मुन्नी बदनाम हुई... जैसे दो-चार फिल्मी गाने डीजे या बैंड बाजे की धुन पर बजे, बाराती लटक-मटक के नाचे, बफे में दावत उड़ाई, दूल्हा-दुल्हन के फेरे हुए, दहेज का सामान समेटे और चलते बने। लो हो गई शादी। यह आज का दौर है, जो नगर, कस्बों से होते हुए देहातों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ का विशाल ग्राम्यांचल विवाह की उन गौरवशाली परंपराओं को समेटे हुए है, जिनमें रोचक व आदर्श रस्मों-रिवाजों की मनमोहक मोतियां गुथी हुई हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला शहरी या कस्बाई समाज भी विवाह के पारंपरिक रस्मों-रिवाजों से विलग नहीं है।
छत्तीसगढ़ में जिसे 'बिहाव" कहा जाता है, वह एक युगल का मिलन मात्र नहीं है, वरन दो परिवार और दो कुल के अटूट संगम का मांगलिक उत्सव होता है। इस उत्सव से लोक गीत, संगीत और नृत्य का अभिन्न् रिश्ता है। कई जनजातियों में कुछ ऐसे भी लोक नृत्य और संगीत का प्रचलन है, जिसकी प्र भा में फूटा प्रेमांकुर उसी क्षण ही दो आत्माआंे को एकाकार कर उनके वैवाहिक जीवन का सूत्रपात कर देता है। नृत्य के दौरान ही युवक-युवतियां जीवन भर के लिए एक-दूसरे का हाथ थाम लेते हैं। यह चोरी-छिपे या अमर्यादित स्वछंदता के माहौल में नहीं वरन सामाजिक और पारिवारिक रजामंदी के सुरक्षित और सुखद वातावरण में होता है।
नाचते-नाचते चुन लेते हैं जीवन साथी
बस्तर के अबूझमाड़िया आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला 'ककसार उत्सव" अविवाहित युवक-युवतियों के लिए ऐसा ही एक अवसर होता है, जब वे अपने जीवन साथी का चयन कर वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। 'ककसार" का संबंध अबूझमाड़ियों की विशिष्ट मान्यता से है, जिसके अनुसार वर्ष की फसलों में जब-तक बालियां नहीं फूटतीं, स्त्री-पुरुषों का एकांत में मिलना वर्जित माना जाता है। बालियां फूट जाने पर ककसार उत्सव के माध्यम से यह वर्जना तोड़ दी जाती है। स्त्री-पुरुष अपने-अपने अर्धवृत्त बनाकर सारी रात नृत्य करते हैं। इस नृत्य में उसी धुन और ताल का प्रयोग किया जाता है, जो विवाह के समय प्र योग किया जाता है। गोड़ एवं बैगा जनजातियों का लोकप्रिय 'बिलमा" नृत्य भी ऐसा लोकनृत्य है, जिसमें अविवाहित युवतियां विशेष सजधज कर टोलियों में एक गांव से दूसरे गांव नृत्य करने जाती हैं और नृत्य करते-करते अपने जीवन साथी का चुनाव कर इस नृत्य के नाम को सार्थक करती हैं।
हाथी पर सवार होकर नाचता है समधी
इसी तरह विवाह के अवसर पर विभिन्न् जाति-जनजातियों में उनके विशेष गीत, संगीत और नृत्य का आयोजन होता है। बैगा जनजाति में विवाह के समय 'परघोनी" नृत्य का प्रचलन है। बारात की अगुवानी के समय खटिया, सूप, कम्बल आदि से हाथी बनाया जाता है। उस पर समधी को बैठाकर नगा डा एवं टिमकी के धुन पर गाते हुए नचाया जाता है। वहीं हाथी के आगे दुल्हन खड़ी होती है। यह एक तरह से हास-परिहास का क्षण होता है, जिसमें दुल्हन भी शामिल होती है।
'बिरहा" की होड़
गोंड़ व बैगा आदिवासियों में विवाह के अवसर पर 'बिरहा" गाने की प्रथा है। यह श्रृंगारपरक विरह गीत है, जिसमें प्राय: लड़की के विरह का वर्णन होता है। यह प्रश्न पूछने के अंदाज में ऊंची टेर लगाकर पुरुषों द्वारा गाया जाता है। कभी-कभी स्त्री-पुरुष दोनों गाते हैं। इस अवस्था में स्त्री-पुरुषों के मध्य सवाल-जवाब होता है। बारात में तो बिरहा गाने की होड़ देखी जाती है। बस्तर में पाई जाने वाली दोरला जनजाति विभिन्न् पर्वों के साथ-साथ विवाह के अवसर पर 'दोरला" नृत्य करती हैं। वहीं विवाह में खास तौर पर 'पेण्हुल"नृत्य करने की परिपाटी है। एक विशेष प्रकार के ढोल के साथ स्त्रियां रहके और बट्टा पहनकर तथा पुरुष पंचे, कुसमा एवं रूमाल पहनकर खूब नाचते हैं। बस्तर में भतरा, परजा एवं धुरवा जनजातियों में भी यह नृत्य प्रचलित हैं।
'धनुष-बाण" लेकर आता है दूल्हा
छत्तीसगढ़ में विवाह के कई रस्मों-रिवाज भी रोचक हैं। शिकार के लिए बांस से बने धनुष तथा घानन वृक्ष की लकड़ी से बने बाण का प्रयोग करने वाले धनवार जनजाति के लोगों में, दूल्हा विवाह के समय भी धनुष बाण लेकर आता है।
'वधूधन" देने की प्रथा
गोंड़, कोरबा, कोरकू, ओरांव आदि जनजातियों में विवाह के समय वधू धन देने की प्रथा है। यह दहेज प्रथा के बिलकुल उलट है। इस प्रथा में वधू के पिता को वर पक्ष के द्वारा एक निश्चित मात्रा में धन दिया जाता है, जो दोनों पक्षों को मंजूर होता है। हालांकि कई बार वधू धन के लिए कुछ अकड़ भी दिखाई जाती है।
लड़की पकड़े नोट, तो रिश्ता मंजूर
छत्तीसगढ़ की पिछड़ी और सामान्य जातियों मे वैवाहिक कार्यक्रम प्राय: तीन दिनों का होता है। पहले दिन तेल, दूसरे दिन मायन और तीसरे दिन बारात। इन तीन दिनों में कई रस्में बाजे-गाजे के साथ निभाई जाती हैं, जिनमें निहित आशय और मान्यताएं भी कम रोचक नहीं।
विवाह पूर्व मंगनी यानी सगाई की रस्म में कन्या को रुपए पकड़ाए जाते हैं। इसे पैसा धराना कहते हैं। लड़की को प्रेमपूर्वक पैसा पकड़ाने का आशय है कि, अब तुम हमारी हो। लड़की भी प्रेमपूर्वक पैसे पकड़ती है, इससे यह पता चलता है कि यह रिश्ता उसे स्वीकार है। वस्त्र, आभूषण व कलेवा लेकर कन्या का हाथ मांगने के लिए पहुंचा वर पक्ष का मुखिया कन्या को यह चीजें भेंट करता है। इस अवसर पर अंगूठी पहनाने की परंपरा भी प्रचलित है।
विवाह पूर्व मंगनी यानी सगाई की रस्म में कन्या को रुपए पकड़ाए जाते हैं। इसे पैसा धराना कहते हैं। लड़की को प्रेमपूर्वक पैसा पकड़ाने का आशय है कि, अब तुम हमारी हो। लड़की भी प्रेमपूर्वक पैसे पकड़ती है, इससे यह पता चलता है कि यह रिश्ता उसे स्वीकार है। वस्त्र, आभूषण व कलेवा लेकर कन्या का हाथ मांगने के लिए पहुंचा वर पक्ष का मुखिया कन्या को यह चीजें भेंट करता है। इस अवसर पर अंगूठी पहनाने की परंपरा भी प्रचलित है।
प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन
अन्य क्षेत्रों में जहां विवाह के समय घर के प्रवेश द्वार की साज-सज्जा पर विश्ोष ध्यान दिया जाता है। दरवाजे के आसपास ऐसी कोई चीज नहीं रहने दी जाती जिससे कि वहां की शोभा बिगड़े। वहीं ग्राम्य अंचल में विवाह कार्यक्रम में सर्वप्रथम जो कार्य होता है वह है प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन। घर के प्रवेश द्वार पर बांस के सहारे विचित्र कुरूप आकृतियां टांगी जाती है। यह आकृतियां अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं। कहीं सूखे काश या पैरा का पुतला बनाकर व पुराना कपड़ा पहनाकर टांगा जाता है, तो कहीं गोबर के पांच-सात कंडों के ऊपर प्याज रखकर टांगे जाते हैं। यह एक तरह से टोटका है, जिसके पीछे भाव यह है कि विवाह कार्यक्रम और उसमें शामिल होने वाले लोगों को किसी की नजर न लगे।
हरियाली भरी छांव में होती हैं रस्में
विवाह कार्यक्र म के पहले दिन मड़वा छाने अर्थात मंडपाच्छादन की रस्म होती है। मड़वा, हरीतिमा का प्रतीक है। इसे हरियर मड़वा भी कहते हैं। डूमर, चिरईजाम (जामुन), आम या महुआ की हरी-भरी डालियों से मड़वा का आच्छादन किया जाता है। इसकी शीतल छांव में विवाह की सभी रस्म संपन्न् होती हैं। शामियाना लगाने वाले लोग भी इन पेड़ों की कुछ डालियां जरूर लगाते हैं।
दूल्हा के बाद चूल्हा का महत्व
विवाह कार्यक्र म में दूल्हा, दुल्हन के बाद चूल्हा का बड़ा महत्व होता है।
मंडपाच्छादन के दिन ही चुलमाटी की रस्म होती है। दामाद या फूफा के साथ वर-वधु की मां, चाची या बड़ी मां देवस्थल या गांव के उस स्थल से सात टोकरी में मिट्टी लाते हैं, जहां कोई फसल न उगी हो, अर्थात-कुवांरी मिट्टी। पूजापाठ करके मिट्टी खुदाई का कार्य दामाद या फूफा करते हैं। मां, चाची या बड़ी मां उस मिट्टी को अपने आंचल में लेती हैं और सम्मानपूर्वक बाजे-गाजे के साथ घर लाकर उससे चूल्हा निर्मित करते हैं। इस नेंग का आशय है कि देवस्थल की मिट्टी से निर्मित चूल्हा का भोजन-पकवान आशीष से भरा हो। इसी दिन तेलमाटी की भी रस्म होती है। तेलमाटी भी चूलमाटी की तरह देवस्थल या गांव में निर्धारित स्थल से लाई जाती है। इस मिट्टी को म डवा के नीचे रखा जाता है, जिसके ऊपर मड़वाबांस व मंगरोहन स्थापित होता है। इस रस्म के पीछे मड़वास्थल पर देवताओं के वास का भाव है। इन रस्मों में मिट्टी की खुदाई के दौरान स्त्री-पुरुष रिश्तेदारों के बीच हंसी-मजाक के रूप में गीत गाया जाता है।
तोला माटी कोड़े ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन बहिनी ल तीर धीरे-धीरे।
तोला पर्रा बोहे ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन भाई ल तीर धीरे-धीरे।
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मंडपाच्छादन के दिन ही चुलमाटी की रस्म होती है। दामाद या फूफा के साथ वर-वधु की मां, चाची या बड़ी मां देवस्थल या गांव के उस स्थल से सात टोकरी में मिट्टी लाते हैं, जहां कोई फसल न उगी हो, अर्थात-कुवांरी मिट्टी। पूजापाठ करके मिट्टी खुदाई का कार्य दामाद या फूफा करते हैं। मां, चाची या बड़ी मां उस मिट्टी को अपने आंचल में लेती हैं और सम्मानपूर्वक बाजे-गाजे के साथ घर लाकर उससे चूल्हा निर्मित करते हैं। इस नेंग का आशय है कि देवस्थल की मिट्टी से निर्मित चूल्हा का भोजन-पकवान आशीष से भरा हो। इसी दिन तेलमाटी की भी रस्म होती है। तेलमाटी भी चूलमाटी की तरह देवस्थल या गांव में निर्धारित स्थल से लाई जाती है। इस मिट्टी को म डवा के नीचे रखा जाता है, जिसके ऊपर मड़वाबांस व मंगरोहन स्थापित होता है। इस रस्म के पीछे मड़वास्थल पर देवताओं के वास का भाव है। इन रस्मों में मिट्टी की खुदाई के दौरान स्त्री-पुरुष रिश्तेदारों के बीच हंसी-मजाक के रूप में गीत गाया जाता है।
तोला माटी कोड़े ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन बहिनी ल तीर धीरे-धीरे।
तोला पर्रा बोहे ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन भाई ल तीर धीरे-धीरे।
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लकड़ी से होती है लड़के-लड़की की शादी
प्राय: हर मड़वा में विवाह के पूर्व लड़के व लड़की की शादी 'लकड़ी" से कराई जाती है। जिसे मंगरोहन कहा जाता है। मंगरोहन मूलत: मंगलकाष्ठ है, जिसे डूमर या चार की लकड़ी से बनाया जाता है। फीटभर की लकड़ी को बैगा या बढ़ई के घर मंगरोहन का स्वरूप दिया जाता है। मंगरोहन निर्माण पश्चात बाजे-गाजे के साथ बैगा के घर से परघाकर मड़वास्थल तक लाया जाता है। यहांॅ छिंद की पत्ती का तेलमौरी बनाकर उसमें बांॅधते हैं तथा मड़वा के तले स्थापित करते हैं। सर्वप्रथम दुल्हा-दुल्हन की शादी मंगरोहन के साथ होती है, ताकि किसी प्रकार का अनिष्ट न हो।
हल्द्रालेपन का हक सिर्फ महिलाओं को
दूसरे दिन मायन और देवतला का नेंग होता है। इसमें देवी-देवताओं को तेल-हल्दी चढ़ाते हैं और शेष तेल-हल्दी को वर-वधु को चढ़ाते हैं, ताकि विवाह निर्विघ्न संपन्न् हो। खास बात यह है कि दुल्हा-दुल्हन को हरिद्रालेपन का अधिकार सिर्फ महिलाओं को है। महिलाएं ही वर-वधु को तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म निभाती है। इस दौरान हल्दी, कलशा और बांस के पर्रा को लेकर गीत गाने की परंपरा है।
एक तेल चढ़गे...
एक तेल चढ़गे ओ दाई हरियर-हरियर,
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुमलाय।
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एक तेल चढ़गे...
एक तेल चढ़गे ओ दाई हरियर-हरियर,
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुमलाय।
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हरदाही पर होती है हल्दी की होली
संध्याकाल 'हरदाही" खेलते हैं। होली में जैसे एक-दूसरे पर रंग-गुलाल लगाया जाता है, उसी तरह इसमें पीसी हुई कच्ची हल्दी एक-दूसरे पर लगाई जाती है। इस अवसर का महिलाएं खूब आनंद लेती हैं। इस दिन 'चिकट" का भी नेंग होता है। मामा पक्ष से वस्त्र, उपहार आदि वर-वधु के माता-पिता के लिए आता है, इसे भेंटकर हल्दी लगाते हैं। इसका उद्देश्य आपस में मधुरता बढ़ाने से है।
खाट पर होती है नहडोरी की रस्म
तीसरे दिन नहडोरी की रस्म में वर-वधु के लेपित हल्दी को धुलाने का कार्यक्र म होता है। वर-वधु को उनके घरों में खाट पर बिठाकर स्नान कराया जाता है, ताकि बारात व भांवर के लिए उन्हें सजाया-सवांरा जा सके। नहडोरी के बाद मौली धागा को घुमाकर वर-वधु के हाथों में आम पत्ता के साथ बांधते हैं। इसी को कंकन कहते हैं। तत्पश्चात मौर सौंपने की रस्म होती है। मौर का अर्थ होता है मुकुट, राजा-महाराजाओं का श्रृंगार तथा जिम्मेदारी का प्रतीक। मौर धारण कर दूल्हा, दूल्हा राजा बन जाता है। मौर सौंपने का आशय वर को भावी जीवन के लिए आशीष व उत्तरदायित्व प्रदान करना है। आंगन में चौक पूर कर पी ढा रखते हैं, वर को उस पर खड़ाकर या कुर्सी पर बिठाकर सर्वप्रथम मां पश्चात काकी, मामी, बड़ी बहनें व सुवासिन सहित सात महिलाएं मौर सौंपती हैं। इस पल का सुंदर गीत है-
पहिरव ओ दाई... पहिरव ओ दाई,
मोर सोन कइ कपड़ा, दाई सोन कइ कपड़ा,
सौंपंव ओ दाई मोर माथे के मटुक।
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पहिरव ओ दाई... पहिरव ओ दाई,
मोर सोन कइ कपड़ा, दाई सोन कइ कपड़ा,
सौंपंव ओ दाई मोर माथे के मटुक।
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बारात का मधुर क्षण 'भड़ौनी"
बारातियांे का वधु पक्ष की ओर से जोर शोर से स्वागत किया जाता है। दोनों पक्ष के समधियों का मिलन होता है, जिसे समधी भेंट कहते हैं। अनेक जातियों में बारात स्वागत के दौरान भड़ौनी गायन की परंपरा है। इसमें बारातियों का एक पक्ष तो कन्या पक्ष की महिलाओं का दूसरा पक्ष होती हंै। दोनों पक्ष हंसी-ठिठोली के रूप में एक-दूसरे को छेड़ते हुए गीत गाते हैं। इस अवसर एक लोकगीत है-
नदिया तिर के पटवा भाजी पटपट करथे रे,
आए हे बरतिया मन हा मटमट-मटमट करथे रे।
मटमट-मटमट करथस समधिन मारतहस ऊचाटा वो,
दुलहीन होगे दुल्हा के अब तैंहा मोरे बांटा वो।
---------धेनु गाय का आदर्श टिकावन
पाणिग्र हण की रस्म में वधू के पिता वर के हाथ में वधू का हाथ रखकर तथा उसमें आटे की लोई रखकर धागे से बांधते हैं। तत्पश्चात वर तथा वधू के पैर के अंगूठों को दूध से धोकर माथे पर चांवल का टीका लगाते हैं। यह विवाह की महत्वपूर्ण रस्म, जिसमें वर द्वारा वधू की ताउम्र जिम्मेदारी निभाने तथा वधू का समर्पण का भाव निहित है। इसके साथ ही टिकावन यानी दहेज देने की रस्म होती है। लोकगीतों में टिकावन का आशय स्पष्ट है।-
कोन तोला टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि कोना तोला टिकय धेनु गाय
दाई तोर टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि ददा तोर टिकय धेनु गाय
कोन तोला टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि कोना तोला टिकय धेनु गाय
दाई तोर टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि ददा तोर टिकय धेनु गाय
सात भांवर, सात वचन
अब होती है भांवर यानी फेरा की रस्म। भांवर महज परिक्रमा नहीं है, हर भांवर के साथ वधू को अपने बचपन के आंगन से बिछुड़ने का अहसास होता है और प्रत्येक भांवर अनजाने से नाता जुड़ने का बोध कराता है। भांवर के बाद मांग भरने की रस्म। सिंदूर सुहाग का प्रतीक है। मांग भरने के बाद वधु सुहागिन हो जाती है तथा पतिव्र त धर्म पालन के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है। इस रस्म में वर द्वारा वधु के मांग में सात बार बंदन या सिंदूर लगाया जाता है। वामांग में आने के पूर्व वधू वर से सात वचन मांगती है और वर सात वचन देता है।
जा बेटी अब मायके की सुध मत करना
विवाह में विदाई की अहम रस्म होती है। यह क्षण बहुत भावुकता भरा होता है। बाबुल यानी पिता के घर से अपने घर की ओर जाती है वधु। सभी प्रि यजन विदाई देते हैं। बचपन की सखियां, पिता का दुलार, मां की गोद, भाई के स्नेह, बहनों के प्यार से बने घर-आंगन को छोड़कर कन्या अब अपने नए घर की ओर चलती है। भीगी आंखों से अपनी लाडली को विदा करते स्वजनों की ओर की देखते अपरिचित की आंखें भी छलक जाती हैं। हाथ में धान भरकर पीछे की ओर उछालती बेटी मायके की कामना करती है। विदाई है नवसृजन के लिए पुनर्जन्म। इस अवसर के लिए भावुकता भरा यह गीत है-
जा दुलौरीन बेटी तैं मइके के सुध झन लमाबे।
सास ससुर के सेवा ल करबे मइके के सुध लमाबे।।
जा दुलौरीन बेटी तैं मइके के सुध झन लमाबे।
सास ससुर के सेवा ल करबे मइके के सुध लमाबे।।
वर के घर भी होता है टिकावन
वधू का ब्याह कर लाने के बाद वर के घर में भी टिकावन होता है। इससे पूर्व डोला परछन और कंकन मौर की रस्म होती है। जो मूलत: वर-वधु के संकोच को दूर करने का उपक्रम है। इसमें कन्या के घर से लाये लोचन पानी को एक परात में रखकर दूल्हा-दुल्हन का म डवा के पास एक-दूसरे का कंकन छु डवाया जाता है। फिर लोचन पानी में कौड़ी, सिक्का, मुंदरी, माला खेलाते हैं, जिसमें वर एक हाथ से तथा वधू दोनों हाथ से सिक्का को ढूंढते हैं। जो सिक्का पाता वह जीत जाता है।
कन्या के घर से निकलती है बारात
छत्तीसगढ़ में कई जाति समाजों में कन्या पक्ष वाले भी वर के घर बारात लेकर जाते हैं। इसे चौथिया बारात कहा जाता है। इस बारात के बाराती अधिकांश महिलाएं होती हैं। वर पक्ष के बाराती जहां कन्या को उसके मायके से ससुराल ले आते हैं, वहीं कन्या पक्ष की बाराती महिलाएं कन्या को दूल्हे के घर से वापस ले आती हैं। कुछ दिनों बाद गौना का नेंग होता है। इसमें दूल्हा, दुल्हन को लिवाने आता है। तब उसके साथ दुल्हन को विदा किया जाता है।
विवाह का प्रतिनिधि साज 'मोहरी"
छत्तीसगढ़ में विवाह का प्रतिनिधि साज है 'मोहरी।" शहनाई की तरह यह भी मुंह से फूंककर बजाया जाने वाला कठिन वाद्य है। 'मोहरी" का प्रभावी स्वर जहांॅ भाव-विभोर कर देता है, वहीं इसके साथी वाद्य 'निसान" नाचने के लिए विवश कर देता है। डफड़ा, टिमऊ और झुमका छत्तीसगढ़ के विवाह संगीत को और समृद्ध करते हैं।
- ललित दास मानिकपुरी
रायपुर (छत्तीसगढ़)
('कादम्बिनी" जुलाई 2012 के अंक में प्रकाशित)
('कादम्बिनी" जुलाई 2012 के अंक में प्रकाशित)
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