सतनाम के हो बाबा, पूजा करौं सतनाम के ।
सतकाम के हो बाबा, पूजा करौं जैतखाम के ॥
धधक तीन...धधक तिन...मांदर की थाप, लय में लय मिलाती झांझ की झनकार... बाबा की जयकार... और शुरू होता है 'पंथी'। सत्यनाम का सुमिरन करते हुए गोल घेरे में खड़े पंथी दल के नर्तक संत गुरु घासीदास बाबा की स्तुति में यह गीत शुरू करते हैं। मुख्य नर्तक पहले गीत की कड़ी उठाता है, जिसे अन्य नर्तक दोहराते हुए नाचना शुरू करते हैं। मुखड़ा दोहराने के बाद अंतरा गाया जाता है।
सादा तोर झंडा बाबा, सादा तोर चौरा हे
सादा तोर चौरा हे ...................
प्रारंभ में गीत, संगीत और नृत्य की गति धीमी होती है। अंतरा के उपरांत पुनः मुखड़े पर आते ही गति बढ़ जाती है। जैसे-जैसे गीत आगे बढ़ता है और मृदंग की लय तेज होती जाती है, वैसे-वैसे पंथी नर्तकों की आंगिक चेष्टाएं तेज होती जाती हैं।
गीत के बोल और अंतरा के साथ ही नृत्य की मुद्राएं बदलती जाती हैं, बीच-बीच में मानव मीनारों की रचना और हैरतअंगेज कारनामें भी दिखाए जाते हैं। इस दौरान भी गीत, संगीत व नृत्य का प्रवाह बना रहता है और पंथी का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है।
प्रमुख नर्तक बीच-बीच में अहा, अहा... शब्द का उच्चारण करते हुए नर्तकों का उत्साहवर्धन करता है। गुरु घासीदास बाबा का जयकारा भी लगाया जाता है। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रमुख नर्तक सीटी भी बजाता है, जो नृत्य की मुद्राएं बदलने का संकेत होता है।
नृत्य का समापन तीव्र गति के साथ चरम पर होता है। वस्तुतः यह अत्यंत द्रुत गति का नृत्य है। इसमें गति और लय का अदभुत समन्वय होता है। इस नृत्य की तेजी, नर्तकों की तेजी से बदलती मुद्राएं एवं देहगति दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती है।
पंथी नर्तकों की वेशभूषा सादी होती है। सादा बनियान, घुटने तक सादा धोती, गले में हार, सिर पर सादा फेटा और माथे पर सादा तिलक। अधिक वस्त्र या श्रृंगार इस नृर्तकों की सुविधा की दृष्टि से अनुकूल भी नहीं।
यह नृत्य इतना अधिक श्रमसाध्य है कि, घंटों नाचते-नाचते नर्तक का शरीर उष्मा से भर जाता है, पसीना से तरबतर हो जाता है। समय के साथ वेशभूषा में कुछ परिवर्तन आया है। अब रंगीन कमीज और जैकेट भी पहना जा रहा है। मांदर एवं झांझ पंथी के प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं। अब बेंजो, ढोलक, तबला और केसियो का भी प्रयोग होने लगा है।
पंथी छत्तीसगढ़ का एक ऐसा लोकनृत्य है, जिसमें आध्यात्मिकता की गहराई है, तो भक्त की भावनाओं का ज्वार भी है। इसमें जितनी सादगी है, उतना ही आकर्षण और मनोरंजन भी है।
इस नृत्य में उतना ही अधिक श्रम भी लगता है। ऐसा संगम अन्य किसी लोकनृत्य में दुर्लभ है। पंथी की यही विशेषताएं इसे अनूठा बनाती हैं।
वास्तव में 'पंथी', धर्म, जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव, आडंबरों और मानवता के विरोधी विचारों का संपोषण करने वाली व्यवस्था पर, हजारों वर्षों से शोषित और दलितों का करारा, किन्तु सुरमय और सुमधुर प्रहार है।
सुहानी मोला लागे हो घासीदास के बोली।
सुहानी मोला लागे हो बाबा जी के बोली॥
जाति पाति हे सब बरजाई,
छुआछूत हे बड़ दुखदाई।
एकता में हावै भलाई हो बाबा जी के बोली।
सुहानी मोला लागे हो घासीदास के बोली॥
'पंथी' छत्तीसगढ़ की सतनामी जाति के लोगों का पारपंरिक नृत्य है, जो सतनाम पंथ के पथिक हैं। इस पंथ की स्थापना छत्तीसगढ़ के महान संत गुरु घासीदास ने की थी। उनका जन्म सन् १७५६ में छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के गिरौद ग्राम में हुआ था और उनकी मृत्यु १८५० में भंडार ग्राम में हुई। ये दोनों ग्राम गिरौदपुरी और भंडारपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए।
यहां सतनाम पंथ के धर्मगुरुओं की वंशगद्दी परंपरा प्रचलित हैं, जहां प्रतिवर्ष गुरुदर्शन मेले में लाखों की संख्या में बाबा के अनुयायी पहुंचते हैं। तीन दिनों के मेले में यहां पंथी की निराली छटा बिखरती है। पंथी के कई नर्तक दल अपनी प्रस्तुति से हजारों-लाखों लोगों का मन मोह लेते हैं।
गिरौद जाबो हो, भंडार जाबो हो, अपन गुरु के दर्शन पाबो हो।
नरियर फूल चढ़ाबो हो, मन के मनौती मनाबो हो।
संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरूद्ध 'मनखे-मनखे एक समान' का संदेश दिया। दलित-शोषितों को सतनाम पंथ का मार्ग दिखाया। उन्होंने सत्य, अहिंसा, सदाचार, सदकर्म, प्रेम और भाईचारा का संदेश दिया। उनका जीवन-दर्शन और आदर्श मानव समाज की विशेष धरोहर है।
सतनाम के ध्वजा लहरा दिए बाबा तैं,
गांव-गांव में होगे अंजोर...
छाता पहाड़ म धूनी रमाए बाबा,
सत रूप आगी म तन ल तपाए बाबा।
गांव-गांव म होगे अंजोर...
संत गुरु घासीदास ने शोषित-पीड़ित समाज को सतनाम के जहाज पर बिठाकर दुख, दारिद्र और अज्ञानता के भंवर से उबारने का स्तुत्य कार्य किया। इसका सुखद स्मरण करते हुए बाबा के अनुयायी अपनी हृदय की वेदना को, अपनी सदकामना को और अपने परम प्रिय आराध्य से मिलन की अभिलाषा को पंथी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं।
तैं उबार लेबे बाबा, छोटे-छोटे लइका हन उबार लेबे।
तैं उबार लेबे बाबा, गिरे पड़े मनखे हन उबार लेबे॥
बाबा की जयंती १८ दिसंबर से माहभर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे छत्तीसगढ़ में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ धूमधाम से मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गांव-गांव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है। इस दौरान सतनाम के प्रतीक स्तंभ 'जैतखाम' पर पालो चढ़ाया जाता है। यानी नया श्वेत ध्वजा फहराया जाता है। इस दौरान 'जैतखाम' के आसपास बड़े उत्साह के साथ 'पंथी' नृत्य किया जाता है। इसमें गुरु घासीदास बाबा के वाणी-वचनों, उनके जीवन चरित्र और उनके प्रति अपनी भावनाओं को विशेष गीत-संगीत और नृत्य के साथ पारंपरिक ढंग से गाया जाता है।
तोर चंदन खड़उ के भजत हौं सतनाम,
आरती ल लेले अपन जान के।
आरती ल लेले अपन जान के बाबा,
आरती ल लेले गरीब जान के॥
गुरु घासीदास के पंथ से ही 'पंथी' नृत्य का नामकरण हुआ है। 'पंथी' गीत आम छत्तीसगढ़ी बोली में होते हैं, जिनके शब्दों और संदेशों को साधारण से साधारण व्यक्ति भी सरलता से समझ सकता है। पंथी नृत्य जितना मनमोहक एवं मनोरंजक है, इसमें उतनी ही आध्यात्मिकता की गहराई और भक्ति का ज्वार भी है। इसमें रमें नर्तक-वादक और गायक ही नहीं उन्हें देख-सुन रहा जन समूह भी मंत्रमुग्ध हो जाता है।
पंथी के सुर-संगीत और शब्दों की तरंगें रोम-रोम को झंकृत कर देती हैं। उन तरंगों पर सवार होकर जीव, पारलौकिक संसार में गोता लगाते हुए परम सत्य से साक्षात्कार को आतुर हो जाता है। बाबा के कई अनुयायी महिला-पुरुष तो अपना सुध-बुध खोकर समाधि की सी स्थिति में पहुंच जाते हैं और पंथी की धुन पर झूमने लगते हैं।
छत्तीसगढ़ी बोली को नहीं जानने-समझने वाले देश-विदेश के लोग भी देवदास बंजारे और उनके साथियों का पंथी देख खो सा जाते थे। श्री बंजारे अब नहीं रहे, लेकिन यह उनकी और उनके साथियों की साधना, परिश्रम और लगन का परिणाम है कि 'पंथी' आज देश-विदेश में प्रतिष्ठित है।
छत्तीसगढ़ में तो हर सतनामी बहुल बस्ती में पंथी नर्तकों की टोलियां बन गई हैं। कई प्रतिभावान युवा इस नृत्य की साधना में जुटे हुए हैं, हालांकि देवदास बंजारे जैसी ख्याति किन्ही अन्य को अब तक नहीं मिली।
'पंथी' सतनाम पंथ की सरस काव्य धारा है, जिसमें नृत्य और संगीत भी है। यह भक्ति के भावों का अविरल प्रवाह है। संत गुरु घासीदास बाबा की आराधन का साधन है। सतनाम पंथ के पथिकों का सहारा है।
- ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छ.ग.)
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