रविवार, 24 अगस्त 2025

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा...




* अच्छी फसल की कामना का लोकपर्व 'भोजली'

* छत्तीसगढ़ में अटूट मैत्री परंपरा का प्रतीक भी है


देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा वो, लहर तुरंगा,

हमरो भोजली दाई के भिजे आठो अंगा...


सावन के महीने में अगर आप छत्तीसगढ़ के गांवों में आपको यह गीत सुनने को जरूर मिल जाएगा। जो कि 'भोजली' गीत के रूप में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ का यह पारंपरिक गीत 'भोजली देवी' को समर्पित है। सावन के महीने में मनाया जाने वाला भोजली का त्यौहार हरियाली और उल्लास का प्रतीक है।  



सावन में रिमझिम बारिश की बूंदें अपनी प्रकृति का पोषण करती हैं, इसी समय प्रकृति हरी चादर ओढ़कर सभी में हर्ष और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। तब कृषक अपने खेती के कामों से थोड़ा समय निकालकर गांवों के चौपालों में सावन का आनंद लेते हैं और इसी समय अनेक लोक पर्वों का आगमन होता है। जिनमें से एक है 'भोजली' का त्यौहार। 


छत्तीसगढ में सावन महीने की नवमी तिथि को छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें गेहूं के दाने उगाए जाते हैं। ऐसी कामना की जाती है, कि- ये दानें जल्दी ही भोजली फसल के रूप में तैयार हो जाएं। जिस तरह भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी तरह खेतों की फसलें भी दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़े और किसान संपन्नता की ओर बढ़े। भोजली का त्यौहार ये उम्मीद देता है, कि इस बार फसल लहलहायेगी और इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं और लड़कियां सुरीले स्वरों में भोजली सेवा लोकगीत गाती हैं। 



भोजली को घर के किसी पवित्र और छायेदार जगह में उगाया जाता है। भोजली के ये दाने धीरे-धीरे पौधे बनते हैं। नियमित रूप से इनकी पूजा और देखरेख की जाती है। जिस तरह देवी के सम्‍मान में वीरगाथाओं को गाकर जंवारा-जस-सेवा गीत गाए जाते हैं, उसी तरह ही भोजली दाई के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। 


भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन भोजली का विसर्जन होता है। भोजली विसर्जन को गांवों में बड़े ही धूम-धाम से सराया जाता है। सराना यानी कि पानी में भोजली को बहाना। ग्रामीण महिलाएं और  बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए गीत गाती हुई गांवों में घूमती हैं। इस दौरान भजन, सेवा और स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। सेवा टोलियां मण्डली के साथ गाना-बजाना करते हुए भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब या नदी की ओर प्रस्थान करती हैं।



नदी अथवा तालाब जहां भोजली को विसर्जित किया जाना होता है, वहां के घाट को पानी से भिगोकर पहले शुद्ध किया जाता है। फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जिसके बाद भोजली को जल में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन के बाद कुछ मात्रा में भोजली की फसल को टोकरी में रखकर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाया जाता है।


छत्तीसगढ़ में भोजली का त्यौहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। जहां एक तरफ 'भोजली' छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक मान्यताओं का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की खूबसूरती भी है। इसे मित्रता की मिसाल भी मानी जाती है। दरअसल भोजली का महत्व सिर्फ विसर्जन तक ही नहीं होता है। भोजली की फसल का आदान-प्रदान कर भोजली बदी जाती है। भोजली बदना यानी कि दोस्ती को जीवन भर निभाने का संकल्प लेना। 



छत्तीसगढ़ में भोजली बदने की परंपरा के तहत दो मित्र भोजली की बालियों को एक-दूसरे के कान में खोंचकर लगाते हैं। इसे ही ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा कही जाती है। ऐसी मान्यता है कि जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते हैं। छत्तीसगढ़ में ये मित्र को सम्मान देने की एक खूबसूरत प्रथा है। तो अगर दोस्त का नाम नहीं लेते हैं तो उन्हें संबोधित कैसे किया जाता है। दरअसल भोजली बदने के बाद मित्र को 'भोजली' अथवा 'गींया' कहकर पुकारा जाता है। 


मित्रता के इस महत्व के अलावा भोजली को घरों और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। साथ ही अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करना भी भोजली सिखाता है। 


छत्तीसगढ़ के त्यौहार जहां विविधता और आदिम परंपराओं के द्योतक हैं तो वहीं ये कहीं न कहीं लोगों को प्रकृति से जोड़ते हैं, उनका महत्व बताते हैं, कि कैसे प्राकृतिक संसाधन और प्रकृति हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भोजली पर्व भी उनमें से एक है। जिसका निर्वहन आज भी पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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