अस्तांचल की ओर बढ़ते सूर्य की किरणें महानदी की सुनहरी रेत पर चमक रही थीं। मैं और दो मेरे मित्र नदी के मध्य दो पुलों के बीच खड़े थे। पंछियों का विशाल झुंड हमारे ऊपर आसमान में अटखेलियाँ कर रहा था। हजारों परिंदे करीब सौ मीटर के दायरे में उड़ते हुए हवा में गोते लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था वो मस्ती में डूबे हुए हैं और सब मिलकर कोई नृत्य कर रहे हैं, और नृत्य करते-करते आसमानी कैनवास पर चित्रकारी कर रहे हैं, अपनी उड़ान से अकल्पनीय आकृतियाँ बना रहे हैं। उनकी चहचहाट कानों में संगीत घोल रही थी।
वहीं दूसरी ओर महानदी की धारा में दो बच्चे गोता लगा रहे थे। ऐसा लगा कि वे मछली पकड़ रहे हैं। हमने उनके पास जाकर पूछा, "कितनी मछली पकड़े हो, दिखाओ।"
उन्होंने कहा "हम मछली नहीं पकड़ रहे हैं।" हमने पूछा "तो क्या कर रहे हो, नहा रहे हो?"
बहुत पूछने पर एक बच्चे ने कहा, "हम 'पैसे' ढूंढ रहे हैं।"
बच्चे का जवाब हैरान करने वाला था। हमने फिर पूछा "पैसा! क्या पैसा पानी में बह के आता है या यहां नहाने वाले पैसा डाल जाते हैं?"
"नहीं" दोनों बच्चों ने जवाब दिया। उन्होंने कहा, "पुल से पार होते समय यात्री नदी में पैसे फेंकते हैं। हम उन्हीं पैसों को ढूँढ़ते हैं।"
बात करते-करते भी बच्चे पानी में गोते लगाकर पैसा ढूँढने के प्रयास में लगे रहे। अब सूर्यास्त होने ही वाला था। दोनों बच्चे नदी की धारा से बाहर निकले।
हमने पूछा "कितने पैसे मिले?" एक ने बताया तेरह रुपए और दूसरे ने कहा पांच।
पूछने पर बच्चों ने बताया कि वे दोपहर 2 बजे से नदी में पैसे ढूँढ रहे थे। सड़क पुल फिर रेलवे पुल के नीचे करीब 4 घंटे गोता लगाने के बाद उन्हें इतने रुपए मिले थे। उन्होंने बताया कि रोज इतने रुपए नहीं मिलते, कभी 5-7 रुपए तो कभी एक सिक्का भी नहीं मिलता।
हमने इन बच्चों के फोटो और वीडियो भी बनाए थे। वे विनम्रता से कहने लगे, " सर वाट्सएप में न डालिएगा, घर वालों को पता चल गया तो डाँट पड़ेगी।"
"क्यों स्कूल नहीं जाते इसलिए? हमारे इस सवाल पर बच्चों ने जो सच्चाई बताई उसे भी जान लीजिए।
एक बच्चा जो करीब 15 साल का था, बताया कि "आठवी के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई। मम्मी-पापा पत्थर खदान में मजदूरी करते थे। अब मम्मी बहुत बीमार है। उनके पैर की नस चिपक गई है। तीन-चार दिनों से उसे बहुत तेज बुखार भी है। उसे खरियाररोड एक बैगा के पास भी ले गए थे। कोई आराम नहीं मिला। पापा की कमाई कम है। मम्मी की गोली-पानी के लिए कुछ पैसे जुटा सकूँ यही सोचकर नदी में पैसा ढूँढने आया था। इससे पहले गाँव के ही एक हॉटल में काम करता था, लेकिन मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो छोड़ दिया।"
दूसरा बच्चा जो महज 13 साल का था, उन्होंने बताया, "पापा नहीं हैं, उनकी मृत्यु हो चुकी है। मम्मी पत्थर खदान में मजदूरी करती हैं। पैसे की हमेशा तंगी रहती है। सुबह स्कूल जाता हूँ और छुट्टी के बाद नदी में पैसा ढूँढने आता हूँ, लेकिन रोज नहीं। रोज पैसा मिलता भी नहीं।"
सिक्कों की आस में ये बच्चे घंटों पानी में रहते हैं। धारा के नीचे आँखें खुली रखकर, साँसों को जितनी अधिक देर रोक सकते हैं उतनी देर तक रोके रखकर सिक्कों की तरह चमकती चीजों को टटोलते हैं। इस तरह लगातार मशक्कत के बाद कुछ सिक्के हाथ आ जाते हैं।
ये बच्चे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कोई 40 किमी दूर महासमुंद जिले की सीमा पर स्थित ग्राम घोड़ारी के हैं।
महानदी के तट पर घोड़ारी जैसे कई गाँव हैं, जहाँ नदी ने मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं के लिए बहुत उदारता के साथ जीवन-साधन और अनुकूल वातावरण दिया है।
नदी के पुराने सड़क पुल के नीचे की ओर मिट्टी के आकर्षक और सुरक्षित घरौंदे बनाकर जिस तरह परिंदे भरपूर आनंद से अपनी जिंदगी जी रहे हैं, इन गाँवों के वासिंदे भी जी सकते हैं।
यहाँ की खदानों से करोड़ों रुपए के फर्शी पत्थर का उत्खनन होता है। नदी से रेत भी निकाली जाती है। शासन के खजाने में करोड़ों का राजस्व जाता है, लेकिन यहाँ के मूल निवासियों का जीवन कमोबेश वैसा ही है, जैसा कि उन बच्चों ने बताया।
हमारे प्रदेश को प्रकृति ने भरपूर नेमतें बख्शी है और निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ ने तेजी से विकास किया है, यह नजर भी आता है, लेकिन उस पहलू को भी देखने की जरूरत है, जो आसानी से नज़र नहीं आता या नजरअंदाज कर दिया जाता है।
नारों और जुमलों के शोर के साथ योजनाओं की तमाम गाड़ियाँ चलती हैं, किन्तु आम आदमी के सिर से उसी तरह गुजर जाती हैं, जिस तरह नदी ऊपर के पुल से गाड़ियाँ। उनसे कुछ फेंक भी दिए जाते हैं तो उसे पाने के लिए आम आदमी को वैसी ही जद्दोजहद करनी पड़ती है, जैसे इन बच्चों की दास्तां में प्रकाशित हुआ।
- ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छग)
9752111088
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