गुरुवार, 2 जून 2011

छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा...


छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा...
         
यह पंक्तियां पूस पूर्णिमा के दिन द्वार-द्वार, गली-गली, और गांव-गांव में किसी जन नारे की तरह गूंजती हैं, जब समूचे छत्तीसगढ़ में छेरछेरा का त्योहार अन्न दान के उत्सव के रूप में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। 

युवा-बालवृंदों की दस्तक इन पंक्तियों का उद्‌घोष के साथ द्वार-द्वार पर होती है और हर द्वार पर मौजूद बड़े-बुजुर्ग उनकी टोकरी या थैलों में मुट्ठी-मुठ्ठीभर धान डालते जाते हैं।

 बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। वे एक से दूसरे द्वार दौड़-दौड़कर जाते हैं। वहीं युवा भी जोड़ियों या समूहों में पूरी बस्ती छान मारते हैं।

 रामायण-कीर्तन मंडलियां कीर्तन करते हुए आती हैं, तो पंथी आदि लोकनृत्य करने वाले बाजे-गाजे के साथ लोकनृत्यों की छटा बिखेरते चलते हैं। 

नाचा-नौटंकी वाले नजरिया परी (नचनिया) के साथ नाच-गान करते हुए धान बटोरते हैं, तो लीला मंडलियां भी लीला मंचन के दौरान प्रस्तुत धार्मिक झांकियों में ग्रामीणों द्वारा अर्पण किए गए धान को भी इसी दिन एकत्र करती है।

घर-घर से धान मांगने की इस परंपरा को 'छेरछेरा मांगना' या 'छेरछेरा कूटना' कहा जाता है।

धान का दान देने और लेने का यह त्योहार किसी धार्मिक या पौराणिक मान्यता अथवा इतिहास के किसी घटना या पात्र विशेष की भूमिका पर आधारित नहीं है, बल्कि यह विशुद्ध रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित एक प्रमुख त्योहार है।

 इसमें अन्न दान की परंपरा का निर्वहन एक लोक-उत्सव के रूप में होता है। इस दिन लोग जी भर कर मॉंगते हैं और दिल खोल देते हैं। हर द्वार पर मांगने वालों का तांता लगा रहता है और किसी को खाली नहीं लौटाया जाता।

 इस दिन न मांगने में संकोच किया जाता है और न देने में। इसके मूल में सामाजिक समरसता, भाईचारा, समानता और सहअस्तित्व की भावना है। इस दिन अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, जाति-पाति का कोई भेद नहीं होता। कर्म, दान और धर्म का पालन करते हुए सर्वमंगल और सुख-सम्मृद्धि की कामना का सहज प्रकटीकरण छेरछेरा पर्व रूप में होता है।

छेरछेरा का त्योहार वस्तुतः ग्रामीण अंचल का त्योहार है। यह पूस के महीने में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। जब खेतिहर किसान-मजदूर परिवारों का वर्षभर का कठिन परिश्रम अन्न के रूप में साकार होकर उनकी कोठियों में भर जाता है। फसल की कटाई-मिंजाई का कार्य पूर्ण हो चुका होता है। 

खेतिहर परिवारों के लिए यह खेत और खलिहानों के परिश्रमपूर्ण कार्य से अवकाश का क्षण होता है। घर में फसल के रूप में श्री लक्ष्मी का वास और खेती के कार्य से अवकाश का यह समय आनंद से परिपूर्ण होता है। यह भ्रमण, मनोरंजन के साथ पारंपरिक मेले-मंड़ई, तीर्थाटन और धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भरपूर आनंद लेने का समय होता है।


 फसल प्राप्ति की प्रसन्नता में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए पूजा-पाठ के साथ किसान छेरछेरा के पर्व पर समूचे गांव को धान का दान इसलिए करते हैं, ताकि अवकाश के इस क्षण को आनंदपूर्वक व्यतीत करने के लिए किसी की जेब खाली न रहे। विशेषकर बच्चों और युवाओं को दिल खोलकर धान दिया जाता है। 

एक तहर से अच्छी फसल होने की खुशी में यह उन्हें ईनाम स्वरूप दिया जाता है। वहीं बच्चे और युवक भी बड़े अधिकारपूर्वक घर-घर जाकर धान मांगते हैं। 

छेरछेरा त्योहार के इस सूक्ति वाक्य 'छेरछेरा... माई कोठी के धान ल हेरहेरा' में भी यही भाव छिपा हुआ है। द्वार पर आने वाले बच्चों और युवाओं का समूह इस सूक्ति वाक्य में यह कहता है कि यदि सूपा और टोकरियों में रखा धान दान देते-देते खत्म हो गया हो, तो प्रमुख भंडार (कोठी) के धान को निकालकर दीजिए। 

द्वार-द्वार घूमते हुए थैला या टोकरियां कब भर जाती हैं पता ही नहीं चलता। छेरछेरा में मिले धान को बेचकर वे अच्छी राशि प्राप्त कर लेते हैं।

गांवों में बच्चों को छेरछेरा की प्रतीक्षा रहती है। उन्हें न केवल खई-खजानी के लिए रुपए मिल जाते हैं, बल्कि उनकी अन्य छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी पैसे की व्यवस्था हो जाती है।

 गांव की रामायण, लीला, नाटक मंडलियों, अखाड़ा दल, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को भी आर्थिक उर्जा छेरछेरा के दिन ही मिलती है। छेरछेरा के बाद गांव के बच्चों और युवाओं की कितनी ही क्रिकेट टीमें तैयार हो जाती हैं। नए-नए बेट, बॉल आदि सामान मिलने से उनका उत्साह छलकने लगता है।

 छत्तीसगढ़ में अन्नदान की परंपरा के रूप में मनाया जाना वाला इस पर्व की शुरुआत कब हुई यह कहना मुश्किल है। नदी-नाले, वन और खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ के वासी गरीबी और अभावों में जरूर जीते रहे हैं, लेकिन उनके व्यवहार में देने या बांटकर खाने की भावना सहज और स्वाभाविक रूप से रची-बसी है। 

छेरछेरा का त्योहार छत्तीसगढ़वासियों की सहज दानशीलता को अभिव्यक्त करता है। द्वार पर आने वाले को कभी भी खाली हाथ नहीं लौटाया जाता। छेरछेरा पर अन्न दान की परंपरा के प्रति लोग इस कदर भावनाशील व निष्ठावान हैं कि, जिसके पास खेत नहीं होता वह भी अन्न दान करने से पीछे नहीं हटता।

 जिनकी जमीन में धान की फसल नहीं होती या उदरपोषण के लिए जो कोदो-कुटकी की उगा पाते हैं वे भी छेरछेरा के दिन अपनी उपज का दान करने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं।

छेरछेरा का त्योहार ऐसे समय पर होता है, जब देने के लिए हर घर में धान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। किसानों की कोठियां भरी होती हैं, परछी से आंॅगन और देहरी तक भी धान बोरियों, सूपों या टोकरियों में ऐसे रखे होते हैं।

 कुछ धान बेचकर लोग अपने बच्चों या युवाओं को उनके मनोरंजन या अन्य जरूरतों के लिए पैसा दे सकते हैं। घर-घर घूमकर छेरछेरा मांगकर वे जितनी मात्रा में धान एकत्र करते हैं उससे अधिक मात्रा में उन्हें अपने ही घर से सहजता से मिल सकता है, फिर ऐसी परंपरा की क्या जरूरत। 

छेरछेरा की परंपरा इस कारण भी मायने रखती है कि यहां सिर्फ अपने घर के ही नहीं वरन पूरे गांव के बच्चों को समान रूप से धान दिया जाता है। इससे गांव के सभी बच्चों और युवाओं की मंडलियों को लगभग समान रूप से रुपए प्राप्त हो जाते हैं।

 इस राशि को वे अपनी कमाई के बतौर मनमर्जी खर्च कर सकते हैं। छेरछेरा की कमाई से कोई बच्चा सप्ताहभर टिकिया-बिस्कुट खाता है तो कोई नया कुर्ता सिला लेता है या खिलौने खरीद लेता है। समय के साथ बच्चों की पसंद बदल रही है और अब बच्चे क्रिकेट का बल्ले और गेंद लेना पसंद करते हैं। छेरछेरा के बाद नए बेट-बॉल से लैस कई टीमें तैयार हो जाती हैं। 

हम स्कूल के लिए छेरछेरा मांगते थे, स्कूल के बच्चों के साथ शिक्षक भी होते थे। हमें हर घर से अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही धान मिलता था। पूरे गांव से मिले धान को बेचकर जो राशि मिलती थी उसमें से दो-दो, चार-चार रुपए बच्चों को बांट दिए जाते थे और शेष राशि गुरुजी के पास जमा कर दी जाती थी। इस राशि से गणतंत्र दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने वाले बच्चों को पुरस्कार दिए जाते थे। पुरस्कार के आकर्षण और गुरुजनों की प्रेरणा से बड़ी संख्या में बच्चे गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों में उत्साह से भाग लेते थे।

 इस त्योहार को मनाने के लिए कोई विशेष अनुष्ठान या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं पड़ती और न ही नए वस्त्र-परिधानों की अपेक्षा की जाती है। लोग जैसे हैं उसी स्थिति में ही यह त्योहार हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। 

यह जरूर है कि छेरछेरा के अवसर पर अनेक स्थानों पर मड़ई-मेला का आयोजन होता है, जिसमें लोग सज-धजकर आते हैं और खूब आनंद लेते हैं।

तुरतुरिया मेला और बिरकोनी (महासमुंद) का चंडी मेला पौष पूर्णिमा पर लगने वाले प्रमुख मेले हैं, जहां हजारों की भीड़ पहुंचती है। इन मेलों में रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है। जिसमें छत्तीसगढ़ के मजे हुए लोक कलाकारों की टीम अपनी मनभावन प्रस्तुति से दर्शकों को पूरी रात बांधे रखती हैं।

समय के साथ अन्य त्योहार की भांति छेरछेरा त्योहार के स्वरूप में भी परिवर्तन हो रहा है। टिकिया-बिस्कुट या खिलौने के लिए बच्चे अब छेरछेरा के धान के भरोसे नहीं रहते। खेती ही अब एकमात्र आय का जरिया नहीं रही, विभिन्न स्रोतों से ग्रामीणों की आमदनी भी अब बढ़ गई है। 

साधारण परिवार के बच्चों को भी इतनी तो मिल ही जाती है कि खिलौना या खेल का कोई सामान लेने के लिए उन्हें सालभर छेरछेरा त्योहार की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।  बदलते परिवेश में छेरछेरा मांगने के लिए टोकरी या थैला लेकर घर-घर जाने में युवा ही नहीं बच्चे भी संकोच करने लगे हैं। 

पहले संपन्न घरों के लोग भी अपने बच्चों को निःसंकोच इस परंपरा का भागीदार बनाते थे, लेकिन अब ऐसे परिवारों के बच्चे इस पंरपरा से दूर हो रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में तो इस त्योहार का पता भी नहीं चलता। शहरों के बहुतेरे बच्चे छेरछेरा त्योहार और इसकी परंपरा में कोई रुचि नहीं रखते। बल्कि इसमें भी संदेह है कि वे इस त्योहार की परंपरा से परिचित भी होंगे।

बावजूद इसके छेरछेरा का त्योहार छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख त्योहार है और ग्राम्यांचल में इस त्योहार पर अन्न दान की परंपरा का निर्वहन जिन सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों और जिन भावनाओं के साथ किया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। यही छत्तीसगढ़ की विशेष पहचान है।

- ललित मानिकपुरी, बिरकोनी, महासमुंद, (छ.ग.)


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