बाबाजी
'दुलारी..., मैं नरियर ले के लानत हंव, तैं फूल-पान अउ आरती सजाके राख। अंगना-दुवारी म सुंदर चउंक पुर दे।"- मंगलू अपन गोसइन ल कथे।
'मैं सब कर डारे हावंव हो, फिकर झन करौ। बस काखरो करा ले सौ ठन रुपया लान दौ। बाबा जी ल घर ले जुच्छा भेजबो का?" - दुलारी किहिस।
बिचार करत मंगलू कथे-'बने कथस वो, पहली ले जानत रइतेन बाबाजी आही कहिके त सुसाइटी ले चांउर ल नइ बिसाय रइतेन। साढ़े तीन कोरी रुपया रिहिस हे। फेर चांउर नइ लेतेन त खातेन का? कोठी म तो धुर्रा उड़त हे।"
'का जानन हो, अइसन दुकाल परही कहिके। ओतका पछीना ओगराएन, पैरा ल घलो नइ पाएन। गांव म तो सबो के इही हाल हे हो, काखर करा हाथ पसारहू? तेखर ले मोर बिछिया ल बेच देवव।"- दुलारी कहिस।
मंगलू कथे-'कइसे कथस वो, तोर देहें म ये बिछिया भर तो हे, यहू ल बेच देबे त तोर करा बांचहीच का?"
'तन के गाहना का काम के हो, जब बखत परे म काम नइ अइस। बाबाजी के किरपा होही त अवइया बछर म हमरो खेत ह सोन ओगरही। तब बिछिया का, सांटी घलो पहिरा देबे।"- दुलारी किहिस।
मंगलू ल दुलारी के गोठ भा गे, कथे-'तैं बने कथस वो, आज मउका मिले हे त दान-पुन कर लेथन। का धरे हे जिनगी के? ले हेर तोर बिछिया ल, मैं बेच के आवत हंव।"
मंगलू दुलारी के बिछिया ल बेच आइस। सौ रुपया मिलिस तेला दुलारी अंचरा म गठिया के धरिस। दुनों के खुसी के ठिकाना नइ हे। रहि-रहिके अपन भाग ल सहरावत हें कि आज बाबा जी के दरसन पाबो, ओखर चरन के धुर्रा ल माथ म लगाबो। सुंदर खीर रांध के दुलारी मने-मन मुसकावत हे, ये सोंच के कि रोज जेखर फोटू ल भोग लगाथंव, वो बाबाजी ल सिरतोन म खीर खवाहूं।
मंगलू मुहाटी म ठाढ़े देखत हे। झंडा लहरावत मोटर कार ल आवत देखिस त चहकगे। आगे... आगे... बाबाजी आगे, काहत दुलारी ल हांक पारिस। दुलारी घलो दउड़गे। दुनोंझन बीच गली म हाथ जोरके खड़े होगें। हारन बजावत कार आघू म ठाहरिस। बाबा जी अउ ओखर मंडली जइसे उतरिस, मंगलू हा बाबा जी के चरन म घोलनगे। 'आवव... आवव... बाबाजी" काहत, परछी म लान के खटिया म बइठारिस। पिड़हा उपर फूलकांस के थारी मढ़ाके पांव पखारे बर दुनोझन बइठिन। बाबा जी अपन पांव ल थारी म मढ़इस, त ओखर सुंदर चिक्कन-चाक्कन पांव ल देखके दुनों के हिरदे गदगद होगे। ये तो साक्षात भगवान के पांव आय। ये सोंच के, 'धन्य होगेन प्रभू, हमन धन्य होगेन" काहत मंगलू अपन माथ ल बाबाजी के चरन म नवादिस। दुनों आंखी ले आंसू के धार फूट परिस। तरतर-तरतर बोहावत आंसू म बाबाजी के पांव भींजगे। दुलारी के आंखी घलो डबडबागे।
तभे मंडलीवाला कथे-'जल्दी करो भई, बाबाजी को गउंटिया के घर भी जाना है।"
हड़बड़ाके दुनोंझन पांव पखारिन, आरती उतारिन, फूल-पान चढ़ाइन अउ नरियर के संग एक सौ एक रुपया भेंट करिन।
'मंगलू बाबाजी को बस इतना ही दान करोगे?"- मंडली वाला फेर किहिस।
'हमन गरीबहा तान साधू महराज, का दे सकथंन। जउन रिहिस हे तेला बाबाजी के चरन म अरपन करदेन।"- मंगलू अपन दसा ल बताइस।
मंडली वाला फेर टंच मारिस-'अरे कैसे बनेगा मंगलू, बाबाजी तुम्हारे घर बार-बार आएंगे क्या?"
मंगलू अउ दुलारी एक-दूसर ल देखिन। दुलारी ह अंगना म बंधाय गाय डाहर इसारा करिस। त मंगलू ह बाबाजी ल फेर अरजी करिस -'मोर करा ए गाय भर हे बाबाजी, गाभिन हे, येला मैं आपमन ल देवत हंव।"
'अरे गाय ल बाबाजी कार म बइठार के लेगही का? गाय ल देवत हस तेखर ले गाय के कीम्मत दे दे।"-मंडली वाला फेर गुर्रइस।
मंगलू सोंच म परगे। दुलारी चांउर के चुम डी डाहर इसारा करिस। मंगलू समझगे, कथे-'बस ये चाउंर हे गुरुददा।"
त गुरुददा मुसकावत कथे- 'ठीक हे मंगलू, मोला स्वीकार हे। फेर ये चांउर ल लेगे बर घलो जघा नइहे, येला बेचके तैं पइसा लान देबे। मैं चलत हंव, देरी होवत हे।"
अतका कहिके बाबाजी खड़े होगे। मंगलू फेर हाथ जोरके बिनती करिस-'बाबाजी, दुलारी आपमन बर भोग बनाए हे, किरपा करके थोरिक पा लेतेव।"
बाबाजी कुछु कतिस तेखर पहलीच मंडली वाला के मुंहू फेर चलगे -'बाबाजी किसी के घर पानी भी नहीं पीते, तुम्हारे घर खाएंगे कैसे?
अतका सुनिस त दुलारी हाथ म धरे खीर के कटोरी ल अपन अंचरा म ढांकलिस। बाबाजी मंडली के संग निकलगे। पाछू-पाछू मंगलू चांउर ल बेचे बर निकलगे। बेच के सिध्धा गंउटिया घर गिस। मुहाटी म ठाढ़े गउंटिया के दरोगा ह ओला उहिच करा रोक दिस। कथे-'अरे ठाहर, कहां जाथस? भीतरी म महराजमन गंउटिया संग भोजन करत हें। तहूं सूंघ ले हलुवा, पूड़ी इंहा ले ममहावत हे। अउ दरसन करे बर होही त पाछू आबे। खा के उठहीं त सबो झन बिसराम करहीं।"
'मैं तो बाबाजी ल दक्छिना देबर आए हंव दरोगा भइया।" - मंगलू ह बताइस।
'अरे त मोला दे दे ना, मैं दे देहूं। अउ कहूं भीतरी जाहूं कहिबे त मैं नइ जावन दंव। गंउटिया मोला गारी दीही।"- दरोगा किहिस।
मंगलू ह पइसा ल दरोगा ल देके अपन घर लहुटगे। घर आके देखथे, दुलारी परछी म खड़े, कोठ म लगे फोटू ल निहारत राहय, आंखी डबडबाए राहय। मंगलू ह घलो वो फोटू ल देखिस, जेमा माता सवरीन ह भगवान राम ल सुंदर परेम से बोईर खवावत राहय।
- ललित मानिकपुरी
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