आजीवन जनता की सेवा करते रहे ज्योति बसु मृत्यु के बाद भी दीन-दुखियों, पीड़ित और बीमारजनों की सेवा करते रहेंगे। मानवता की अनंत सेवा की उनकी कामना ही है कि उन्होंने देहदान किया। धार्मिक, सामाजिक और सांसारिक कर्मकांडों के भयानक मकड़जाल से स्वयं को मुक्त कर इस महामानव ने ऐसी मिसाल रखी जो मिथ्या मान्यताओं के निरा
अंधकार में प्रकाशपुंज बनकर समाज का मार्गदर्शन करेगा। नि:संदेह देहदान एक
साहस भरा कदम है और भारत ऐसे लाखों साहसी व्यक्तित्वों से भरा पड़ा है।
अकेले पश्चिम बंगाल में ज्याति बसु जैसे नामचीन हस्तियों सहित लगभग सात लाख
लोगों ने देहदान किया है। छत्तीसगढ़ में भी कई देहदानी हुए हैं। किन्तु अब
भी समाज में बहुतेरे लोग देहदान के प्रति शंका-कुशंकाओं से मुक्त नहीं हो
पाए हैं।
व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत समाज में जीवात्मा की मुक्ति के नाम पर नाना प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं। कर्मकांडों का अपना महत्व हो सकता है किन्तु इसके बिना जीवात्मा की मुक्ति नहीं होगी, यह सोचना कितना सही है? अलग-अलग धर्म-संप्रदायों या जाति-समाजों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। यहां मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, लेकिन देह दान के संबंध में जब ऐसी अनेक मान्यताएं और शंकाएं आड़े आ रही हों तो इनका निवारण करने की आवश्यकता भी महसूस होती है। देहदान करने वाले का अंतिम क्रि या-कर्म उसके परिजनों द्वारा प्रचलित धार्मिक सामाजिक मान्यताओं के अनुसार नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका शव चिकित्सा विज्ञान छात्रों के व्यावहारिक अध्ययन के लिए रख लिया जाता है। धार्मिक मान्यताओं और संदेहों की बेड़ियों में जकड़ी मानसिकता के कारण लोग चिकित्सा जगत को बहुत आवश्यता होने के बाद भी देहदान के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। अलग-अलग धर्म-संप्रदायों व जाति-समाजों में अंतिम क्रि याकर्म की अलग-अलग रीति है। किसी का अग्नि संस्कार किया जाता है तो किसी को जमीन मे दफ्न किया जाता है। अग्नि संस्कार करने वाले यदि यह मानते हैं कि अग्नि संस्कार करने से ही जीवात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो क्या जो दफ्न किए जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिलती? और यदि दफ्न करने वालों की मान्यता के अनुसार दफनाने से ही मुक्ति मिलती है तो क्या अग्नि संस्कार में जल जाने वालों को मुक्ति नहीं मिलती? यदि दोनों विधि से अंतिम क्रि याकर्म करने पर मृतात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो मृतात्मा की मुक्ति का कोई तीसरा, चौथा या पांचवा उपाय भी हो सकता है। यह उपाय देहदान का क्यों नहीं ?
अंतिम क्रिया कर्म का प्रावधान या व्यवस्था तो सिर्फ मृत देह के निस्तार के लिए है। उसका निस्तार नहीं करने पर उसमें कीड़े लगेंगे, दुर्गंध आएगा और वातावरण प्रदूषित होगा। इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न् होंगी, बीमारियां फैलेंगी। इससे उन लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचेगी जो मृतक से भावनात्मक रूप से संबंध रखते हैं। इसलिए मृत देह का अंतिम क्रियाकर्म सम्मानजनक ढंग से कर दिया जाता है। सभ्य समाज में यह अच्छा भी नहीं लगेगा और न ही उचित होगा कि कोई मनुष्य का शव सड़ता-गलता प डा रहे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जीवात्मा जिस क्षण किसी शरीर का त्याग करता है वह उसी क्षण नया शरीर धारण कर लेता है। यदि यह जगत के पालनकर्ता की व्यवस्था है तो यह व्यवस्था मनुष्य के किसी जाति-समाज की बनाई व्यवस्था का मोहताज नहीं हो सकती। शरीर त्यागने के साथ ही जीवात्मा पुराने शरीर से मुक्त होकर नया शरीर को प्राप्त कर लेता है तो मृत्यु के बाद शरीर के साथ क्या किया जा रहा है, इससे उसका क्या लेना-देना? मृत्यु उपरांत मृतक का अंतिम संस्कार और अन्य कर्मकांड यदि इसलिए कराया जाता है कि वह जरा-मरण के चक्र से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाए तो मेरा मानना है कि किसी जीवात्मा को जरा-मरण के चक्र से मुक्ति उसके धर्म-कर्म और पुण्य या नेक कार्यों की वजह से मिल सकती है, इसलिए नहीं कि उसके मृत शरीर का अंतिम संस्कार या अन्य क्रि याकर्म उसके परिजनों ने अपने सामाजिक-धार्मिक नियमों से किया। वनों की सुरक्षा में तैनात किसी सेवक को शेर खा जाए तो उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा? उसे जमीन में दफनाया जाएगा या आग में जलाया जाएगा? जाहिर है कि उसका इन तरीकों से अंतिम संस्कार किया ही नहीं जा सकता। किन्तु अपना कर्तव्य निभाते मृत्यु को प्राप्त हुए उस सेवक को वह मुक्ति पाने का अधिकार तो है, जिस मुक्ति के संबंध में लोग मृतक का अंंतिम क्रि या-कर्म उसके धर्म, समुदाय और जाति-समाज की परंपरा के अनुसार आवश्यक मानते हैं।
कर्मकांड परिजनों की संतुष्टि के लिए होते हैं मृतक की आत्मा की मुक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। जीवात्मा की मुक्ति के लिए यह कर्मकांड आवश्यक हांे तब भी शव को जलाए या दफनाए बिना भी तो यह किए जा सकते हैं। जिस तरह शेर का आहार बनने वाले व्यक्ति के लिए उसके परिजन करते। संत कबीर के संबंध में कहा जाता है कि उनका अंतिम संस्कार उनके शव के बिना ही करना प डा था। मगहर में उनके प्राण त्यागने के बाद उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने ढंग से करने के लिए युद्ध पर उतारू हुए उनके हिन्दू-मुस्लिम अनुयायियों को सत्य का बोध कराते हुए संत कबीर ने अपनी मृत काया को फूलों में परिवर्तित कर दिया। उन फूलों को बांटकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई। इस तरह भी शव पर चढ़े फूलों से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई जा सकती है।
मुक्ति का सहज उपाय है त्याग। हम किसी चीज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो उसका त्याग कर दें। जीवात्मा की मुक्ति में देह की दशा बाधक नहीं हो सकती। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए पहले भी अनेक महामानवों ने देह दान किया है। महर्षि दधिचि ने अपने देह का दान किया। उनकी अस्थियों का वज्र बनाकर संसार के प्राणियों के लिए संकट बने आसुरी शक्तियों का संहार किया गया।
आज तरह-तरह की बीमारियां मानव समाज के लिए चुनौती बन रही है। हिन्दू-मुस्लिम, गरीब-अमीर सभी वर्ग के लोग इसके शिकार बन रहे हैं। वहीं इन चुनौतियों से निपटने का वास्तविक भार जिनके कांधे पर है, वे चिकित्सक और चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों को व्यावहारिक अध्ययन के लिए मानव शरीर की कमी से जूझना प ड रहा है। ऐसी स्थिति में देहदान कर न केवल चिकित्सा छात्रों के ज्ञानार्जन का माध्यम बन सकते हैं बल्कि, उनके माध्यम से मरने के बाद भी पि डत मानवता के सेवा करते रह सकते हैं। इससे दुआएं ही मिलेंगी जो मरने वाले को ही नहीं उसके सकल कुल परिवार को भी तार देंगी। समाज में ऐसे मानने वालों की भी कमी नहीं है कि मरने वाले का रीतिपूर्वक अंतिम संस्कार नहीं किया गया तो वह भूत या पिशाच बन जाएगा। कहा जाता है कि दान से ब डे से ब डा संकट टल जाता है। संसार के हित में अपने देह का दान करने वाले को यह संकट आ ही नहीं सकता। फिर भी देहदान कर कोई पिशाच बन सकता है तो आज ऐसे ही भूत-पिशाचों की जरूरत है जो मानव समाज के कल्याण के काम आएं। मरकर मिट्टी या राख होने से बेहतर ही होगा कि हम ऐसे पिशाच बन जाएंॅ। मैंने भी तय किया था कि देहदान करूंगा, अब यह सचमुच करने जा रहा हूंॅ। मन में जारी विचारों का अंतरद्वंद खत्म हो चुका है और अंतस की चेतना से शंकाओं का स्वमेय समाधान हो चुका है।
ललित मानिकपुरी, संपादकीय विभाग
नईदुनिया प्रेस रायपुर, मो.9752111088
व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत समाज में जीवात्मा की मुक्ति के नाम पर नाना प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं। कर्मकांडों का अपना महत्व हो सकता है किन्तु इसके बिना जीवात्मा की मुक्ति नहीं होगी, यह सोचना कितना सही है? अलग-अलग धर्म-संप्रदायों या जाति-समाजों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। यहां मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, लेकिन देह दान के संबंध में जब ऐसी अनेक मान्यताएं और शंकाएं आड़े आ रही हों तो इनका निवारण करने की आवश्यकता भी महसूस होती है। देहदान करने वाले का अंतिम क्रि या-कर्म उसके परिजनों द्वारा प्रचलित धार्मिक सामाजिक मान्यताओं के अनुसार नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका शव चिकित्सा विज्ञान छात्रों के व्यावहारिक अध्ययन के लिए रख लिया जाता है। धार्मिक मान्यताओं और संदेहों की बेड़ियों में जकड़ी मानसिकता के कारण लोग चिकित्सा जगत को बहुत आवश्यता होने के बाद भी देहदान के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। अलग-अलग धर्म-संप्रदायों व जाति-समाजों में अंतिम क्रि याकर्म की अलग-अलग रीति है। किसी का अग्नि संस्कार किया जाता है तो किसी को जमीन मे दफ्न किया जाता है। अग्नि संस्कार करने वाले यदि यह मानते हैं कि अग्नि संस्कार करने से ही जीवात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो क्या जो दफ्न किए जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिलती? और यदि दफ्न करने वालों की मान्यता के अनुसार दफनाने से ही मुक्ति मिलती है तो क्या अग्नि संस्कार में जल जाने वालों को मुक्ति नहीं मिलती? यदि दोनों विधि से अंतिम क्रि याकर्म करने पर मृतात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो मृतात्मा की मुक्ति का कोई तीसरा, चौथा या पांचवा उपाय भी हो सकता है। यह उपाय देहदान का क्यों नहीं ?
अंतिम क्रिया कर्म का प्रावधान या व्यवस्था तो सिर्फ मृत देह के निस्तार के लिए है। उसका निस्तार नहीं करने पर उसमें कीड़े लगेंगे, दुर्गंध आएगा और वातावरण प्रदूषित होगा। इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न् होंगी, बीमारियां फैलेंगी। इससे उन लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचेगी जो मृतक से भावनात्मक रूप से संबंध रखते हैं। इसलिए मृत देह का अंतिम क्रियाकर्म सम्मानजनक ढंग से कर दिया जाता है। सभ्य समाज में यह अच्छा भी नहीं लगेगा और न ही उचित होगा कि कोई मनुष्य का शव सड़ता-गलता प डा रहे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जीवात्मा जिस क्षण किसी शरीर का त्याग करता है वह उसी क्षण नया शरीर धारण कर लेता है। यदि यह जगत के पालनकर्ता की व्यवस्था है तो यह व्यवस्था मनुष्य के किसी जाति-समाज की बनाई व्यवस्था का मोहताज नहीं हो सकती। शरीर त्यागने के साथ ही जीवात्मा पुराने शरीर से मुक्त होकर नया शरीर को प्राप्त कर लेता है तो मृत्यु के बाद शरीर के साथ क्या किया जा रहा है, इससे उसका क्या लेना-देना? मृत्यु उपरांत मृतक का अंतिम संस्कार और अन्य कर्मकांड यदि इसलिए कराया जाता है कि वह जरा-मरण के चक्र से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाए तो मेरा मानना है कि किसी जीवात्मा को जरा-मरण के चक्र से मुक्ति उसके धर्म-कर्म और पुण्य या नेक कार्यों की वजह से मिल सकती है, इसलिए नहीं कि उसके मृत शरीर का अंतिम संस्कार या अन्य क्रि याकर्म उसके परिजनों ने अपने सामाजिक-धार्मिक नियमों से किया। वनों की सुरक्षा में तैनात किसी सेवक को शेर खा जाए तो उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा? उसे जमीन में दफनाया जाएगा या आग में जलाया जाएगा? जाहिर है कि उसका इन तरीकों से अंतिम संस्कार किया ही नहीं जा सकता। किन्तु अपना कर्तव्य निभाते मृत्यु को प्राप्त हुए उस सेवक को वह मुक्ति पाने का अधिकार तो है, जिस मुक्ति के संबंध में लोग मृतक का अंंतिम क्रि या-कर्म उसके धर्म, समुदाय और जाति-समाज की परंपरा के अनुसार आवश्यक मानते हैं।
कर्मकांड परिजनों की संतुष्टि के लिए होते हैं मृतक की आत्मा की मुक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। जीवात्मा की मुक्ति के लिए यह कर्मकांड आवश्यक हांे तब भी शव को जलाए या दफनाए बिना भी तो यह किए जा सकते हैं। जिस तरह शेर का आहार बनने वाले व्यक्ति के लिए उसके परिजन करते। संत कबीर के संबंध में कहा जाता है कि उनका अंतिम संस्कार उनके शव के बिना ही करना प डा था। मगहर में उनके प्राण त्यागने के बाद उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने ढंग से करने के लिए युद्ध पर उतारू हुए उनके हिन्दू-मुस्लिम अनुयायियों को सत्य का बोध कराते हुए संत कबीर ने अपनी मृत काया को फूलों में परिवर्तित कर दिया। उन फूलों को बांटकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई। इस तरह भी शव पर चढ़े फूलों से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई जा सकती है।
मुक्ति का सहज उपाय है त्याग। हम किसी चीज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो उसका त्याग कर दें। जीवात्मा की मुक्ति में देह की दशा बाधक नहीं हो सकती। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए पहले भी अनेक महामानवों ने देह दान किया है। महर्षि दधिचि ने अपने देह का दान किया। उनकी अस्थियों का वज्र बनाकर संसार के प्राणियों के लिए संकट बने आसुरी शक्तियों का संहार किया गया।
आज तरह-तरह की बीमारियां मानव समाज के लिए चुनौती बन रही है। हिन्दू-मुस्लिम, गरीब-अमीर सभी वर्ग के लोग इसके शिकार बन रहे हैं। वहीं इन चुनौतियों से निपटने का वास्तविक भार जिनके कांधे पर है, वे चिकित्सक और चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों को व्यावहारिक अध्ययन के लिए मानव शरीर की कमी से जूझना प ड रहा है। ऐसी स्थिति में देहदान कर न केवल चिकित्सा छात्रों के ज्ञानार्जन का माध्यम बन सकते हैं बल्कि, उनके माध्यम से मरने के बाद भी पि डत मानवता के सेवा करते रह सकते हैं। इससे दुआएं ही मिलेंगी जो मरने वाले को ही नहीं उसके सकल कुल परिवार को भी तार देंगी। समाज में ऐसे मानने वालों की भी कमी नहीं है कि मरने वाले का रीतिपूर्वक अंतिम संस्कार नहीं किया गया तो वह भूत या पिशाच बन जाएगा। कहा जाता है कि दान से ब डे से ब डा संकट टल जाता है। संसार के हित में अपने देह का दान करने वाले को यह संकट आ ही नहीं सकता। फिर भी देहदान कर कोई पिशाच बन सकता है तो आज ऐसे ही भूत-पिशाचों की जरूरत है जो मानव समाज के कल्याण के काम आएं। मरकर मिट्टी या राख होने से बेहतर ही होगा कि हम ऐसे पिशाच बन जाएंॅ। मैंने भी तय किया था कि देहदान करूंगा, अब यह सचमुच करने जा रहा हूंॅ। मन में जारी विचारों का अंतरद्वंद खत्म हो चुका है और अंतस की चेतना से शंकाओं का स्वमेय समाधान हो चुका है।
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