शुक्रवार, 3 जून 2011

छत्तीसगढ़ : लोक हर्ष की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति 'मड़ई-मेला' Chhattisgarh: 'Madai-Mela', a cultural expression of folk joy






चहर्र...चहर्र...करती रहचूली (लकड़ी का चार पंखुड़ियों वाला  झूला) पर झूलते मज़ा लेते युवा, चरखी झूले पर चहकते बच्चों की टोलियां। कहीं बासुरी की तान व डमरू की डम-डम पर बंदरिया का नाच या सांप-नेवले की लड़ाई दिखाता मदारी। तो कहीं मयूर पंख और कौड़ी पहन कर लाठियां लहराते हुए पारंपरिक वेषभूषा में थिरकते व दोहा पारते राउतों की टोली और उनके दोहों के साथ रह रहकर गूंजता गड़वा बाजा।
 
छत्तीसगढ़ के मड़ई-मेले का नाम लेते ही जेहन में कुछ ऐसी ही तस्वीरें उभरती चली जाती हैं।

मड़ई-मेले में प्रवेश कहीं से भी करें मड़ई का माहौल मन को मोह लेता है। एक ओर रसभरे गन्नों की कतार, तो दूसरी ओर हरी-हरी सब्जी-तरकारियों की बहार। दूर से आती है मिठाइयों की महक। चांदी सा चटख बताशे, सुनहरे ओखरे। रसगुल्ले, गुलाबजामुन, बालूसाय, बूंदी, सेव, पेड़ा और बर्फी से भरी परातें, तो दूसरी ओर खौलती कड़ाही से छन-छन कर निकलती गरमा-गरम जलेबियां, आहा...आलूचाप, समोसे और गुलगुले भी। यहां खजूर, पेठे, सोनपापड़ी तो वहां चटपटी चाट और भेलपुरी।

नजर जिधर पड़े उधर, नजारा गुदगुदाने वाला होता है। इधर साड़ी-कपड़े और मनिहारी वालों की कतार, तो उधर पान वालों की दुकान। होंठ लाल कर दर्पण देख बार-बार जुल्फें और मूछें सवांर, पान ठेलों से मनिहारी लाइन पर नजरें टिकाए छोकरे, तो दूसरी ओर कलाइयों में चूड़ियां पहनती हुई तिरछी नजरों से छोकरों की टोह लेती छोकरियां।

 एक ओर सीताराम महाप्रसाद, सीताराम...कहते हुए हाथ जोड़कर अपने मीत-मितानों  से मिलाप करते लोग। तो चूड़ियों की खनक के साथ उनके धूलधूसरित पांवों को छू-छूकर माथे से लगाती उनकी लुगाइयां। 

भैया जरा बच के, यहां भविष्य बताता तोता पंडित और गधा महाराज भी होता है। फटफटी व मोटरकारों की रफ्तार से सिर चकराने वाला मौत का कुआं, युवा दिलों की धड़कन मुन्नी का नाच या लैला का डिस्को, बड़े मेलों की शान हुआ करते हैं। यहां मीनाबाजार भी होता है, आकाश झूले पर बैठो और एक नजर में पूरा मेला का विहंगम नजारा देख लो।

मड़ई-मेले छत्तीसगढ़ के ग्राम्यजीवन का ऐसा सांस्कृतिक पर्व, उत्सव है, जिसमें लोक संस्कृति की इंद्रधनुषी छटा बिखरती है और जिसमें ग्राम्य जीवन की अनोखी परंपराओं का निर्वहन शान से होता है। 

 वास्तव में लोकहर्ष की वार्षिक अभिव्यक्ति हैं मड़ई-मेले। खरीफ फसल की कटाई, मिंजाई के बाद जब घर-घर में धन-धान्य के रूप में लक्ष्मी का वास हो जाता है और खेती का एक  सत्र पूर्ण हो जाता है, तब अवकाश के क्षणों में कार्तिक पूर्णिमा से लेकर फाल्गुन माह तक मड़ई का आयोजन गांव-गांव में होता है।
 
गांव में जिस दिन मड़ई का आयोजन होता है, उस दिन खेत-खारों से लेकर बस्ती में स्थापित सभी देवी-देवताओं की विशेष-पूजा होती है। तोरण पताकों से सजा बांस का विशाल स्तंभ निकाल जाता है, जिसे 'मड़ई' कहते हैं। यह विशाल स्तंभ मड़ई आयोजन का प्रतीक होता है।

  'मड़ई' स्तंभ पारंपरिक रूप से किसी निश्चित स्थान से पूजा-पाठ के बाद, बाजे-गाजे के साथ निकाला जाता है और मड़ई स्थल पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है। 

राउत जाति के लोग पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य करते चलते हैं। कर्म, भक्ति और प्रेम के दोहे गाते राउतों की टोली मड़ई में पारपंरिक राउत नृत्य की आकर्षक छटा बिखेरते हैं। 

वहीं गड़वा बाजा की गूंज पूरे मड़ई स्थल पर होती है। दोहों की लड़ियों के बीच मोहरी की ऊंची तान पर ढोल, निशान, डफड़ा, टिमटिमी, झूमका आदि साजों का समवेत स्वर रह-रहकर मड़ई स्थल पर गूंजते रहता है। 




रात में छत्तीसगढ़ी नाचा या आकेस्ट्रा का रंगारंग कार्यक्रम होता है। इसमें लोक कलाकार पूरी रात लोक गीत-संगीत और नृत्य के साथ गम्मत (प्रहसन) से सैकड़ों लोगों का भरपूर मनोरंजन करते हैं।
 
आदिवासी क्षेत्रों में मड़ई का अंदाज और भी निराला होता है। वर्षों पुरानी मान्यताओं पर आधारित रोचक रस्मों रिवाज का निर्वहन वनवासी बड़ी शिद्दत से करते हैं। मड़ई-मेला गायन, वादन और नर्तन में आदिवासी पुरुषों की मुख्य भूमिका होती है। 





  आस्था और आयोजन के  ध्वज युक्त प्रतीक स्तंभों के साथ मड़ई की शोभायात्रा बाजे-गाजे के साथ धूमधाम से निकाली जाती है। प्रतीक स्तंभों को थामकर आदिवासी पुरुष कतारबद्ध होकर चलते हैं। विभिन्न स्थलों पर स्थापित देवताओं को मड़ई-मेला का आमंत्रत देते हैं। मड़ई में आदिवासियों की अनूठी संस्कृति और सभ्यता की शानदार झलक देखने को मिलती है।

मैदानी क्षेत्रों में जहां मड़ई के रस्मों-रिवाज में यादव (राउत), निषाद (केंवट), गोंड़ बैगा सुविधा के अनुसार मड़ई का आयोजन हर गांव में अलग-अलग दिन होता है। ताकि आसपास के गांवों के लोग उसमें शामिल हो सकें। 

अमूमन मड़ई का आयोजन साप्ताहिक बाजार के दिन होता है। जिन गांवों में साप्ताहिक बाजार नहीं होते, उन गांवों में कोई भी ऐसा दिन मड़ई के लिए तय किया जाता है, जिस दिन आसपास किसी गांव में साप्ताहिक बाजार या मड़ई का आयोजन न हो। 

मड़ई बाजार का ही स्वरूप है, लेकिन यह सामान्य बाजार से पृथक इसलिए होता है कि इसमें उत्सवी माहौल होता है। गांवों और क्षेत्र के देवी-देवताओं से लेकर पंचायत प्रमुखों, ग्राम पटेलों, गणमान्य नागरिकों, जनप्रतिनिधियों व आम जनता को पूरे गांव की ओर से आमंत्रित किया जाता है। सगे-संबंधियों, मीत-मितानों, नाते-रिश्तेदारों को न्यौता जरूर दिया जाता है।  

 
मड़ई एक ऐसा संगम होता है, जिसमें कला, संस्कृति, व्यापार, मनोरंजन सहित सामाजिक व पारिवारिक  समागम होता है। घर-घर में मेहमान आते हैं, नाते-रिश्तेदारों  से सार्थक मेल-मिलाप भी हो जाता है। 

सुख-दुख की बातें हो जाती हैं। सबका हाल-चाल मालूम हो जाता है। पारिवारिक योजनाओं के संबंध में विचार-विमर्श हो जाता है। युवक-युवतियों के ब्याह संबंधी चर्चा होती है। सभी को इतला हो जाती है कि इस साल ब्याह की तैयारी है और सब योग्य वर-वधु की तलाश में जुट जाते हैं।

 
 मड़ई-मेले में लोग सपरिवार या दोस्त-यारों के साथ जाते हैं। मनोरंजन के अलावा अपनी दैनिक जरूरतों के सामान खरीदते हैं। झाड़ू, सूपा, टोकरी से लेकर कृषि औजार, कपड़े, बर्तन, आदि जरूरत की प्रायः सभी चीजें ग्रामीणों को मड़ई-मेले में मिल जाती हैं। महिलाएं सौंदर्य प्रशाधन खरीदती हैं, वहीं बच्चे खिलौने। मड़ई से गांव-कस्बे के छोटे-छोटे व्यवसायियों को रोजगार धंधे का अच्छा अवसर मिलता है। व्यवसायी मड़ई-मेलों में घूम-घूम कर अपना सामान बेचते हैं।

मेले का लघु रूप है मड़ई। मड़ई ग्राम्य स्तर का आयोजन है, जबकि मेले किसी पर्व तिथि विशेष पर उन स्थानों पर होते हैं, जिन स्थानों का धार्मिक, पौराणिक, या सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व होता है।

  छत्तीसगढ़ धार्मिक तीर्थों से परिपूर्ण प्रदेश है। यह धार्मिक व पौराणिक कथाओं से जुड़ा हुआ है। युगों-युगों में घटित उन महान घटनाओं का साक्षी रहा है, जिसका स्मरण लोग बड़ी आस्था और गर्व से करते हैं। 

छत्तीसगढ़ यानी प्राचीन कोसल प्रदेश भगवान राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि है। उनका नाम भी इस पावन भूमि के कारण कौशल्या पड़ा। 

यह माना जाता है कि भगवान राम के वनवास काल के कई वर्ष छत्तीसगढ़ में बीते। यहां का शिवरीनारायण धाम उस सबरी के नाम से प्रसिद्ध है, जिसने भगवान राम को मीठे बेर खिलाए थे। रामभक्त माता सबरी के नाम से यहां भगवान का एक नाम सवरीनारायण (शिवरीनारायण) पड़ा। यहां सवरीनारायण का प्राचीन मंदिर है, जहां दर्शन-पूजन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। यहां प्रतिवर्ष पंद्रह दिनों का मेला होता है। 

रामगढ़ पहाड़ पर राम के पदचिन्ह होने की मान्यता है, यहां भी मेला लगता है। महाभारत काल में हुए पांडवों ने भी अपना वनवास काल का कुछ समय छत्तीसगढ़ में बिताया। महासमुंद जिले के खल्लारी डोंगरी व उसके आसपास पांडवों के निवास और उनसे जुड़ी रोचक घटनाओं का जिक्र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता रहा है। कहा जाता है हिडिम्बा राक्षसी से भीम का ब्याह खल्लारी में ही हुआ। यहां खल्लारी देवी का प्रसिद्ध मंदिर है, जहां तीन दिनों का मेला होता है। छत्तीसगढ़ में करीब  २५ स्थानों में आयोजित होने वाले  मेले काफी प्रसिद्ध हैं। 

तीन नदियों के संगम पर बसा राजिम तो छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। जहां प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक मेला होता है।  इस मेले को हिन्दू धर्माचार्यों ने पांचवें महाकुंभ का दर्जा दिया है। यह देश का ऐसा कुंभ मेला है, जो हर वर्ष आयोजित होता है। 

प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रहे सिरपुर में महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाला मेला प्रसिद्ध है। बस्तर का जात्रा, दशहरा मेला तो विश्व प्रसिद्ध है। 

संत गुरुघासी दास की जन्मस्थली गिरौदपुरी और कर्मस्थली भंडारपुरी में विशाल गुरुदर्शन मेले होते हैं।  वहीं दामाखेड़ा के संत समागम मेले में दुनियाभर के कबीरपंथी खींचे चले आते हैें। कुदुरमाल (चांपा) में भी कबीरपंथियों का मेला भराता है।



 महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्‌य स्थल चम्पारण्य का मेला,  चित्रोत्पला गंगा महानदी के उद्‌गम स्थान श्रृंगी ऋषि पर्वत सिहावा का मेला,  सिहावा के ही पास देउरपारा बुनेसर का कणेश्वर मेला, पाताल फोड़ निकली सेतगंगा बम्हनी (महासमुंद) का मेला, बिरकोनी (महासमुंद) का पौष पूर्णिमा चंडी मेला, नारायणपुर का  मड़ई-मेला, कांकेर का मेला, डोंगरगढ़ (राजनांदगांव) का मां बमलेश्वरी मेला, कनकी (बिलासपुर) का शंकर महादेव मेला, रतनपुर का मेला, दंतेवाड़ा का दंतेश्वरी मेला, रायपुरा महादेवघाट का मेला, कवर्धा का भोरमदेव मेला, खपरीभट्ठी (तिल्दा) मां बंजारीधाम का मेला, नरसिंह मेला, रूद्री (धमतरी)का डोंगापथरा मेला,  धमतरी का बिलाईमाता मेला, कसडोल का तुरतुरिया मेला, ओरछा (बस्तर) का आदिवासी मेला और  झलमला बालोद का मेला बड़े प्रसिद्ध मेले हैं।

  मड़ई-मेला सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक सपन्नता को बढ़ाते हैं। समाज में एकता और भाईचारा की भावना को और पुष्ट करते हैं। मड़ई-मेला के आयोजन से ग्राम्यांचल का माहौल उल्लासमय हो जाता है। 

छत्तीसगढ़ में मड़ई-मेलों की आकर्षण और बढ़ गया है, बल्कि मड़ई-मेले पहले से कहीं अधिक व्यापक रूप में आयोजित किए जा रहे हैं। प्रमुख मेलों के लिए  सरकार की ओर से भरपूर आर्थिक सहायता भी मिल रही है। यह सहायता लाखों में होती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भव्य रूप से किया जाने लगा है। अंचल के लोक कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन के लिए अच्छा मंच मिल रहा है। वहीं लोगों को स्थानीय और अन्य प्रदेशों के विख्यात कलाकारों की कला का दर्शन भी सहज रूप में हो जाता है।
 
  समय के साथ मड़ई-मेलों में सामाजिक बुराइयों का भी साया पड़ता जा रहा है। शराब, जुआ का अवैध कारोबार हावी हो रहा है, बल्कि कई गांवों में इन अवैध कारोबार से जुड़े लोग ही मड़ई का आयोजन करते हैं। बैगा-गुनिया और पंचायत के कुछ प्रमुखों के लिए मांस-मदिरा और रात में नाच-गान की व्यवस्था के लिए कुछ हजार रुपए दे देते हैं। फिर खुलेआम शराब बेचकर और जुआ खेलाकर भारी कमाई करते हैं। इसका कुछ हिस्सा मिलने से थाने वाले भी खुश हो जाते हैं। नेता लोगों को भाषण पिलाने के लिए बिना मशक्कत के लोगों की भीड़ सुलभ हो जाती है। 

शराब और जुआ का प्रभाव पूरे मड़ई -मेले पर पड़ने लगा है। असामाजिक तत्व हावी हो जाते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ गई है। मड़ई-मेले का माहौल इस कदर खराब हो गया है कि लोग परिवार की महिलाओं को ले जाना पसंद नहीं करते। मड़ई-मेलों में पुलिस बल भी तैनात रहता है, लेकिन नेता जी के जाने के बाद उनका ध्यान कमाई में ज्यादा रहता है। पाकिटमार और उठाईगीर सक्रिय हो जाते हैं। महिलाओं के गले से गहने और लोगों की जेब से बटुए कब पार हो जाते हैं पता नहीं चलता। इन असामाजिक गतिविधियों के बावजूद मड़ई-मेले की महत्ता बनी हुई है और वर्षों तक बनी रहेगी।

- ललित मानिकपुरी 

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