'मन डोले रे माघ-फगुनवा'
वासंती छटा बिखरने के साथ ही छत्तीसगढ़ की फिजां में फाग और रहस का राग-रंग घुलने लगता है।
'राजा बरोबर दिखे मोर आमा, रानी सही परसा फुलवा।
मन डोले रे माघ-फगुनवा, तन डोले रे माघ-फगुनवा।'
छत्तीसगढ़ के सुविख्यात गीतकार और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया के इस लोकप्रिय गीत में कल्पित भावों के अनुसार, माघ-फागुन के महीने में बौर से लदकर आम का पेड़ राजा बन जाता है, वहीं चटख टेसुओं का श्रृंगार कर रानी का रूप धर लेता है पलास। नए कोपलों और रंग-बिरंगे फूलों का मनोहारी दृश्य और वासंती बयार में घुलकर चारों ओर बिखरती उनकी भीनी खुशबू जंगल में गजब ढा देता है। पशु-पक्षी भी मस्त हो जाते हैं। इस सुखद अनुभूति के साथ लोगों का मन रहस-फाग के लिए मचल उठता है।
कह उठता है-' अर रर रर...।'
चित्रकूट के घाट में भइया, भये संतन के भीर...,
तुलसीदास चंदन घिसैं अउ तिलक लेत रघुबीर...
तुलसीदास चंदन घिसैं अउ तिलक लेत रघुबीर...
दोहे की रागात्मक पूर्णता के साथ ही नगाड़ा सहित सारे वाद्य एक बार फिर झंकृत हो उठते हैं। यह फाग गायन शुरू करने के पूर्व गले के सुर और साजों की आवाज को साधने का उपक्रम जैसा है।
दोहे के बाद टोली यह शब्द रागती है - गंगासागर में...
अब शुरू होता है फाग गीत-
वृंदावन में श्याम खेलै होरी हो, जिहां बाजे नगाड़ा दस जोड़ी।
मुख्य गायक गीत की कड़ी उठाता है और टोली के अन्य सभी सदस्य इसे दोहराते हैं। गीत धीमी गति से प्रारंभ होता है। उसका मुखड़ा दोहराने के बाद पुनः प्रथम पंक्ति को उठाते ही नगाड़ा और उसके सहवाद्य द्रुत गति से बजते हुए संगीत का ऐसा जादू बिखेरते हैं कि श्रोताओं के कदम स्वयमेव ही थिरकने लगते हैं। गुलाल की बौछार होने लगती है और सारे लोग रंग-बिरंगे गुलाल से पुत जाते हैं। एक के बाद एक कई गीत गाए जाते हैं और अंत होते-होते फाग की मस्ती चरम पर होती है।
फाग गायन की शुरुआत गणेश वंदना से होती है। बाद में गाए जाने वाले अधिकांश गीत कृष्ण-राधा पर केंद्रित होते हैं। नंद बाबा, यशोदा मैया, गोप-गोपियां, बृज, गोकुल, मधुबन, गाय, दूध, दही, वंशी आदि विषयों पर मधुर लोक गीत पारंपरिक रूप से गाए जाते हैं। अन्य देवी-देवताओं, लोक कथाओं, संस्कृति और लोक जीवन से जुड़े विषयों पर भी फाग गीतों की रचना होती है।
फाग गीतों में देवर-भौजी, समधिन-समधन, सइयां-बहुरिया जैसे सामाजिक रिश्तों के बीच की मधुरता को प्रमुखता से स्थान मिलता है।
चढ़गे मझनिया के घाम रे आमा तरी डोला ल उतार दे- जैसे यौवन की लहरों में लहराते और मीठी छेड़छाड़ भरे गीत युवा टोलियों में मस्ती भर देते हैं। इसमें संदेश भी छुपा होता है। जैसे-
दगा दे गई जवानी...
अब का होत पछताए रे.. दगा दे गई जवानी।
फाग गीत प्रमुखतः सवाल-जवाब शैली में होते हैं। एक अंतरा में सवाल होते हैं, दूसरे अंतरे में जवाब। जैसे-
कौने नगर के गोपे-गुवालीन, कौने नगर दही बेचे...।
इसका जवाब होता है-
गोकुल नगर के गोपे गुवालीन मथुरा नगर दही बेचे...।
फिल्मी गीत भी खूब गाए जाते हैं। अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया उनके पिता हरिवंश राय बच्चन का गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' भी युवाओं में खूब गाया जाता है।
इन दिनों लोकगायक दुकालू राम यादव आदि कलाकारों के नए-नए फाग गीत खूब पसंद किए जा रहे हैं, लेकिन पुराने फाग गीत और पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाए जा रहे फाग गीतों का जादू अब भी सिर चढ़कर बोलता है। फागुन के महीने को लेकर छत्तीसगढ़ी में इतने सुंदर गीत रचे गए हैं कि ये गीत कभी भी कानों में पड़ जाए तो ऐसा लगता है कि फागुन आ गया।
एक ओर जहां फाग के साथ नगाड़ों की गड़गड़ाहट फिजां में गूंजती रहती है, वहीं गली-सड़कों पर रहस (रास नृत्य) की मनमोहक छटा बिखरी होती है।
दर्जनभर से अधिक सदस्यों वाली रहस टोली बच्चों की मासूमियत, युवाओं के जोश और बुजुर्गों के अनुभव से भरी होती है। किसी एक राग और एक धुन पर तीनों ही अवस्था के लोग एक नहीं, बल्कि हजारों टोलियों में एक-जैसा नृत्य करें और एक-जैसी आनंद की अनुभूति करें, ऐसा संयोग दुर्लभ है, जो छत्तीसगढ़ के इस रहस नृत्य में देखने को मिलता है।
मांदर की थाप और मजीरों की खनक के साथ ही रहस में छोटे-छोटे डंडों के टकराने की आवाज मधुरता से घुली होती है। यही इसकी प्रमुख विशेषता है। रहस को डंडा नृत्य भी इसीलिए कहा जाता है।
हाथों में छोटे-छोटे डंडे लेकर, छोटे-छोटे बच्चे कृष्ण-राधा,ग्वाल-बाल और गोपियों का रूप धरकर नृत्य करते चलते हैं। वहीं युवा भी स्त्री या पुरुष वेशभूषा में परिहास-बोधक श्रृंगार कर कदम थिरकाते चलते हैं। चौक-चौक पर आवृत्त बनाकर रहस नृत्य की आकर्षक प्रस्तुति देते हैं और लोगों से खूब इनाम बटोरते हैं। वरिष्ठ कलाकार बीच में गायन-वादन करते चलते हैं।
रहस गीतों में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं, राधा और गोप-गोपियों के संग रासनृत्य व होरी खेलने के प्रसंगों का आंचलिक बोली में सरस और भावपूर्ण वर्णन होता है।
रहस नृत्य के अलावा होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा एक अन्य शैली में भी डंडा नृत्य किया जाता है, जिसे हुंकारू डंडा नृत्य के नाम से जाना जाता है। यह ग्रामीण छत्तीसगढ़ का अत्यंत विशिष्ट लोकनृत्य है। यह नृत्य बिना वाद्य और गीत-संगीत के ही अत्यंत ही मनमोहक ढंग से किया जाता है। दर्जनभर से अधिक के समूह में किसान गोल घेरे में घूमते रहते हैं। कोई एक सदस्य कंठ से एक खास तरह की आवाज ऊ-हू-ऊ-हू (हुंकारू) निकालता रहता है, हुंकारू के साथ ही आवृत्त में खड़े नर्तक एक दूसरे को तेजी से क्रास करते हुए डंडे टकराते जाते हैं। अब इस नृत्य का चलन कम हो चला है। कहीं-कहीं पुरानी पीढ़ी के लोग ही यह नृत्य करते हैं।
टेसू के रंग :
होली जैसे-जैसे नजदीक आती जाती है, माहौल रहस और फागमय होते जाता है। इसके साथ ही रंग-गुलाल और पिचकारी का दौर भी शुरू हो जाता है। होलिका दहन के दूसरे दिन जमकर होरी खेली जाती है। बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष सभी होरी के रंग में रंग जाते हैं। रंग होता है टेसुओं (पलास के फूल) का। जंगल में अपने चटख रंग से आग सा दहकते प्रतीत होते पलास के पेड़ टेसुओं से लदे होते हैं। टेसुओं को पानी में उबाल कर रंग बनाया जाता है और पिचकारियों में भर-भरकर उड़ेला जाता है। वहीं सूखे टेसुओं को पीस कर गुलाल बनाया जाता है। प्राकृतिक गुणों से भरपूर इस रंग-गुलाल से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि इससे सराबोर होने का आनंद ही कुछ और होता है। हालांकि यह आनंद अब वनांचल तक ही सिमटता जा रहा है। शहरी और कस्बाई इलाकों सहित मैदानी क्षेत्र में जहां वनों का विनाश हो चुका है या पलास के पेड़ नहीं हैं, वहां बाजारू रंगों का प्रयोग होता है। कालिख, आइल, पेंट जैसे खतरनाक रासायनिक पदार्थों और रंगों के बढ़ते प्रयोग से लोग होरी खेलने से परहेज करने लगे हैं।
गांव हो या शहर नशा तो जैसे होली का अनिवार्य तत्व बन गया है। भंग या महुआ रस के रूप में नशा पहले भी हुआ करता था, लेकिन इसकी भी एक मर्यादा थी। अब तो गांव-गांव में शराब के नाले बह रहे हैं। शराब की सुलभता और नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण होली का त्योहार हुड़दंगियों का त्योहार बनता जा रहा है। होली के दिन इस कदर लड़ाई-झगड़े, मारपीट, छेड़छाड़ और हत्या जैसे संगीन जुर्म होने लगे हैं कि होली का असली मजा काफूर हो चला है। नशा नहीं करने वाले या शांति प्रिय लोग तथा महिलाएं होली खेलने के बजाय हुड़दंगियों से बचने के उपाय करते रहते हैं।
प्रकृति की ओर :
राजधानी रायपुर में बीते कुछ वर्षों से कुछ संगठनों द्वारा फूलों से होली खेलने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। फिर से प्रकृति की ओर लौटने और उसके रंगों से सराबोर होने की ललक शहरी जनमानस में दिख रही है। हालांकि छत्तीसगढ़ का विशाल ग्राम्यांचल होली ही नहीं, अपना हर त्योहार प्रकृति से जुड़कर ही सोल्लास मनाता है।
तो नहीं मनाते होली :
गांव में महामारी फैली हो या बच्चों में छोटी माता (चिकनपॉक्स) का प्रकोप हो या मवेशियों में खुरहा-चपका या किसी अन्य बीमारी का प्रकोप हो तो गांव में होली नहीं मनाई जाती। न तो होली जलाई जाती है और न ही ढोल-नगाड़े बजते हैं, रंग-गुलाल का भी प्रयोग नहीं होता। किसी प्राकृतिक आपदा या दैवीय प्रकोप की स्थिति में ग्रामीणों की आपसी सहमति से गांव में पहले ही यह मुनादी कर दी जाती है कि इस बार होली का त्योहार नहीं मनाया जाएगा।
- ललित मानिकपुरी
अड़बड़ सुघ्घर लिखत हावव भईया, नेट में अइसनेहे रचना मन के दुकाल हावय, आपके ब्लॉग ला पढ़ के मन अनंदित होगे. सरलग पोस्ट करत रहव.
जवाब देंहटाएंlikhne ka prayas kar raha hun saheb. utsahvardhan ke liye aapka bahut sukriya.
जवाब देंहटाएं