुनाने लगे, मैं उनकी नहीं अपने बारे में सोचने को कह रहा हूं। चुनाव आ रहा है पार्टियों की टिकट बट रही है। कोशिश हमें भी करनी चाहिए। अभी से दावा करेंगे तो आगे चलकर कभी न कभी टिकट मिल ही जाएगी। हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था महान है। आम आदमी भी देश के संसद में पहुंच सकता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बन सकता है। इसके लिए आदमी के रंग-रूप, वेश-भूषा, कद-काठी, जात-पात की कोई बाधा नहीं। वह भारत का नागरिक होना चाहिए चाहे वह भारत के किसी भी कोने का निवासी हो। उसका पढ़ा लिखा होना भी आवश्यक नहीं। अंगूठा छाप हो तो भी चलेगा। डाकू और हत्यारे भी चुनाव जीतकर सांसद, मंत्री बन जाते हैं। हम तो फिर भी ठीक हैं।
मैंने कहा कि आप तो कुष्ठ रोगियों की बात कर रहे थे, अचानक चुनाव की चर्चा करने लगे। मित्र ने कहा, आप इतना भी नहीं समझते कि कुष्ठ रोग हो गया तो सारी योग्यता होते हुए भी हम संसद में नहीं पहुंच पाएंगे। संसद क्या, विधानसभा के सदस्य भी नहीं बन पाएंगे। आदमी को और कोई भी बीमारी हो तो कोई बात नहीं, लेकिन कुष्ठ रोग नहीं होना चाहिए। देखते नहीं, हमारे नेता सांसद, विधायक या मंत्री बनते ही किस तरह विदेशों में जाकर अपनी बीमारियों का इलाज कराते हैं। उन्हें तरह-तरह की बीमारियां होती हैं। नींद की बीमारी होने के कारण कई सांसद, संसद की कार्रवाई की दौरान सोते रहते हैं। हंगामा से भी उनकी नींद नही टूटती। कई को तो ऐसी भी बीमारियां होती हैं, जिनका फ़िलहाल कोई इलाज नहीं है। भ्रष्टाचार, बेइमानी, झूठ, फरेब  उनकी रगों में समा गया है। सत्ता की भूख निरंतर बढ़ती जाती है। स्वार्थ के चलते वे कभी अंधे, गूंगे और बहरे बन जाते हैं तो कभी जाति-धर्म के नाम पर दंगे-फसाद  कराते हैं। निर्दोष जनता का खून बहाते हैं। फिर  भी उन्हें यह एहसास भी नहीं होता कि उनका और जनता का हाल देखकर भारत माता खून के आंसू रो रही है।
मित्र ने कहा कि इतनी गंभीर बीमारियां होते हुए भी पीड़ित नेताओं पर चुनाव लड़ने के लिए कोई रोक नहीं है परन्तु, कुष्ठ रोगी के लिए है।
मैंने कहा कि मित्र चिकित्सा विज्ञान तो कहता है कि कुष्ठ लाइलाज नहीं है, फिर  वर्षों पूर्व बने नियम-कानून के तहत कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को संसद या विधानसभा का सदस्य बनने से अब भी क्यों वंचित किया जा रहा है। मित्र ने कहा  अजी आप भी नहीं समझते, कुष्ठ रोगियों को दर्द का एहसास होता है। यानी वे दर्द का एहसास कर सकते हैं। सोंचों भला कि पुराने प्रावधान में संसोधन कर उन्हें सांसद या विधायक बनने का पात्र मान लिया गया और वे चुनाव जीत गए तो क्या होगा? संसद या विधानसभा में ऐसे लोग पहुंचने लगेंगे जिन्हें दुख-दर्द का एहसास होता है। वे जनता के भी दुख-दर्द का एहसास कर लेंगे। ऐसे में भला हमारे आदरणीय नेताओं की राजनीति कैसे चल पाएगी।

शुक्रवार, 27 मई 2011

छत्तीसगढ़ का 'पंथी' A wonderful folk dance of Chhattisgarh "Panthi"


सतनाम के हो बाबा, पूजा करौं सतनाम के ।
सतकाम के हो बाबा, पूजा करौं जैतखाम के ॥

धधक तीन...धधक तिन...मांदर की थाप, लय में लय मिलाती झांझ की झनकार... बाबा की जयकार... और शुरू होता है 'पंथी'। सत्यनाम का सुमिरन करते हुए गोल घेरे में खड़े पंथी दल के नर्तक संत गुरु घासीदास बाबा की स्तुति में यह गीत शुरू करते हैं। मुख्य नर्तक पहले गीत की कड़ी उठाता है, जिसे अन्य नर्तक दोहराते हुए नाचना शुरू करते हैं। मुखड़ा दोहराने के बाद अंतरा गाया जाता है।

सादा तोर झंडा बाबा, सादा तोर चौरा हे
सादा तोर चौरा हे ...................

प्रारंभ में गीत, संगीत और नृत्य की गति धीमी होती है। अंतरा के उपरांत पुनः मुखड़े पर आते ही गति बढ़ जाती है। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है और मृदंग की लय तेज होती जाती है, वैसे-वैसे पंथी नर्तकों की आंगिक चेष्टाएं तेज होती जाती हैं। 

गीत के बोल और अंतरा के साथ ही नृत्य की मुद्राएं बदलती जाती हैं, बीच-बीच में मानव मीनारों की रचना और हैरतअंगेज कारनामें भी दिखाए जाते हैं। इस दौरान भी गीत, संगीत व नृत्य का प्रवाह बना रहता है और पंथी का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है। 

प्रमुख नर्तक बीच-बीच में अहा, अहा... शब्द का उच्चारण करते हुए नर्तकों का उत्साहवर्धन करता है। गुरु घासीदास बाबा का जयकारा भी लगाया जाता है। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रमुख नर्तक सीटी भी बजाता है, जो नृत्य की मुद्राएं बदलने का संकेत होता है।

 नृत्य का समापन तीव्र गति के साथ चरम पर होता है। वस्तुतः यह अत्यंत द्रुत गति का नृत्य है। इसमें गति और लय का अदभुत समन्वय होता है। इस नृत्य की तेजी, नर्तकों की तेजी से बदलती मुद्राएं एवं देहगति दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती है।



पंथी नर्तकों की वेशभूषा सादी होती है। सादा बनियान, घुटने तक सादा धोती, गले में हार, सिर पर सादा फेटा और माथे पर सादा तिलक। अधिक वस्त्र या श्रृंगार इस नृर्तकों की सुविधा की दृष्टि से अनुकूल भी नहीं। 

यह नृत्य इतना अधिक श्रमसाध्य है कि, घंटों नाचते-नाचते नर्तक का शरीर उष्मा से भर जाता है, पसीना से तरबतर हो जाता है। समय के साथ वेशभूषा में कुछ परिवर्तन आया है। अब रंगीन कमीज और जैकेट भी पहना जा रहा है। मांदर एवं झांझ पंथी के प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं। अब बेंजो, ढोलक, तबला और केसियो का भी प्रयोग होने लगा है।

पंथी छत्तीसगढ़ का एक ऐसा लोकनृत्य है, जिसमें आध्यात्मिकता की गहराई है, तो भक्त की भावनाओं का ज्वार भी है। इसमें जितनी सादगी है, उतना ही आकर्षण और मनोरंजन भी है। 

इस नृत्य में उतना ही अधिक श्रम भी लगता है। ऐसा संगम अन्य किसी लोकनृत्य में दुर्लभ है। पंथी की यही विशेषताएं इसे अनूठा बनाती हैं।

वास्तव में 'पंथी', धर्म, जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव, आडंबरों और मानवता के विरोधी विचारों का संपोषण करने वाली व्यवस्था पर, हजारों वर्षों से शोषित और दलितों का करारा, किन्तु सुरमय और सुमधुर प्रहार है।

सुहानी मोला लागे हो घासीदास के बोली।
सुहानी मोला लागे हो बाबा जी के बोली॥
जाति पाति हे सब बरजाई,
छुआछूत हे बड़ दुखदाई।
एकता में हावै भलाई हो बाबा जी के बोली।
सुहानी मोला लागे हो घासीदास के बोली॥




'पंथी' छत्तीसगढ़ की सतनामी जाति के लोगों का पारपंरिक नृत्य है, जो सतनाम पंथ के पथिक हैं। इस पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास ने की थी। उनका जन्म सन्‌ १७५६ में छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के गिरौद ग्राम में हुआ था और उनकी मृत्यु १८५० में भंडार ग्राम में हुई। ये दोनों ग्राम गिरौदपुरी और भंडारपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

यहां सतनाम पंथ के धर्मगुरुओं की वंशगद्दी परंपरा प्रचलित हैं, जहां प्रतिवर्ष गुरुदर्शन मेले में लाखों की संख्या में बाबा के अनुयायी पहुंचते हैं। तीन दिनों के मेले में यहां पंथी की निराली छटा बिखरती है। पंथी के कई नर्तक दल अपनी प्रस्तुति से हजारों-लाखों लोगों का मन मोह लेते हैं।

गिरौद जाबो हो, भंडार जाबो हो, अपन गुरु के दर्शन पाबो हो।
नरियर फूल चढ़ाबो हो, मन के मनौती मनाबो हो।

संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरूद्ध 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। दलित-शोषितों को सतनाम पंथ का मार्ग दिखाया। उन्होंने सत्य, अहिंसा, सदाचार, सदकर्म, प्रेम और भाईचारा का संदेश दिया। उनका जीवन-दर्शन और आदर्श मानव समाज की विशेष धरोहर है।

सतनाम के ध्वजा लहरा दिए बाबा तैं,
गांव-गांव में होगे अंजोर...
छाता पहाड़ म धूनी रमाए बाबा,
सत रूप आगी म तन ल तपाए बाबा।
गांव-गांव म होगे अंजोर...

संत गुरु घासीदास ने शोषित-पीड़ित समाज को सतनाम के जहाज पर बिठाकर दुख, दारिद्र और अज्ञानता के भंवर से उबारने का स्तुत्य कार्य किया। इसका सुखद स्मरण करते हुए बाबा के अनुयायी अपनी हृदय की वेदना को, अपनी सदकामना को और अपने परम प्रिय आराध्य से मिलन की अभिलाषा को पंथी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं।

तैं उबार लेबे बाबा, छोटे-छोटे लइका हन उबार लेबे।
तैं उबार लेबे बाबा, गिरे पड़े मनखे हन उबार लेबे॥

बाबा की जयंती १८ दिसंबर से माहभर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे छत्तीसगढ़ में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ धूमधाम से मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गांव-गांव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है। इस दौरान सतनाम के प्रतीक स्तंभ 'जैतखाम' पर पालो चढ़ाया जाता है। यानी नया श्वेत ध्वजा फहराया जाता है। इस दौरान 'जैतखाम' के आसपास बड़े उत्साह के साथ 'पंथी' नृत्य किया जाता है। इसमें गुरु घासीदास बाबा के वाणी-वचनों, उनके जीवन चरित्र और उनके प्रति अपनी भावनाओं को विशेष गीत-संगीत और नृत्य के साथ पारंपरिक ढंग से गाया जाता है।

तोर चंदन खड़उ के भजत हौं सतनाम,
आरती ल लेले अपन जान के।
आरती ल लेले अपन जान के बाबा,
आरती ल लेले गरीब जान के॥

गुरु घासीदास के पंथ से ही 'पंथी' नृत्य का नामकरण हुआ है। 'पंथी' गीत आम छत्तीसगढ़ी बोली में होते हैं, जिनके शब्दों और संदेशों को साधारण से साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकता है। पंथी नृत्य जितना मनमोहक एवं मनोरंजक है, इसमें उतनी ही आध्यात्मिकता की गहराई और भक्ति का ज्वार भी है। इसमें रमें नर्तक-वादक और गायक ही नहीं उन्हें देख-सुन रहा जन समूह भी मंत्रमुग्ध हो जाता है।



 पंथी के सुर-संगीत और शब्दों की तरंगें रोम-रोम को झंकृत कर देती हैं। उन तरंगों पर सवार होकर जीव, पारलौकिक संसार में गोता लगाते हुए परम सत्य से साक्षात्कार को आतुर हो जाता है। बाबा के कई अनुयायी महिला-पुरुष तो अपना सुध-बुध खोकर समाधि की सी स्थिति में पहुंच जाते हैं और पंथी की धुन पर झूमने लगते हैं।

 छत्तीसगढ़ी बोली को नहीं जानने-समझने वाले देश-विदेश के लोग भी देवदास बंजारे और उनके साथियों का पंथी देख खो सा जाते थे। श्री बंजारे अब नहीं रहे, लेकिन यह उनकी और उनके साथियों की साधना, परिश्रम और लगन का परिणाम है कि 'पंथी' आज देश-विदेश में प्रतिष्ठित है। 

छत्तीसगढ़ में तो हर सतनामी बहुल बस्ती में पंथी नर्तकों की टोलियां बन गई हैं। कई प्रतिभावान युवा इस नृत्य की साधना में जुटे हुए हैं, हालांकि देवदास बंजारे जैसी ख्याति किन्ही अन्य को अब तक नहीं मिली।

  'पंथी' सतनाम पंथ की सरस काव्य धारा है, जिसमें नृत्य और संगीत भी है। यह भक्ति के भावों का अविरल प्रवाह है। संत गुरु घासीदास बाबा की आराधन का साधन है। सतनाम पंथ के पथिकों का सहारा है।

- ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छ.ग.)

बारात से न बिगड़े बात


पौराणिक कथा है कि भगवान शंकर की बारात भूतों की बारात थी। देवता भी गए थे पर उनसे अलग-थलग थे। इस बारात का वर्णन कथा वाचक बड़े रोचक ढंग से करते हैं जिसमें बड़ा ही आनंद आता है। बारात शब्द में ही आनंद है। किन्तु आजकल बारात का जो स्वरूप अक्सर सामने आता है, उसे देखकर-सुनकर आनंद नहीं आता, बल्कि दुख ही होता है। भगवान शंकर के बाराती बने भूत-पिशाच अपनी तमाम अजीबोगरीब हरकतों के बावजूद मर्यादा में थे और यह बारात एक मिसाल बन गई। लेकिन आजकल के बाराती तो भूत पिशाचों को भी शर्मशार कर दें। शराब पीकर अमर्यादित व्यवहार करना, छेड़छाड़, लड़ाई-झगड़ा करना तो आम हो गया है। वे घरातियों को नीचा दिखाने के लिए उनका अपमान करने से भी नहीं चूकते। गाली-गलौज, मारपीट और तोड़फोड़ तक करते हैं। ऐसे बारातियों की हरकतों से जहां घराती पक्ष को नुकसान उठाना पड़ता है वहीं बाराती पक्ष को भी शर्मिंदा होना पड़ता है। कई बार ऐसे बारातियों की उन्हीं के अंदाज में जमकर खातिरदारी भी की जाती है, लेकिन अमूमन घराती पक्ष के लोग सामाजिक मान-मर्यादा का ध्यान रखते हुए बात बिगड़ने से रोकने की पूरी कोशिश करते हैं और बारातियों की हर अनैतिक हरकतों को अनदेखा कर देते हैं। कई बार बात वाकई बिगड़ जाती है और एक पवित्र रिश्ता बनने से बनने से पहले से टूट जाता है या रिश्तों में जिंदगी भर के लिए कड़ुवाहट घुल जाती है। मेरे विचार से बारात में शिष्ट लोगों को ही ले जाएं, जो विवाह के आदर्श साक्षी बनें और जिनकी उपस्थिति से दोनों पक्ष गौरवान्वित व आनंदित हों। बांकी लोगों को चाहें तो अपने रिसेप्शन में बुला सकते हैं।

गरीबी में बीमारी की गुंजाईश कहाँ


दुनिया में जीवन विज्ञान कहां से कहां पहुंच गया है। ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देते हुए लैब में जीवन की रचना कर रहा है। चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों को देख-सुनकर लगता है कि अब बीमारियों पर विजय पाना आसान हो गया है। यह भी दावे किए जा रहे हैं कि एक दिन विज्ञान के सहारे इंसान बुढ़ापा और मृत्यु को भी जीत लेगा। वर्तमान की ही बात करें तो बीमारियों की जांच और उपचार में आश्चार्यजनक ढंग से उपयोगी तरह-तरह की मशीनों और चिकित्सा रहस्यों को सुलझाने वाले विद्वान डॉक्टरों से अस्पताल लैस हैं। नए-नए प्रयोगों से इजाद की गई दवाएं बनाने वाली फैक्टियों की भरमार है। वहीं शरीर के नख से लेकर सिर तक तक बाहरी-भीतरी सभी अंगों व उसके रोगों के विशेषज्ञ डॉक्टरों की फौज है। सचमुच में स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधाओं में हम इतनी तरक्की कर चुके हैं कि कल तक जिन बीमारियों का नाम सुनते ही चेहरे से हवाइयां उड़ जाती थीं, उन बीमारियों के होने को भी लोग अब सहजता से लेने लगे हैं। पर कौन लोग? वे जिनके पास पैसा है इलाज के नाम पर लुटाने के लिए। सब जानते हैं कि आज इलाज के नाम पर किस कदर लूट मची हुई है। आम आदमी तो अस्पताल का नाम सुनकर ही थर्रा जाता है। फिर भी बीमारी से बच नहीं पाता और अस्पताल पहुंच ही जाता है। फिर क्या, उपलब्धियों की ऊंचाइयां छू रहा चिकित्सा विज्ञान मरीज की जेबें खंगालना शुरू कर देता है।
लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कहती है कि राज्य को अपने नागरिकों के स्वास्थ्य एवं चिकित्सा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसका सम्मान करते हुए वर्तमान में सरकारें भी  स्वास्थ्य व चिकित्सा सुविधा के नाम पर अरबों-खरबों रुपए खर्च कर रही है। लेकिन  आम जनता को इसका कितना फायदा मिल पा रहा है? सरकारी अस्पतालों की दशा ऐसी है कि आदमी नरक  जाना पसंद करे, पर वहां नहीं। आम आदमी गरीबी और बीमारी से जूझते हुए कैसे जीता  है, यह तो वहीं जानता है। यह जरूर है कि इसे उसके जैसे लाखों करोड़ों लोग रोजाना महसूस करते हैं, लेकिन वे लोग महसूस नहीं कर पाते जिनके हाथों में इसका उपचार है।
गरीबी वाकई आदमी के लिए सबसे बड़ी बीमारी है। इस पर और किसी बीमारी के लिए कोई गुंजाईश नहीं बचती। गरीबी में कोई और बीमारी हो जाए तो समझिए आखिरी दिन आ गए।

शुक्रवार, 6 मई 2011

बहुविवाह और ओसामा

 बहु विवाह प्रथा का मै निंदक नहीं हूँ और न ही समर्थक हूँ , पर अचानक ओसामा का इतिहास अखबारों से जानने के बाद इस पर चर्चा करने का मन कर रहा है . मुझे लगता है कि ओसामा के पिता ने इस कदर शादियाँ न की होती तो दुनियां का इतिहास कुछ और होता . ओसामा उस औरत की संतान था जो उसके पिता की नौवी और उपेछित बीवी थी. ओसामा अपने पिता की पचासवीं संतान था और जब वह पैदा हुआ तब उसके बड़े भाई की उम्र 52 साल थी. 277 लोगों का परिवार एक साथ रहता था. कितना विचित्र लगता है कि यह जान कर कि ओसामा अपने सगे भाई बहनों को भी नहीं पहचानता था. परिवार कि उपेक्छा किसी भी बच्चे के मन मस्तिस्क पर गहरा असर करती हैं और उसका प्रभाव आगे चलकर भयावह रूप में सामने आता है. जैसे ओसामा आतंक का दूसरा नाम बन गया.     

गुरुवार, 5 मई 2011

 आज ब्लॉग पर मेरे लेखन की शुरुआत हो रही है.