बुधवार, 31 दिसंबर 2014

लघुकथा-

अभागे...

''इससे ज्यादा अभागा और कौन होगा? जहां इतना बड़ा सत्संग-प्रवचन हो रहा है, वहां यह कंबल ओढ़कर सोया पड़ा रहता है।"" एक सत्संगी ने दूसरे सत्संगी से कहा। तब दूसरे ने भी उनके हां में हां मिलाते हुए कहा-''बिलकुल सही कहते हैं संत जी, पांच दिनों से देख रहा हूं यह आदमी सद्गुरु महाराज का भजन-प्रवचन सुनने के बजाय इसी तरह सोया रहता है। ठीक है सत्संग पंडाल काफी बड़ा है, लेकिन यह साधु-संतों और श्रद्धालुओं के लिए है। भंडारा में पेलकर नींद भाजने वाले के लिए यहां कोई जगह नहीं होनी चाहिए। देखो तो कितना खराब लगता है। यह अभागा नहीं, कुंभकर्ण है। राक्षस है। मानुष जनम पाकर भी पशु के समान है। भगाओ इसे।""
उनकी बातों का समर्थन करने वाले और कई मिल गए। फिर क्या था, सत्संग पंडाल से खींचते हुए लोगों ने उसे भगा दिया। दूसरे दिन पुन: प्रवचन का समय हुआ, रोज की तरह महराज के आने के पहले ही लोग पंडाल में पहुंचने लगे। लेकिन आज पंडाल का माहौल बहुत खराब था, चारों ओर जूठन-पत्तल बिखरे पड़े थे। चारों ओर गंदगी का आलम था। कहीं से गंदा पानी बहता आ रहा था, तो कहीं कीचड़ हो रहा था। पंडाल के आसपास मल-मूत्र और गंदगी से अंदर तक दुर्गंध फैल रही थी। ऐसे में न तो वहां किसी का प्रवचन में मन लग रहा था और न ही भोजन-भंडारा के प्रति रुचि हो रही थी। आयोजकों ने सोचा कि सत्संग स्थल का यह हाल कैसे हो गया। तमाम सदस्यों से पूछने-ताछने पर पता चला कि उन्होंने तो सफाई के लिए किसी को नियुक्त ही नहीं किया था। फिर सवाल उठा कि इसके पहले चार-पांच दिनों तक फिर यहां का वातावरण साफ-सुथरा कैसे था।
तभी प्रवचनकर्ता महराज जी को उस आदमी की याद आई। उन्होंने कहा -''मैं तड़के उठता था तो एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को यहां से कचरा उठाते देखता था। संभवत: वह सारी रात यह काम करता था। उसे फावड़ा लेकर नाली भी बनाते देखा था। कहां है वह।"" तभी कुछ सत्संगियों को ध्यान आया कि कहीं वही तो नहीं, जिसे हम ही लोगों ने मारपीट कर भगा दिया। तब महराज ने कहा- ''प्रवचन कहने और सुनने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसे अपने जीवन-व्यवहार में आत्मसात करना। हम अभागे हैं, एक इंसान को नहीं पहचान सके तो संत, सद्गुरु या परमेश्वर को क्या पहचान पाएंगे।""
-ललित दास मानिकपुरी

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