बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी- गुवालीन



-ललित दास मानिकपुरी 

पूस पुन्नी के बड़े बिहनिया राजिम के तिरबेनी संगम म सूरुज के लाली घाम बगरत रिहिस। नदिया के पातर धार घलो दूरिहा ले चमकत रिहिस। अपन सा ढे चार साल के बाबू संग नदिया म उतरेंव। माड़ीभर पानी म जय गंगा मइया कहिके डुबकी लगाएंन त अइसे लागिस, जइसे बियाकुल जीव जुड़ागे। लइका घलो मारे खुसी के चाहके लागिस। फेर का, दोनों झन पानी छीत-छीत के अउ घोलन-घोलन के  नदिया नहाए के मजा लेवत रहेन।
घाम थोरकिन अउ बाढ़ गे। अब तो धार के तरी के रेती घलो चमके लागिस। उथली धार म बोहावत मोती कस सुंदर गोटर्री मन ल देख के बाबू बीने लागिस।तभे एक ठन गुवालीन दिखिस। जइसे नदिया के अथाह रेती म अकबकागे रिहिस अउ बाहिर निकले बर अपन दोनों हाथ ल टांगत रिहिस। बाबू ओला देखके झटकुन उचालीस। अउ खुसी ले चाहकत किहिस ''पापा, ये देख।""
जइसे कोनो हीरा पागे, माटी के गुवालीन के सुंदर मूर्ती ल देखके लइका गदगद होगे। पूछिस- ''पापा, ये का ये?""
में बताएंव- ''बेटा, ये गुवालीन ए।"" बाबू ल जइसे कुछू समझ नइ अइस, कथे- ''गुवालीन!"" 
में केहेंव- ''हां बेटा गुवालीन। जइसे हमन दीवाली के दिन लक्ष्मी माता के मूर्ती  के पूजा करथन, वइसेे गांव म गुवालीन के पूजा करे जाथे। तुलसी चौरा म मढ़ा के अउ दिया बार के एखर परनाम करे जाथे।  गुवालीन माने समझ ले, लक्ष्मी माता। देख, एखर मुड़ म दिया हे अउ दोनों हाथ म दिया हे। दिया बारे ले अंजोर होथे न, त बेटा ये अंजोर के देवी आय। अंधियार ल दूरिहा भगाथे। घर-दुवार अउ जिनगी म अंजोर भर देथे।""
बाबू कथे-''त पापा, ये गुवालीन ल हमन घर ले जाबो। हमर घर म सदा अंजोर रही।""
में केहेंव-''नहीं बेटा, ए गुवालीन ल कोनो दाई-माई ह नदिया म बिसरजन करे हे। एला इहें राहन दे, नदिया में। चल हमन चलबो।""
लइका के मन नइ मानत रिहिस, गुवालीन के चेहरा ल एकटक निहारत बाबू कथे-''पापा, देख तो गुवालीन रोवत हे।""
आंखी गड़ाके महू देखेंव। दोनों आंखी के तरी-तरी गाल के आवत ले परे चिनहा ल देख के सिरतोन म अइसे लागत रिहिस जइसे गुवालीन आंसू ढारत हे।
में केहेंव-''बेटा, नदिया के धार म बोहावत-बोहावत अउ रेती-कंकड़ म रगड़ाके गुवालीन के चेहरा म चिनहा पर गे हे। माटी के मूर्ती कहूं रोही? अब एला छोड़ अउ चल निकलबो। ज्यादा बेर ले बूड़े रबो त जुड़ धर लेही।""
 बात मान के बाबू, जइसे फेंके लागिस, गुवालीन कंठ फोर के चिल्लाइस, ''नहीं...।"" साक्षात परगट होगे। कहिस-''मत डारव मोला, थोरिक सुन लौ मोर गोठ।""
अकबकाके दोनों बाप-बेटा एक-दूसर ल पोटार के खूँटा कस गड़े रहिगेन। आंखी उघरे के उघरे रहिगे।
गुवालीन अइसे कि चेहरा चंदा कस चमकत रिहिस, काया माटी कस माहकत रिहिस, हरियर धार के लाली लुगरा पहिरे, दोनों हाथ म जगमग दिया अउ मुड़ म नांदी-कलसा बारे। अंग-अंग ले जइसे अंजोर फूटत रिहिस।
सुघ्घर परेम से किहिस- ''भइया तुमन सिरतोन जानेंव, में गुवालीन अंव। छत्तीसगढ़ महतारी के दुलउरीन बेटी अंव। कोन जनी काबर ते मोला अइसे लागत हे कि मोर छत्तीसगढ़ महतारी ल कोनो बात के पीरा हे। ओ पीरा ह महू ल जनावत हे। कांटा बनके हिरदे म गड़त हे। जी छटपटावत हे कहूं ल पूछ लेतेंव कहिके। भइया, तें कुछू जानथस का? बता न भइया बता न, का बात के पीरा हे मोर दाई ल?""
गुवालीन अइसे अधीर होके पूछत रिहिस हे जइसे ससुरार में उदुपहा अपन मइके के मनखे ल पाके कोनो बेटी ह पूछथे, अपन दाई-ददा के फिकर करत। में जान डरेंव, गुवालीन हमर छत्तीसगढ़ के चिंता करत हे, फेर मोर जुबान नइ खुलत रिहिस।
हमन ल चुप ठाढ़े देख के गुवालीन ह फेर करलई अकन ले उही बात किहिस। त झिझकत-झिझकत केहेंव-''गुवालीन मइया, तें फिकर झन कर, छत्तीसगढ़ म सब बने-बने हे। अब तो छत्तीसगढ़ के अलग राज बन गे हे। हमर रयपुर म हमर सरकार बइठे हे। जौन सबके हियाव करत हे। साहर से लेके गांव तक बिकास होवत हे। रयपुर तो चमकत हे। गांव मन के तसबीर घलो बदलत हे। छत्तीसगढ़ तो पूरा देस म नंबर एक राज बन गे हे। बड़े आदमी मन कार म घूमत हें, गरीबहा मन बर कारड बने हे। रुपया-दू रुपया म चांउर अउ फोकट म नून मिलत हे। इहां के जनता बहुत खुस हे मइया। फेर छत्तीसगढ़ महतारी ल का बात के दुख-पीरा होही।""
मोर गोठ ल सुनके गुवालीन के चेहरा म थोरिक सांति के भाव अइस। कथे- ''तें सिरतोन काहत हस न भइया? तोर गोठ ल सुनके बने लागिस। का करंव दाई बर संसो लागे रइथे।""
 अतका कहिके गुवालीन चुप होगे। फेर मोर बाबू ल दुलार करत कहिथे- ''कतेक पियारा हे बाबू। एखर हाथ परिस तभे में ये रूप म आके अपन हिरदे के बात ल केहे सकेंव अउ अपन महतारी के हाल-चाल ल जाने सकेंव। तें धन्य हस बेटा।""
में केहेंव-''मइया, ये तो मोर जइसे बनिहार अउ किसनहा के लइका आय। एखर हाथ म कोनो चमत्कार नइ हे। ये तो तोर मूर्ती ल देख के खुस होके उचालीस। माटी के तोर सुंदर नान-नान मूर्ती ल देखके गांव म हर लइका-सियान खुस हो जाथें।""
गुवालीन मुसकावत कथे- ''हां भइया, खुस काबर नइ होही।  देवारी तिहार के सुघ्घर मउका जउन रहिथे। खेत म धान के सोनहा बाली लहलहावत रहिथे। अन्न्कुमारी देवी के अइसन गजब रूप ल देख के मनखेच मन नहीं, चिरई-चिरगुन घलो मारे खुसी के चिहुं-चिहांवत रहिथे। अरे सुवा तो माटी के मूर्ती बनके सुवा नचइया बहिनी मन के टुकनी म बइठ जथे। गांव के हर घर, हर अंगना-दुवार म जाथे अउ सबला खुसी मनाए के संदेस देथे- घर म लक्ष्मी अवइया हे दीदी, अब हो जाव तियार। छूही-माटी झट करिलौ, चंउक पुरलौ अंगना-दुवार। फोरौ फटाका भइया अउ मनावौ देवारी तिहार।""
  गुवालीन के हिरदे के गोठ ल सुनके जइसे हमरो मन ह आनंद के धारा म डुबकइयां खेले लागिस। गुवालीन के अंग-अंग ले झरत परेम परकास म जाड़-घाम घलो नइ जनावत रिहिस। एती गुवालीन के आँखी म तउरत हे सुरता। सुरता, सोनहा दिन के।
 में केहेंव- ''हां मइया, देवारी के समे तो सबला बड़ सुघ्घर लागथे, चारो कोती खुसी के माहुल रहिथे अउ फटाका फूटत रहिथे। गाँव के गुड़ी-हाट म बइठ के कुम्हारीन दाई ह माटी के सुघ्घर दिया, नांदी, कलसा अउ गुवालीन बेचत रहिथे।  सुरहुति के दिन संझाती के बेरा घरो-घर सबले पहली तुलसी चौरा म तोर मूर्ती ल मढ़ाके दिया ल बारथें।""
गुवालीन कथे- ''हां भइया, दिया बार के कोठी-डोली, कुरिया, बारी, अँगना-दुवार सबो कोती झंकाथें। फेर थारी म दिया धर के घरो-घर बांटे ल जाथें। ये भाव ले कि काखरो घर अंधियार झन राहय अउ सबो घर सुख-सांति के परकास बगरय। घर-दुवार, गली-खोर, बारी-बखरी अउ पूरा गांव ह दिया मन के झिलमिल अंजोर म जगमगा जथे। कतेक सुघ्घर दिखथे। अइसे लागथे जइसे अकास के चंदैनी मन भुइयां म उतर गे हे।""
में केहेंव- ''हां गुवालीन मइया तोर किरपा ले पूरा गांव म जगमग अंजोर होथे, गौंटिया के बिल्डिंग होय चाहे बनिहार के खदर-कुरिया, सब जगा तोर किरपा के अंजोर बगरथे। हमर छत्तीसगढ़ के तिहीं तो लक्ष्मी आस। हमर भाग ए कि हमन अइसे भुइयां म जनम धरेन जिहां 'अंजोर के देवी" के पूजा करे के संस्कृति हे। ओ मानुस घलो धन्य हे जेन ह तोर मूर्ती के अइसे सरूप ल गढ़िस। मुड़ म दिया-कलसा सोहे अउ दोनों हाथ म दिया धरे। सादा सिंगार, भरे छत्तीसगढ़ महतारी के संस्कार।""
''गुवालीन मइया, ओ मानुस के मन म देवी के अइसे सरूप नइ अइस, जौन ह सोन-चांदी के सिक्का के ढेर अउ नोट के गड्डी मन के चकाचउंध म खड़े रहिथे, अउ जेवर-गाहना, मकुट पहिर के पइसा बरसावत रहिथे। छत्तीसगढ़ के गरीबहा, बनिहार, अउ कमिया समाज बर ओ हा धन के नइ, अंजोर के लक्ष्मी के कल्पना करिस। अइसे देवी ल पूजे के फल आय कि  इहां के मनखे मन अभाव अउ गरीबी म घलो सुख सांति ल पाइन। धन के जगा धान बर पसीना बोहाइन अउ छत्तीसगढ़ ल धान के कटोरा बनाइन। ओ मानुस के में चरन पखारंव।""
गुवालीन कथे- ''ओ मानुस तो मोर हिरदे म बसथे भइया। मोर अवतार करइया ल कइसे भुला सकथंव। ओखर वंसज मन के उपकार ल घलो नइ भुला सकंव। बड़ सुरता आथे गांव के कुम्हार बबा अउ कुम्हारीन दाई के। कइसे अपन हाथ ले सुघ्घर परेम से अउ कतिक मेहनत म बनावंय मोर मूर्ती। उंखर नोनी-बाबू मन घलो खुसी-खुसी हाथ बटावंय। खेत ले माटी खन के लानय। ओला सूखो के,  कुचर के, छानके, पानी म फिलोके पिसान बरोबर सानंय, अउ अपन  हाथ ले सुघ्घर मोर सरूप देवंय। फेर सूखो के भट्ठी म पकोवंय। फेर सोनहा, लाली अउ हरियर रंग बनाके मोर साज-सिंगार करंय। जइसे कोनो मयारू  बाप-महतारी बिदाई के बेरा अपन दुलउरीन बेटी के करथें।  मुड़ म नांदी-कलसा बोहा के अउ दोनों हाथ म दिया धरा के जइसे काहंय, जा दुलउरीन बेटी तें घर-घर अंजोर बगराबे।""
गुवालीन कथे- ''बांस के टुकना म मोर नान-नान मूर्ती अउ दिया, कलसा, नांदी धरके गु डी-हाट म बइठ जाय कुम्हारीन दाई। अउ ओला बिसइया भइया मन घलो बड़ संुदर भावना ले उंखर कला साधना अउ मेहनत के वाजिब दाम देवंय।""
में केहेंव- ''गुवालीन मइया, अब ओ दिन बिसर गे। अब नया जमाना आगे। नवां-नवां तकनीक आगे। अब माटी गूंथ-गूंथ के चाक म चढ़ाके हाथ ले गुवालीन बनाए के जमाना झर गे। अब तो प्लास्टर ऑफ पेरिस के मूर्ती बनथे, ओ भी सांचा में। ओमा रंग घलो चकाचक लगथे। गजब के सुंदर दिखथे अउ वइसने दाम म बिकथे।""
गुवालीन खुस होवत कथे- ''अच्छा! तब तो कुम्हारीन दाई ल बने पइसा मिलत होही। बजार ले लइका मन बर आनी-बानी के खई-खजानी लानत होही। सबो झन बने-बने खावत-पियत अउ पहिनत-ओढ़त होंही।""
में केहेंव- ''नइ मइया, अइसे बात नइ होय। तें ज्यादा खुस झन हो। अब तोर मूर्ती नइ बनय अब तो लक्ष्मी माता के मूर्ती बनथे।""
गुवालीन कथे- ''ये तो अउ बने बात ए। लक्ष्मी माता के अउ जादा किरपा होही। में तो अंजोरभर करथंव, लक्ष्मी माता तो धन के बरसा करहीं।"" 
में केहेंव- ''गुवालीन मइया लक्ष्मी माता के किरपा तो होवत हे, फेर उंखर उपर जेन मन कला-शिल्प के बड़े-बड़े सौदागर हें। भले कुछू कला झन जानय, पर कला के बैपार करे बर जानथें। कलाकार ल अंगरी म नचाए बर जानथें। उंखर मेहनत ले अपन दुकान सजाए बर जानथें। लक्ष्मी माता के मूर्ती या फोटू कोनो कुम्हार के घर म नइ बनय अउ न तो ओमन बेचंय। ओखर बाजार तो बड़े-बड़े साहर म लगथे। गांव के मनखे मन घलो साहर म जाके ओला बिसाथें। अउ संगे-संग बिजली के रंग-बिरंगा झालर लाइट घलों ले आथें। अब घर म सुरहुति दिया बारे के दिन घलो नदावत हे। बिजली के झालर लाइट लगाथें अउ बटन दबाते साठ जगमग अंजोर हो जथे। याहा महंगई के जमाना म तेल भर-भर के कोन दिया बारे सकही मइया, नेगहा चार दिया बरगे त बहुत होगे।""
''गुवालीन मइया तोर मूर्ती ल राखे बर अब तो घर म जगा घलो नइये। भाई बटवारा म अंगना खड़ागे। अंगना के तुलसी चौरा उजर गे। तुलसी महरानी घलो घर ले बिदा होगे। अब गमला म भोगइया कैक्टस के जमाना आगे। तुलसी के पौधा आँखी म गड़त रिहिस अउ कैक्टस के कांटा सुहाथे। मइया, तुलसी बर ठउर नइहे त तोर परवाह कोन करत हे। अब न तो माटी के कला के जमाना हे, न माटी से जुड़े कलाकार के। अब जमाना हे बजार के। सब जिनिस बजार म बेचावत हे।  गांव म कुम्हारीन दाई करा अब का बांच गे लोगन के बिसाए बर।""
''जेला आधुनिकता कथे, ओखर आंधी म माटी म जामे कला अउ संस्कृति के जर उसलगे। कतेक कुटीर उद्योग, हस्त सिल्पकारी अउ खेती ले जुड़े लोहार, बढ़ई मन के पारंपरिक बेवसाय के दिया बुतागे। कुम्हार मन के चाक टूट गे, धमन भठ्ठी फूट गे। माटी म प्राण फूकइया हाथ बर अब काम नइहे। कुम्हारीन दाई मन खपरा बनाके गुजर-बसर करत रिहिन। अब खपरा के दिन घलो पहा गे। छानी-परवा के जगा मुंडा ढलागे। नंदियाबइला अउ जांता-पोरा के खेलौना अब के लइका मन ल नइ भावय। ट्यूसन अउ होमवर्क ले उबर गे त उंखर हाथ कम्प्यूटर के माउस म माढ़े रइथे। नइ त आंखी टीबी म गड़े रइथे। माटी के बरतन तो अब भिखमंगा घलो नइ बउरय। ओ दिन घलो बिसरत जात हे, जब घरो-घर करसी भरे राहय। लकलकावत घाम अउ गर्मी म करसी के सीतल पानी ल पीके प्यासे भर नइ बुझावय आत्मा घलो जुड़ा जाय। अब करसी के जगा घर-घर म फ्रीज आगे। वइसने जात्रा म सुराही के संग छूट गे। अब बड़े-बड़े कंपनी के पाउच अउ बोतल म भरे पानी पीये के जमाना आगे। काला बतावंव मइया चिंता-फिकर म घुर-घुर के कुम्हार बबा के जीव छूट गे।  कुम्हारीन दाई अधिया गे। लोग-लइका मन चोरोबोचो होके कर्जा-बोड़ी म बुड़ा गे। पुस्तैनी काम-धंधा छूटगे अउ भटकत हे बनी-भूती करत।""
 अतका सुनिस ते गुवालीन के आँखी ले आँसू के धार तरतर-तरतर बोहाए लागिस। मोरो आंखी डबडबा गे। आंसू ल पोंछत गुवालीन पूछथे- '' त भइया का उंखर कोनो पूछइया नइये? इहां के सरकार डाहर ले घलो कुछू मदद नइ मिलय का?""
में केहेंव- ''गुवालीन मइया, कुम्हार मन के अइसे दसा ल देखके सरकार ह कतेक कुम्हार मन ल बिजली से चलइया चाक दिस।  फेर अब चाक म बनावंय का? अउ बनाही त पकावंय कइसे। जंगल उजर गे, लकड़ी सोना होगे। भट्ठी ल तपाहीं कामा? कोइला के भाव आसमान छूअत हे, अउ धान के भूसा चाउर ले मांहगा होगे हे। काला बतावंव मइया गोबर के छेना तक नोहरहा होगे हे। बस्ती बाढ़ गे, चरागन चपका गेे। गाय-गरू  के चरे बर जगा नइ हे। अब आदमी ट्रैक्टर-मोटर भले राख लेहीं, फेर चार ठन मवेशी राखे के हिम्मत नइ हे। अब तो गौ माता घलो घर ले विदा होगे मइया, धीरे-धरे कोठा सुन्न्ा पर गे। एक ओ दिन रिहिस, जब पंद्रही नइ बीते पाय घर म चांट-चांट के पेंऊस खावत रेहेन। अब तो गोबर बर तरसे ल होगे हे। भट्ठी के ईंधन बर छेना तो दूर, दुवारी ल लीपे बर घलो एक लोई गोबर नइ मिलत हे। वहू दिन लकठा गे हे जब गौरी-गनेस बनाए बर घलो गोबर बिसाए ल परही।  मल्टीनेशनल कंपनी मन गाय के फोटू लगे पैकेट म सूरा के गू भरके 'गाय का शुद्ध गोबर" के नाम ले बेचहीं।""
गुवालीन संग हमर गोठ चलते रिहिस। ओती बाबू के दाई ह माई लोगिन घाट म नहाके पूजा करे बर अगोरत रिहिस। असकटाके आ धमकिस। दूरिहा ले खिसियावत कथे, तुमन नदिया म बूड़ेच रहू कि निकलहू घलो। मंदिर म आरती शुरू  होगे हे। चलो झट निकलव।
गुवालीन कथे- ''भइया बड़ सुघ्घर हे तोर बहुरिया। पूजा के थारी धरे हे, अउ मंदिर जाय बर देखत हे। तब तक बाबू ह मोर कोरा ले उतर के अपन दाई करा दउड़ गे रिहिस।  ओखर कान म कुछु किहिस। अउ अंगरी धर के नदिया के धार म ले आनिस। गुवालीन मइया के किरपा होइस अउ ओखरो अंतस के आंखी उघर गे। मइया के दरसन पाके गदगद होगे। फेर का, तीनों झन आरती उतारेंन। गुवालीन मइया हाथ उठाके असीस दीस। खुसी राहव, सदा खुसी राहव।
में केहेंव- ''मइया, में तो गरीबहा किसनहा अंव, जेन दिन इहां के किसान अउ ओखर परिवार म खुसियाली आ जही, ओ दिन तो सिरतोन म छत्तीसगढ़ महतारी देवारी मनाही। वास्तव म ये किसान अउ किसानी के दुरगति के भुगतान ए कि गांव-समाज ले जुरमिल के जिये के भाव अउ संस्कृति ह मिटावत हे। खेती किसानी ह ये भावना के जर आय। जउन ह दुरभाग ले सुखावत हे। जर सुखाही त रूख बांचही? धीरे-धीरे पाना-डारा सब सुखा के गिर जाहीं। जइसे लोक कला, सिल्प, संस्कृति अउ साहित्य के चुपचाप सेवा-साधना करइया मन दुबरावत हें अउ एखर बैपार करइया मन दुहरावत हें।
गुवालीन कथे-भइगे भइया भइगे, में जान डरेंव। इहीच बात के पीरा म मोर छत्तीसगढ़ महतारी ह कुहरत हे, अउ इही पीरा ह मोरो करेजा म काँटा बन के गड़त हे। में का करंव दाई.. तोर दुख ल में कइसे  हरंव। कहिके गुवालीन रो डारिस।"" 
अतका सुनके मोर बाबू कथे- ''तुमन चिंता झन करौ पापा, में हंव न।""
 बाबू के गोठ सुनके गुवालीन के मुख म मुसकान दउड़ गे। बाबू ल अपन कोरा म पाके कथे- ''हां बेटा तें तो हस न। मोला भरोसा हे। फेंके-डारे माटी के गुवालीन ल उचा के अपन हिरदे ले लगाइया जिहां तोर जइसे लइका हंे, उहां के समाज एक दिन घपटे अंधियारी ल खेदार के सोनहा बिहान जरूर लाही।"" अतका कहिके गुवालीन अंतरध्यान होगे।
                                                                                                            
                                                                                                               9752111088


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