शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

20 दिसंबर की महत्वपूर्ण घटनाएं



महात्मा गांधी का प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन 


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की छत्तीसगढ़ की प्रथम यात्रा 20 दिसंबर 1920 को हुई थी, जिसमें वे पंडित सुंदरलाल शर्मा के साथ रायपुर आए थे। धमतरी के कण्डेल सत्याग्रह (नहर सत्याग्रह) के लिए आए गांधीजी ने इस यात्रा के दौरान रायपुर में सभाएं कीं और लोगों को असहयोग आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, जिससे पूरे अंचल में स्वतंत्रता की अलख जगी। रायपुर स्टेशन पर आगमन के बाद, उन्होंने आज के गांधी चौक पर सभा की तथा रायपुर के आनंद वाचनालय (ब्राह्मणपारा) में महिलाओं को संबोधित किया, जहाँ महिलाओं ने उन्हें तिलक स्वराज फंड के लिए अपने गहने भेंट किए।


रॉबर्ट क्लाइव बंगाल के पहले गवर्नर नियुक्त 


1757 ई. में प्लासी के युद्ध में विजय के पश्चात रॉबर्ट क्लाइव को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल का पहला गवर्नर नियुक्त किया गया। यद्यपि उस समय औपचारिक प्रशासन नवाब के नाम पर चलता रहा, परंतु वास्तविक सत्ता कंपनी और क्लाइव के हाथों में केंद्रित हो गई। रॉबर्ट क्लाइव की भूमिका ने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की संस्थागत नींव रखी, जिसके कारण क्लाइव को भारत में ब्रिटिश सत्ता का संस्थापक माना जाता है।


• 61वाँ संविधान संशोधन से मताधिकार की आयु 18 वर्ष 


भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया में युवाओं को अधिक व्यापक भागीदारी का अवसर देने के उद्देश्य से 61वें संविधान संशोधन द्वारा लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों में मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई। यह परिवर्तन अनुच्छेद 326 में संशोधन के माध्यम से किया गया। संसद द्वारा यह संविधान संशोधन अधिनियम 20 दिसंबर 1988 को पारित हुआ और 28 मार्च 1989 को प्रभावी हुआ। 


अंतरराष्ट्रीय मानव एकता दिवस


अंतरराष्ट्रीय मानव एकता दिवस प्रतिवर्ष 20 दिसंबर को मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2005 में इसे घोषित किया, जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर मानव एकता, समानता और साझा उत्तरदायित्व की भावना को सुदृढ़ करना है। इसका उद्देश्य गरीबी उन्मूलन, सामाजिक न्याय और सतत विकास हेतु अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना है।


एडोल्फ हिटलर की रिहाई 


20 दिसंबर 1924 को, एडोल्फ हिटलर को 1923 के असफल बीयर हॉल पुट्स (तख्तापलट) के लिए राजद्रोह के मामले में नौ महीने की कैद के बाद लैंड्सबर्ग जेल से रिहा कर दिया गया था। जेल में रहते हुए उसने अपनी पुस्तक 'Mein Kampf' लिखना शुरू किया। रिहाई के बाद, उसने नाजी पार्टी को पुनर्गठित किया और 1933 में चांसलर बनने का मार्ग प्रशस्त किया।


भारतीय गोल्फ संघ की स्थापना 


Indian Golf Union (IGU) की स्थापना 20 दिसंबर 1955 को की गई थी। यह भारत में गोल्फ का सर्वोच्च राष्ट्रीय शासी निकाय है, जो नई दिल्ली में स्थित है। यह 194 से अधिक क्लबों के साथ देश में गोल्फ के विकास, अखिल भारतीय एमेच्योर/जूनियर टूर्नामेंटों के आयोजन, और अंतरराष्ट्रीय टीमों (एशियाई खेल) के चयन व प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार है। 


(विभिन्न स्रोतों पर आधारित)




शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

इतिहास : 13 दिसम्बर की महत्वपूर्ण घटनाएं

 


 • भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला (2001)


13 दिसम्बर 2001 को जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े पाँच आतंकवादियों ने भारतीय संसद पर हमला किया। सुरक्षाबलों की जवाबी कार्रवाई में सभी आतंकी मार गिराए गए। इस घटना में दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ और संसद सुरक्षा के 9 कर्मियों सहित कुल 9-10 व्यक्तियों ने प्राण गंवाए। यह घटना भारत-पाक तनाव के चरम “ऑपरेशन पराक्रम” का कारण बनी।


डॉ. शरद कुमार दीक्षित का जन्म (1930)


13 दिसम्बर 1930 को पंढरपुर (महाराष्ट्र) में जन्मे डॉ. शरद कुमार दीक्षित अमेरिकी प्लास्टिक सर्जन और “द इंडिया प्रोजेक्ट” के संस्थापक थे। उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर रोगियों के लिए निःशुल्क प्लास्टिक सर्जरी सेवाएँ प्रदान कीं। मानव सेवा के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।


उपन्यासकार इलाचन्द्र जोशी का जन्म (1903)


प्रसिद्ध हिंदी मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार और समीक्षक इलाचन्द्र जोशी का जन्म 13 दिसम्बर 1903 को अल्मोड़ा में हुआ। ‘संन्यासी’, ‘परदे की रानी’ और ‘मुक्तिपथ’ जैसे उपन्यास उनके मनोविश्लेषणात्मक लेखन की प्रमुख कृतियाँ हैं। उनके जन्म वर्ष को लेकर कुछ स्रोतों में 1902–1903 का अंतर मिलता है, तथापि 13 दिसम्बर तिथि व्यापक रूप से स्वीकृत है।


अलबेरूनी का निधन (1048)


फ़ारसी विद्वान अल-बीरूनी (अलबेरूनी) का निधन 13 दिसम्बर 1048 को हुआ। वे विज्ञान, गणित, संस्कृत, भूगोल और तुलनात्मक संस्कृति-अध्ययन के अग्रणी माने जाते हैं। उनकी कृति “किताब-अल-हिंद” मध्यकालीन भारत का सबसे विस्तृत और विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत करती है।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन प्रारंभ (1890)


13 दिसम्बर 1890 को कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन शुरू हुआ, जिसमें फ़िरोज़शाह मेहता अध्यक्ष बने। यह अधिवेशन ब्रिटिश भारतीय शासन में संविधानिक सुधारों और नागरिक अधिकारों की दिशा में महत्वपूर्ण था।


संविधान सभा में उद्देशिका (Preamble) का प्रारूप स्वीकार (1946)


13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देशिका (Objectives Resolution) पेश की, जिसने स्वतंत्र भारत के संविधान की आधारभूत भावना और मूल्यों को निर्धारित किया। यही प्रस्ताव आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना (Preamble) का आधार बना।


भारतीय नौसेना के पोत आईएनएस खुंखर को कमीशन (1989)


13 दिसम्बर 1989 को भारतीय नौसेना का गाइडेड मिसाइल विध्वंसक आईएनएस खुंखर (INS Khukri-2) सेवा में शामिल हुआ। यह “खुखरी वर्ग” का पहला युद्धपोत था, जिसने भारतीय नौसैनिक क्षमता को सुदृढ़ किया।


- ललित मानिकपुरी, छत्तीसगढ़ 



बुधवार, 10 दिसंबर 2025

इतिहास : 10 दिसंबर की महत्वपूर्ण घटनाएं...

शहीद वीर नारायण सिंह


शहीद वीर नारायण सिंह बलिदान दिवस 


1857 के स्वातंत्र्य समर में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए अपना बलिदान देने वाले अमर क्रांतिकारी वीर नारायण सिंह का नाम छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद के रूप में प्रतिष्ठित है। वे सोनाखान के जमींदार थे। उन्होंने 1856–57 के अकाल के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षण में पनपी अनाज जमाखोरी और औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। 10 दिसम्बर 1857 को उन्हें रायपुर के जय स्तम्भ चौक पर फाँसी दे दी गयी।


विश्व मानवाधिकार दिवस


'संयुक्त राष्ट्र संघ' की महासभा ने 10 दिसम्बर, 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को अधिकारिक मान्यता प्रदान की थी। तब से प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। सामान्य शब्दों में 'मानवाधिकार' किसी भी इंसान की ज़िंदगी, आज़ादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है। 


अमर्त्य सेन को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार 


भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को 1998 में अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार उन्हें कल्याणकारी अर्थशास्त्र, सामाजिक विकल्प सिद्धांत और विकास अर्थशास्त्र में योगदान के लिए मिला था। वे अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय बने।


मैरी क्यूरी, पियरे क्यूरी को हेनरी बेकरेल के साथ नोबेल पुरस्कार 


1903 में आज के दिन पोलैंड-जन्मी फ्रांसीसी वैज्ञानिक मैरी क्यूरी और उनके पति पियरे क्यूरी को फ्रांसीसी वैज्ञानिक हेनरी बेकरेल के साथ रेडियोधर्मिता के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व शोध के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। मैरी क्यूरी नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला बनीं और दो अलग-अलग विज्ञान क्षेत्रों (भौतिकी और रसायन) में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली एकमात्र वैज्ञानिक। 


- ललित मानिकपुरी, छत्तीसगढ़ 





शनिवार, 6 सितंबर 2025

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर (छत्तीसगढ़ी कहानी)

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर  (छत्तीसगढ़ी कहानी)

"खी खी खी... हूॅंप  हूॅंप..." अइसे अपन भाखा में मंकू बेंदरा के माँ हा मंकू बेंदरा ला किहिस कि - "चल बेटा उतर, चल-चल, हवा बहुत जोर से चलत हे। मौसम बिगड़त हे, कहूँ बने ठउर में जाबो!" 

फेर उतलइन मंकू बेंदरा हा पेड़ के अउ ठीलिंग में चढ़गे। हवा सनसनावत राहय। डंगाली एती ओती लहसत राहय। तेमा ओरम के मंकू हा झूले के मज़ा लेवत राहय। 

मंकू के माँ हा ओला धर के तीरे बर ऊपर डाहर चढ़े लगिस, तभे हवा अचानक जोर के आँधी बनगे। डारा रटाक ले टूट गे। आँधी में मंकू बेंदरा हा डारा सुद्धा नदिया डाहर फेंकागे। 

नदिया में मंगर हा मुँहूँ फारे ताकत राहय। ओहा बड़ दिन के जोंगत रिहिस कि, "एको दिन एको झन बेंदरा कहूँ गिर जतिस ते बढ़िया पार्टी मनातेंव!"

ओहा मने मन सोचय कि, "ये बेंदरा मन अतेक मीठ-मीठ जामुन खाथें त ऊॅंकर माॅंस में कतका सुवाद होही, अउ करेजा कतका सुहाही!" बेंदरा मन ला देख के ओकर लार टपक जाय। फेर अपन ये इच्छा ला मन में लुकाय ऊपरछवा ऊॅंकर हितवा-मितवा बने राहय। 

आज मंकू बेंदरा ला नदिया में गिरत देख के मंगर हा लपक गे। मंटू ला खाए बर अपन मुँहूँ ला जबर फार डरिस। लेकिन ऊपर ले गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा ओला देख डरिस। खतरा के अंदाजा होगे। पल भर में सोच डरिस कि कइसे बाँचे जाय। 

गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा मंगर के मुँहूँ में डारा ला ख़ब ले खोंस दिस। जामुन के डारा हा मंगर के टोटा के भीतरी के जावत ले अरझ गे। डारा के दूसर छोर ला कस के धरे मंकू बेंदरा हा मंगर के पीठ में गोड़ फाॅंस के‌ बइठ गे।‌ 

पीरा के मारे मंगर छटपटाय लगिस।‌‌ टोटा के भीतर के जात ले खुसेरे डारा ला उलगे के उदिम करय, फेर उलग नइ पाय। 

ओहा मंकू बेंदरा ला अपन पीठ ले गिराए के भारी उदिम करिस, फेर मंकू तो डारा ला कस के धरे राहय, अउ अपन दूनो पाँव ले घलो कस के फाॅंसे राहय। 

मंगर के‌ बड़ ताकत रिहिस। मंकू जानत रिहिस कि एक कनिक भी चूक होइस ते जीव नइ बाॅंचय। ओ पूरा सवचेत रिहिस। 

मंगर हा मंकू ला बुड़ोय बर गहिर पानी में उतरे लगिस। मंकू अकबकागे।‌ 

तभे मंकू‌ ला अपन माॅं के गोठ सुरता आगे कि, "मंगर मन हा पानी के भीतर में घलो बड़ बेरा ले साॅंस थाम के रहि जथें। लेकिन ऊॅंकर ऊपर जब अलहन बिपत आथे तब धुकधुकी में ओकर साँस तेज हो जथे। तब साँस लेबर ऊपर डाहर आए ला परथे!"

ये बात के सुरता करत मंकू बेंदरा हा मंगर के टोटा में फॅंसे डारा ला हलाय लगिस। मंगर हा पीरा में बायबिकल होगे। साँस लेबर ऊपर डाहर आइस, तब मंकू घलो साँस ले पाइस।‌ 

बड़ बेरा ले ऊंकर दूनों के बीच लड़ई चलत रिहिस। दूनों लस्त पर गें। मंगर ला घलो जानब होइस कि मोरो जीव छूट सकत हे। अइसे में समझौता करना ठीक रही। ओहा मंकू के हाथ-पाँव जोड़े लगिस। किहिस- "मोला माफी दे भाई, मोला छोड़ दे।"

मंकू किहिस - "तब तैं मोला मोर ठउर तक अमरा दे।"

मंगर हा चुपचाप ओला ओकर ठउर में लान दिस। मंकू हा मंगर के मुँहूँ ले डारा ला सूर्रत चप ले कूद के पेड़ में चढ़ गे। 

पेड़ के ऊपर ले मंगर ला किहिस - "तोर मुँहूँ में डारा ला अपन जीव बचाय बर खोंसे रहेंव संगी, तोर जीव लेना मोर मकसद नइ रिहिस। हमन तो तोला मया करत रोज मीठ-मीठ जामुन खवावन। अउ तैं हमर संग कपट करे।"

मोर माँ तो मोला पहिली ले मोला चेताय रिहिस कि - "बेटा काकरो संग बैर मत करबे, फेर काकरो ऊपर आँखी मूँद के भरोसा घलो झन करबे। मोर माँ मोला यहू सिखाय रिहिस कि, बिपत के बेरा घबराबे झन, हिम्मत देखाबे। आज मोर माँ के सीख मोला बचा लिस।" 

अइसे काहत मंकू अपन माँ ला पोटार लिस। अब आँधी थम गे रिहिस। 

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद 


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बुधवार, 3 सितंबर 2025

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

 

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

"चींव-चींव...चींव-चींव..." अइसे आरो देवत माई चिरई हा अपन पिला चिरई ला रहि-रहि के बलावत राहय। "आ न बेटा आ! आ उड़! उड़-उड़!" 

फेर पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा ले टस-ले-मस नइ होय। उड़ियाय बर अपन गोड़ ला उसाले ला धरय, त डर के मारे काँप जाय, अउ फेर मुरझुरा के बइठ जाय। 

ओकर मन में भारी डर हमा गे रिहिस। सोचय कि, "मैं कहूँ उड़ियाहूँ, त‌ खाल्हे डाहर खाई में गिर जहूँ, अउ नदिया में बोहा जहूँ। 

इही सोच-सोच के ओ पिला चिरई हा उड़ियाबे नइ करे। खोलखा ले मुड़ी निकाल के खाल्हे डाहर देखे के तको ओकर हिम्मत नइ होय। 

भलुक ओकर छोटे भाई-बहिनी मन नदिया के ओ पार दूसर खॅंड़ में मस्त खावत खेलत राहॅंय। दाई-ददा मन घलो अपन काम बुता में लगे राहॅंय। 

काम बुता करत-करत माई चिरई हा ओ पहाड़ के खोलखा डाहर देखय अउ "आ बेटा आ" कहिके आरो लगावय। 

तीन दिन पहिली सिर्फ वो पिला चिरई के छोड़ चिरई मन के पूरा परिवार हा पहाड़ के खोलखा ला छोड़ के उड़ियावत नदिया के दूसर खॅंड़ में आ गे राहॅंय। काबर कि, अब पहाड़ के खोलखा के जरूरत नइ रहि गे रिहिस। माई चिरई हा सुरक्षित ठउर में अंडा दे बर पहाड़ के वो ऊॅंच खोलखा ला चुने रिहिस। उन्हें अपन खोंधरा बनाए रिहिस।

जब ओकर जम्मो पिला मन अंडा फोर के निकल गें, त ऊॅंकर भूख मेटाए बर नदिया ले मछरी, कीरा-मकोरा निते दाना-दुनका अपन चोंच में चाप के खोलखा में लेगय, अउ नान-नान चीथ टोर के ओमन ला खवावय। 

जब पिला मन बड़े होगें अउ ऊॅंकर पाॅंख जाम गे, तब ओमन ला उड़े बर अउ खुद ले चारा चुगे बर सिखोय खातिर माई चिरई हा प्लान बनाए रिहिस। 

प्लान के मुताबिक वो खोलखा ला छोड़ के सब्बो झन ला एक्के संग उड़ियाना रिहिस। अउ उड़ियावत- उड़ियावत नदिया के ओ पार जाना रिहिस। 

माई के इशारा पाके सब्बो झन एक्के संग उड़िन। खोलखा ले उड़े के बाद बाकी सब चिरई मन उड़ते गिन उड़ते गिन, बस इही पिला के मन में भय हमा गे अउ ओहा तुरते लहुट के खोलखा में फेर हमागे। 

तब ले ओ पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा में बइठे बस टुकुट-टुकुर देखत राहय। अकेल्ला लाॅंघन-भूखन परे राहय। ओला आस रिहिस कि मम्मी हा पहिली जइसे चारा लान के खवाही। फेर तीन दिन होय के बाद भी ओकर मम्मी ओकर बर चारा दाना नइ लानिस।

भूख में पेट सोप-सोप करत राहय। खोलखा में बाँचे-खुॅंचे जउन भी खाय के रिहिस, ओला ओ खा डरे रिहिस। भूख के मारे अपनेच अंडा के फोकला ला घलो खा डरिस। 

अब तो भूख सहे नइ जावत रिहिस। चक्कर आए लगिस। ओला अइसे लागे लगिस कि अब तो प्राण नइ बाँचय। 

जिंदगी बचाना हे अउ जीना हे, त ओला खोलखा ले बाहिर निकलना परही। फेर, ओकर मन में अभीच ले डर बैठे हे। भूख में शरीर घलो कमजोर होगे हे। अइसन में ओ कइसे उड़ियाही? खाई ला कइसे पार करही? नदिया ला कैसे पार करही? 

ये चिंता माई चिरई ला होवत रिहिस। ओहा अपन पिला ला बचाना चाहत रिहिस, फेर ओला जीये के लायक भी बनाना चाहत रिहिस। 

माई चिरई हा नदिया के खॅंड़ ले उड़ान भरिस। नदिया के पानी में गोता लगावत चोंच में मछरी चाप के निकलिस। अउ सनसन-सनसन उड़ियावत पहाड़ खोलखा डाहर निकल गे। 

अपन मम्मी ला आवत देख के खोलखा में बइठे पिला चिरई के मन हरिया गे। देखिस कि, मम्मी हा मोर खाए बर मछरी लानत हे, त ओकर खुशी के ठिकाना नइ रिहिस। 

फेर देखथे कि, ओकर मम्मी खोलखा मेर आके अचानक रुक गे। चोंच में मछरी चपके हे, फेर खोलखा में आवत नइ हे। 

ओ हा तुहनू देखाय कस खोलखा तिर आइस, तभे पिला चिरई हा मछरी ला खाए बर अपन चोंच ला लमावत जइसे आगू डाहर सलगिस, माई चिरई हा तुरते पाछू घुॅंच गे। 

अब पिला चिरई हा खोलखा ले उलन के खाई में गिरे लगिस। गिरत-गिरत अपन मम्मी डाहर बचाही कहिके देखथे, त ओकर मम्मी हा ओला ओकर हाल में छोड़ के ऊपर डाहर उड़ागे। 

पिला चिरई ला लगिस कि अब तो वो बस मरने वाला हे। तभे ओला जनइस, ये एहसास होइस कि ओकर जम्मो पाँख मन फरिया गे हें। ओहा जोरदार साँस लिस, अपन छाती में हवा भरिस, अउ पंख मन ला फड़फड़ाना शुरू करिस। गिरत रिहिस ते हा हवा में थम गे। फेर ऊपर उठे लगिस। उड़े लगिस। 

तभे वो देखिस कि ओकर मम्मी, पापा, भाई, बहिनी सब्बो झन ओकर आजू बाजू उड़त राहॅंय।‌ ओमन ओकर हौसला बढ़ाये बर आए राहॅंय। 

ओमन ला देख के‌ ओ पिला चिरई घलो मगन होके उड़े लगिस। नदिया के पानी में खेले लगिस। पानी तरी बुड़ के टप ले मछरी बिन डरिस। 

भूख-प्यास मेटाए के बाद वो हा जमके उड़े लगिस, आसमान में गोता लगाए लगिस। वो हा अब जान डरिस कि वो पंछी आय। 

✍️ ललित मानिकपुरी 


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रविवार, 24 अगस्त 2025

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा...




* अच्छी फसल की कामना का लोकपर्व 'भोजली'

* छत्तीसगढ़ में अटूट मैत्री परंपरा का प्रतीक भी है


देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा वो, लहर तुरंगा,

हमरो भोजली दाई के भिजे आठो अंगा...


सावन के महीने में अगर आप छत्तीसगढ़ के गांवों में आपको यह गीत सुनने को जरूर मिल जाएगा। जो कि 'भोजली' गीत के रूप में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ का यह पारंपरिक गीत 'भोजली देवी' को समर्पित है। सावन के महीने में मनाया जाने वाला भोजली का त्यौहार हरियाली और उल्लास का प्रतीक है।  



सावन में रिमझिम बारिश की बूंदें अपनी प्रकृति का पोषण करती हैं, इसी समय प्रकृति हरी चादर ओढ़कर सभी में हर्ष और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। तब कृषक अपने खेती के कामों से थोड़ा समय निकालकर गांवों के चौपालों में सावन का आनंद लेते हैं और इसी समय अनेक लोक पर्वों का आगमन होता है। जिनमें से एक है 'भोजली' का त्यौहार। 


छत्तीसगढ में सावन महीने की नवमी तिथि को छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें गेहूं के दाने उगाए जाते हैं। ऐसी कामना की जाती है, कि- ये दानें जल्दी ही भोजली फसल के रूप में तैयार हो जाएं। जिस तरह भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी तरह खेतों की फसलें भी दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़े और किसान संपन्नता की ओर बढ़े। भोजली का त्यौहार ये उम्मीद देता है, कि इस बार फसल लहलहायेगी और इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं और लड़कियां सुरीले स्वरों में भोजली सेवा लोकगीत गाती हैं। 



भोजली को घर के किसी पवित्र और छायेदार जगह में उगाया जाता है। भोजली के ये दाने धीरे-धीरे पौधे बनते हैं। नियमित रूप से इनकी पूजा और देखरेख की जाती है। जिस तरह देवी के सम्‍मान में वीरगाथाओं को गाकर जंवारा-जस-सेवा गीत गाए जाते हैं, उसी तरह ही भोजली दाई के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। 


भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन भोजली का विसर्जन होता है। भोजली विसर्जन को गांवों में बड़े ही धूम-धाम से सराया जाता है। सराना यानी कि पानी में भोजली को बहाना। ग्रामीण महिलाएं और  बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए गीत गाती हुई गांवों में घूमती हैं। इस दौरान भजन, सेवा और स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। सेवा टोलियां मण्डली के साथ गाना-बजाना करते हुए भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब या नदी की ओर प्रस्थान करती हैं।



नदी अथवा तालाब जहां भोजली को विसर्जित किया जाना होता है, वहां के घाट को पानी से भिगोकर पहले शुद्ध किया जाता है। फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जिसके बाद भोजली को जल में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन के बाद कुछ मात्रा में भोजली की फसल को टोकरी में रखकर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाया जाता है।


छत्तीसगढ़ में भोजली का त्यौहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। जहां एक तरफ 'भोजली' छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक मान्यताओं का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की खूबसूरती भी है। इसे मित्रता की मिसाल भी मानी जाती है। दरअसल भोजली का महत्व सिर्फ विसर्जन तक ही नहीं होता है। भोजली की फसल का आदान-प्रदान कर भोजली बदी जाती है। भोजली बदना यानी कि दोस्ती को जीवन भर निभाने का संकल्प लेना। 



छत्तीसगढ़ में भोजली बदने की परंपरा के तहत दो मित्र भोजली की बालियों को एक-दूसरे के कान में खोंचकर लगाते हैं। इसे ही ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा कही जाती है। ऐसी मान्यता है कि जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते हैं। छत्तीसगढ़ में ये मित्र को सम्मान देने की एक खूबसूरत प्रथा है। तो अगर दोस्त का नाम नहीं लेते हैं तो उन्हें संबोधित कैसे किया जाता है। दरअसल भोजली बदने के बाद मित्र को 'भोजली' अथवा 'गींया' कहकर पुकारा जाता है। 


मित्रता के इस महत्व के अलावा भोजली को घरों और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। साथ ही अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करना भी भोजली सिखाता है। 


छत्तीसगढ़ के त्यौहार जहां विविधता और आदिम परंपराओं के द्योतक हैं तो वहीं ये कहीं न कहीं लोगों को प्रकृति से जोड़ते हैं, उनका महत्व बताते हैं, कि कैसे प्राकृतिक संसाधन और प्रकृति हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भोजली पर्व भी उनमें से एक है। जिसका निर्वहन आज भी पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

आदिवासी महापर्व 'खे-खेल बेंजा' 'खद्दी परब' 'सरहुल'


जीवन का आधार 'धरती' और ऊर्जा के परम स्रोत 'सूर्य' के विवाह का महा-उत्सव : खे-खेल बेंजा 


इस समय आदिवासी अंचलों में हर्ष और उल्लास का वातावरण है, क्योंकि आदिवासी परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व धरती पूजन 'खद्दी परब' के साथ पारंपरिक मेलों की धूम है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों में शुमार उरांव जनजाति की बोली यानी कुडुख बोली में 'खद्दी परब' या 'खेखेल बेंजा' का आशय होता है 'धरती का विवाह'। इस आदिम परंपरा से पता चलता है कि आदिवासी समाज प्रकृति से कितना गहरा नाता रखता है और इस नाते को जीवंत बनाए रखने के लिए भी किस तरह चैतन्य व समर्पित है। 


आदिवासी मानते हैं कि धरती जीव-जगत का आधार है। हमें अन्न, जल, फल-फूल धरती से ही मिलते हैं। पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों का सुख भी धरती ही है। धरती की अनुकंपा से ही जीवों का जीवन चलता है। इस अनुकंपा के लिए धरती के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव वक्त करने के लिए यह महा उत्सव कहीं खद्दी परब, कहीं सरहुल या कहीं अन्य नाम से हर वर्ष मनाया जाता है।


पतझड़ के बाद जब प्रकृति पुनः फलने-फूलने के लिए तैयार हो रही होती है, जब नए कोपलों, नई कलियों से पेड़-पौधों का नवश्रृंगार हो रहा होता है, जब जंगल रंग-बिरंगे फूलों और उनकी महक से भरा होता है, जब बसंती बयार नए फलों की आमद का संकेत दे रही होती है, तब प्रकृति से अभिन्न वनवासी, आदिवासी समाज 'धरती पूजन' का अपना महापर्व मनाता है। यह महापर्व देश के अलग-अलग आदिवासी अंचलों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में यह खद्दी परब या खे-खेल बेंजा नाम से जाना जाता है। 


यहां यह पर्व चैत्र के महीने में मनाया जाता है, जब जंगल में सरई के पेड़ फूलों से लद जाते हैं। आदिवासी परंपरा के अनुसार माटी यानी धरती और सरई वृक्ष की पूजा की जाती है। जीवन का आधार उर्वर धरती और ऊर्जा के परम स्रोत सूर्य के विवाह का प्रतीकात्मक आयोजन किया जाता है। धरती और सूर्य के मांगलिक मेल से ही जीवन संभव और सुखद हो सकता है। यह पर्व मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्तों को बरकरार रखने और प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पित होने का पर्व है। 


छत्तीसगढ़ में बस्तर, सरगुजा, जशपुर अंचल में यह पर्व महा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें उरांव जनजाति की विशेष भूमिका के साथ सर्व आदिवासी समुदाय तथा वहां के निवासी अन्य जातियों के खेतिहर किसानों की भी सहज सहभागिता होती है। अपनी पुरातन पर्व परंपराओं से आदिवासी समाज प्रकृति की परवाह करने की सीख हजारों साल से दुनिया को दे रहा है।  


• आलेख - ललित मानिकपुरी, रायपुर (छत्तीसगढ़)


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