रविवार, 1 मई 2022

छत्तीसगढ़ के बोरे-बासी Bore-Basi


(अपना पसीना बहाकर देश-दुनिया में विकास की क्रांति लाने वाले, अपने सृजन से नव दुनिया का निर्माण करने वाले, संसार का पोषण करने के लिए खेतों अन्न उपजाने वाले श्रमवीरों के सम्मान में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी सहित लाखों छत्तीसगढ़िया लोगों ने आज श्रमिक दिवस पर "बोरे-बासी" खाकर छत्तीसगढ़िया मेहनतकश मजदूर किसान वर्ग के इस पारंपरिक आहार की महत्ता को वैश्विक पटल पर स्थापित करने के प्रयासों में अपना महती योगदान किया।)



छत्तीसगढ़ के सीधे-सरल और मेहनतकश लोगों, किसान, मजदूर, वनवासी, आदिवासी जन के जीवन में "नवा बिहान" लाने छत्तीसगढ़ राज्य का स्वप्न देखने वाले हमारे पुरखों ने उस दौर में यहां सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक जागरण के लिए अपने-अपने ढंग से अथक प्रयास किए। डाॅ. खूबचंद बघेल जी और पद्मश्री पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी हमारे उन महान पुरखों में अग्रणी थे। उन्होंने अपनी लेखनी से भी जनजागरण का अलख जगाया। यहां तक छत्तीसगढ़ियों के प्रमुख आहार "बासी" को भी छत्तीसगढ़िया जागरण का प्रतीक बनाया। बासी के वैज्ञानिक गुणों, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता को समझते हुए उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से किस तरह "बासी" की महिमा गाई और जन-जन को छत्तीसगढ़िया गौरव का एहसास कराया उसका एहसास आप भी कीजिए। 


गजब बिटामिन भरे हुये हैं,

(डाॅ. खूबचंद बघेल जी की रचना)

बासी के गुण कहूँ कहाँ तक, इसे ना टालो हाँसी में।

गजब बिटामिन भरे हुये हैं, छत्तीसगढ़ के बासी में।।

नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में,

फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में।।

अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में,

बुद्ध-कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में।।

बासी के गुण कहूँ कहाँ तक, इसे ना टालो हाँसी में।।

विद्वतजन को हरि-दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फाँसी में,

राजनीति भर देती है यह, बूढ़े में, संन्यासी में।।

विदुषी भी प्रख्यात यहाँ थी, जो लक्ष्मी थी झाँसी में,

स्वर्गीय नेता की लंबी मूंछें भी बढ़ी हुई थी बासी में।।

गजब बिटामिन भरे हुये हैं, छत्तीसगढ़ के बासी में।।

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छत्तीसगढ़ के बासी

- (पद्मश्री पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी की रचना)


जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।

ठाढ बेरा म माई पिल्ला, खेत खार ले आथन तौ।

एकक बटकी हेर हेरके, चटनी लुन म खाथन तौ।।

जिव हर निचट जुड़ाथे चाहे कतको रही थकासी मा।

जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

चाह पिअइया मन ला देखेन, झीटी कस हो जायें गा।

एक मुठा तो भात ला खाथे, का सेवाद ला पायें गा?

ओमन गुनथें बासी खाके, झन पर जाई हाँसी मा। 

हम रथन टनमनहा उनमन फदगे रइथें खांसी मा॥

बासी खाके जमो देस बर चाउर हमीं कमाथन गा। 

तभ्भो उलटा पुलटा हमन अंड़हा मुरुख कहाथन गा।।

हम छोड़बो बासी ला, तब सब पर जाहीं हांसी मा।

जम्मो राज के जिव परान हे छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

पेज समुंद मा बासी बिस्नु, बुड़े बिहनहे ले देखा। 

पंचामृत कस पीवो खा परसाद बरोबर अनलेखा॥

बासी खाके ओ फल पावा, जउन अजोध्या कांसी मा। 

जबड़ पुष्टई भरे हे भाई, छत्तीसगढ़ के बासी मा।।

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(एक मेरी रचना)

बड़ सुहाथे बासी...

- ललित मानिकपुरी 


बिहनियाँ नहा-खोर के,

बइठ पालथी मार के,

पहिली भोग लगाती, बड़ सुहाथे बासी।।

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एक फोरी अथान के,

नून डार ले जान के,

गोंदली चानी उफलाती, बड़ सुहाथे बासी।।

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खेत के मेड़ पार म, 

डोंगरी जंगल खार म,

करम के ठठाती, बड़ सुहाथे बासी।।

***

ठीहा म, खदान म,

कारखाना बूता-काम म,

पछीना के ओगराती, बड़ सुहाथे बासी।।

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किसान के बनिहार के

बिटामिन ए परिवार के

तन-मन के जुड़वासी, बड़ सुहाथे बासी।।

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बासी म बिस्नू बसैं, 

ब्रम्हा बरी, अथान,

गोंदली गणपति, मही महेश,

बस महाप्रसादी जान।

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