मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

आदिवासी महापर्व 'खे-खेल बेंजा' 'खद्दी परब' 'सरहुल'


जीवन का आधार 'धरती' और ऊर्जा के परम स्रोत 'सूर्य' के विवाह का महा-उत्सव : खे-खेल बेंजा 


इस समय आदिवासी अंचलों में हर्ष और उल्लास का वातावरण है, क्योंकि आदिवासी परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व धरती पूजन 'खद्दी परब' के साथ पारंपरिक मेलों की धूम है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों में शुमार उरांव जनजाति की बोली यानी कुडुख बोली में 'खद्दी परब' या 'खेखेल बेंजा' का आशय होता है 'धरती का विवाह'। इस आदिम परंपरा से पता चलता है कि आदिवासी समाज प्रकृति से कितना गहरा नाता रखता है और इस नाते को जीवंत बनाए रखने के लिए भी किस तरह चैतन्य व समर्पित है। 


आदिवासी मानते हैं कि धरती जीव-जगत का आधार है। हमें अन्न, जल, फल-फूल धरती से ही मिलते हैं। पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों का सुख भी धरती ही है। धरती की अनुकंपा से ही जीवों का जीवन चलता है। इस अनुकंपा के लिए धरती के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव वक्त करने के लिए यह महा उत्सव कहीं खद्दी परब, कहीं सरहुल या कहीं अन्य नाम से हर वर्ष मनाया जाता है।


पतझड़ के बाद जब प्रकृति पुनः फलने-फूलने के लिए तैयार हो रही होती है, जब नए कोपलों, नई कलियों से पेड़-पौधों का नवश्रृंगार हो रहा होता है, जब जंगल रंग-बिरंगे फूलों और उनकी महक से भरा होता है, जब बसंती बयार नए फलों की आमद का संकेत दे रही होती है, तब प्रकृति से अभिन्न वनवासी, आदिवासी समाज 'धरती पूजन' का अपना महापर्व मनाता है। यह महापर्व देश के अलग-अलग आदिवासी अंचलों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में यह खद्दी परब या खे-खेल बेंजा नाम से जाना जाता है। 


यहां यह पर्व चैत्र के महीने में मनाया जाता है, जब जंगल में सरई के पेड़ फूलों से लद जाते हैं। आदिवासी परंपरा के अनुसार माटी यानी धरती और सरई वृक्ष की पूजा की जाती है। जीवन का आधार उर्वर धरती और ऊर्जा के परम स्रोत सूर्य के विवाह का प्रतीकात्मक आयोजन किया जाता है। धरती और सूर्य के मांगलिक मेल से ही जीवन संभव और सुखद हो सकता है। यह पर्व मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्तों को बरकरार रखने और प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पित होने का पर्व है। 


छत्तीसगढ़ में बस्तर, सरगुजा, जशपुर अंचल में यह पर्व महा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें उरांव जनजाति की विशेष भूमिका के साथ सर्व आदिवासी समुदाय तथा वहां के निवासी अन्य जातियों के खेतिहर किसानों की भी सहज सहभागिता होती है। अपनी पुरातन पर्व परंपराओं से आदिवासी समाज प्रकृति की परवाह करने की सीख हजारों साल से दुनिया को दे रहा है।  


• आलेख - ललित मानिकपुरी, रायपुर (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 19 मार्च 2025

कुहकी डंडा नृत्य "Kuhki" an amazing folk dance of India which is only left in a village of Chhattisgarh



आपने देखा है, "कुहकी डंडा नृत्य" कैसे होता है? यह भारत के प्राचीन लोक नृत्यों में से एक है, जो अब विलुप्त होने के कगार पर है। मैं यहां जानबूझकर "विलुप्त" शब्द का उपयोग कर रहा हूं, क्योंकि जीवंतता लोकनृत्यों में भी होती है। 


पूरे मध्य भारत में छत्तीसगढ़ के बिरकोनी जैसे कुछ ही ग्राम ऐसे हैं जहां कुहकी डंडा लोकनृत्य की परंपरा आज भी चली आ रही है। पशुपालक कृषकों द्वारा फागुन त्यौहार के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।


बिना किसी वाद्य यंत्र के केवल कंठ से निकलने वाली आवाज़ "कुहकी" और डंडों के टकराने की ध्वनि से ही इस नृत्य के लिए संगीत उपजता है। डंडों की चाल और ताल के साथ नृत्य की गति जैसे-जैसे तेज होती जाती है, नर्तन वृत्त पर ऐसा अद्भुत रोमांचकारी दृश्य उत्पन्न होता है कि नजरें टिकी रह जाती हैं। 


नृत्य करने वाले ही नृत्य के साथ-साथ गीत भी गाते चलते हैं। ये गीत लोकभाषा में होते हैं, फूहड़ कतई नहीं। इन गीतों में जीवन के हर्ष, विषाद और जीव की परम् गति शब्दों से उच्चारित होती है और यही भाव-दृश्य नृत्य आवृत्त में भी परिलक्षित होता है। 


हमारे गांव बिरकोनी के कृषक सियानों ने इस लोकनृत्य को सहेज कर रखा है। वे चाहते हैं कि नई पीढ़ी भी इस लोकनृत्य में रुचि ले, इसे आगे बढ़ाए। 


पांच पीढ़ियों से संभाले हुए हैं : 

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बिरकोनी गांव के सियानों ने विलुप्ति के कगार पर पहुंचे पारंपरिक कला कुहकी डंडा नृत्य को पांच पीढ़ियों से संभाले रखा है। 


कंठ से निकली आवाज़ ही "कुहकी"

कुहकी डंडा नृत्य कला व परंपरा का अदभुत संगम है। कुहकी डंडा नृत्य एक ऐसा नृत्य है, जिसमें कंठ से निकाली जानी वाली विशिष्ट आवाज "कुहकी" से ही नृत्य की लय, गति और डंडे की चाल बदल रहती है।


100 से चली आ रही यह नृत्य परंपरा : 

100 सालों से फागुन त्यौहार के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है। गांव में यह नृत्य कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलती रही है। फागुनी माहौल में कुहकी कलाकारों का उत्साह और इस नृत्य का वास्तविक सौंदर्य दिखाई पड़ता है। 


सभी नृत्य कलाकार 60 साल पार : 

कुहकी नृत्य करने वाले अधिकतर 60 साल के ऊपर के हो चले हैं। वे नई पीढ़ी को यह कला सिखाना और इस नृत्य परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। किंतु नई पीढ़ी रुचि नहीं ले रही है। 


8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी : 

बुजुर्ग कलाकार बताते हैं कि कुहकी नृत्य में डंडा चालन के लिए 8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी है। प्रत्येक नर्तक के हाथ में एक या दो डंडा होता है। नृत्य का प्रथम चरण ताल मिलाना है। दूसरा चरण कुहकी देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक-दूसरे के डंडे पर डंडे से चोट करते हैं। डंडों की समवेत ध्वनि से अल्हादकारी संगीत उपस्थित होता है। 


कुहकी के भी कई रूप : 

कुहकी नृत्य भी अनेक प्रकार का होता है। छर्रा, तीन टेहरी, गोल छर्रा, समधीन भेंट और घुस। अभी बिरकोनी के सियान छर्रा और तीन टेहरी का प्रदर्शन करते हैं। फागुन त्यौहार के अवसर पर इसका आनंद लेने हजारों की भीड़ लगी होती है। 


क्या कहते हैं सियान : 

गांव के लोक कलाकार बुधारू निषाद बताते हैं कि 10 साल की उम्र से ही होली के अवसर पर कुहकी नृत्य करते आ रहे हैं। हमारे पुरखों ने इस सांस्कृतिक कला की नींव रखी थी। उसे हमने आगे बढ़ाया। वर्तमान में 8-10 लोग ही कुहकी डंडा नृत्य करते हैं। नई पीढ़ी इसमें रुचि ले तो यह लोक नृत्य आगे भी जिंदा रहा सकता है। इसके गीत भी मधुर और भक्ति भाव से भरे होते हैं। 


क्या है कुहकी : 

कुहकी नृत्य में एक व्यक्ति गले से एक अलग तरह की आवाज निकालता है। इस आवाज से नृत्य की लय व डंडे की चाल बदलती है। आवाज से इशारा मिलने पर नर्तक नृत्य का तरीका बदलने के साथ आगे-पीछे घूमकर डंडे से डंडे पर चोट करते हैं।


बिना साज अद्भुत नृत्य : 

कुहकी नृत्य में एक विशिष्ट बात यह है कि इस नृत्य के दौरान कोई भी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता। नर्तकों के डंडों की चोट की समवेत ध्वनि और कुहकी की आवाज से बिना साज ही संगीत सी लहर दौड़ने लगती है। 


पशुपालक कृषकों का नृत्य : 

कुहकी डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ के पशुपालक कृषकों का पारंपरिक नृत्य है, पहले कृषि और पशुपालन करने वाले ग्रामीण प्रायः हाथों में डंडे लेकर चलते थे। फागुनी उमंग में डंडों से ही संगीत की तरंग निकाल लेते थे। इस नृत्य का किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं है। हां यह नृत्य केवल पुरुष ही करते हैं। इस नृत्य में तीव्र डंडा चालन जोखिम भरा होता है। 


✍️ललित मानिकपुरी, 

बिरकोनी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 13 मार्च 2024

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर "अमर प्रेम की अमिट निशानी" Laxman Temple of Sirpur "Indelible symbol of immortal love"



 "अमर प्रेम की अमिट निशानी"


एक नारी के अमर प्रेम की, है यह अमिट निशानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की, सुनिए कथा पुरानी।।


छठी सदी की बात है सुनो, बरसों बरस पुरानी,

दक्षिण कोसल राज था अपना, श्रीपुर थी राजधानी।

सोमवंश का राज था यहाँ, हर्षगुप्त महाराजा, 

मगध की राजकुमारी वासटा से उनका मन लागा।

मगधधीश सुर्यवर्मा की पुत्री, बन गईं कोसल रानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


सावन बीता फागुन बीता, बीती बासंती कई,

वासटा देवी हर्षगुप्त में, प्रीति बस बढ़ती गई।

भाव भरे इस युगल हृदय का, राज बड़ा अनुपम था,

कला संस्कृति का विकास, जन-जीवन मधुरम था।

जन-जन के अंतस में दोनों की थी छवी सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


अनहोनी हो गई एक दिन, समय चक्र का खेल चला,

रानी जी का प्रियतम राजा, इस दुनिया को छोड़ चला।

माटी में माटी की काया, ब्रह्म में जीव समाया,

विरहन हुईं वासटा देवी, चिर वियोग था आया।

यादों में बस गये पिया जी, था आंखों में पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


कोई नहीं जाने सागर में, कितना पानी भरा हुआ।

विरहन मन की थाह नहीं वह भीतर कितना दहक रहा। 

पिया पिया की जाप लगाती, पल पल रोती रानी,

पिय की याद अमर करने को, मन ही मन में ठानी।

महानदी के पावन तट पर पिया की रहे निशानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


प्रेम से ही मिलते ईश्वर हैं, प्रेम ही भक्ति पूजा,

एक पिया, एकहि परमेश्वर और न कोई दूजा। 

विरहि वासटा देवी ने कामना करी मंदिर की,

सांस सांस में पिया पुकारे, जाप करे हरि हर की।

मर्यादा थी राजवंश की, भीतर भक्त दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


मंदिर बनवाने की ईच्छा पुत्र को उसने बताई,

महाशिवगुप्त बालार्जुन ने तब योजना बनवाई। 

महान शिल्पी कारीगर केदार को उसने बुलाया,

चित्रोत्पला गंगा के तट पर कार्य आरंभ कराया।

अविरल सृजन शिल्पियों ने की रचना रची सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।


अपने प्रिय की याद में रानी रह रह कर रोती थीं,

हृदय में धधकी विरह अगन की ज्वालाएं उठती थीं।

इसी विरह की आंच से जैसे माटी खूब तपीं थी,

इसी विरह की आग से तप हर ईंट अंगार बनी थीं।

इनकी अगन भी बुझा न पाया महानदी का पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चिर वेदना का चित्रण करती नक्काशी अद्भुत हुई,

लाल लाल मिट्टी की ईंटें कलियां जैसे खिल गईं।

पति स्मृति अक्षुण्य बनाकर रानी तज गई जीवन,

किंतु उनके सांस बसे हैं इस मंदिर के कण-कण।

जग को अद्भुत कृति दे गई अद्भुत प्रेम दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चलता गया समय का पहिया, बीत गईं कितनी ही सदियाँ, 

सदी बारहवीं धरती डोली, महल विहार गिरे जस पतियाँ।

चौदहवीं पंद्रहवीं सदी में, बाढ़ों ने भी प्रलय मचाया,

प्रलयंकारी जलप्लावन ने, पूरा श्रीपुर नगर मिटाया।

फिर भी अडिग खड़ा रहा अविचल यह मंदिर वरदानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


माटी की ईंटों को कोई प्रेम का जादू जोड़ रखा है,

भूकंपों और बाढ़ की ताकत को जैसे कोई मोड़ रखा है।

नहीं डिगा तूफानों में यह, आँधियों में भी खड़ा रहा,

पावन प्रेम प्रतीक के आगे हर आफत है हार चुका।

अमिट धरोहर है अपनी यह, विश्व विरासत मानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


समय के माथे पर यह रचना, बिंदिया जैसी दमक रही, 

है पंद्रह सौ साल पुरानी, पूनम चंदा सी चमक रही।

छत्तीसगढ़ की आन है यह, भारत भूमि की शान,

अनुपम प्रीति स्मृति को अब जाने सकल जहान।

ताज महल से भी है यह तो हजार बरस पुरानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


रचना - ललित मानिकपुरी 

बिरकोनी, महासमुंद (छ.ग.)

(सर्वाधिकार सुरक्षित) 






रविवार, 16 जुलाई 2023

हरियाली का उत्सव, बहारों का जश्न है... हरेली

हरेली का त्योहार वास्तव में हरियाली का उत्सव है, बहारों का जश्न है। भीषण गर्मी से तपती धरती और तपते आकाश को भी सुकून मिलता है जब घटाएं उमड़-घुमड़कर बरसती हैं। जल ही जीवन का आधार है और वर्षा समस्त जीव जगत के लिए प्रकृति का प्यार है। सावन के बादल जब झूमकर बरते हैं, तब प्रकृति मुस्कराती है और जिन्दगी नई अंगड़ाई लेती है। यही बहारों का मौसम होता है। चारों ओर हरियाली होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि धरती ने नई हरी चुनर ओढ़ ली है। ऐसे समय में खुशी की बयार लेकर आता है हरेली का त्योहार।


सावन की अमावस छत्तीसगढ़ के लिए बहुत खास होती है, बहुत खास होती है हरेली। क्योंकि यहां के लोग जंगल, नदी, पहाड़ और खेती-खार यानी प्रकृति से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। प्रकृति से हमारे रिश्ते को और मजबूत करने का त्योहार है हरेली। धरती की हरितिमा की रक्षा के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का प्रतीक है हरेली। हरियाली को बचाने और बढ़ाने के लिए सामूहिक प्रयासों की परंपरा है हरेली। इसके साथ ही आबाद बस्तियों के लोगों से लेकर खेती-खार, जंगल, नदी, पहाड़ों तक सबकी सलामती और कुशलता की कामना है हरेली। परंपराएं यूं ही नहीं चली आती सैकड़ों सालों से, परंपराओं के साथ होता है पीढ़ियों का अनुभव, परंपराओं में छुपे होते हैं लोकहित के संदेश। हरेली पर्व में भी कुछ ऐसी परंपराएं या रस्में हैं, जिनके मायने और नीहित संदेशों को गहराई से जाने बिना हरेली त्योहार के मूल अर्थ को जान पाना कठिन है। तो आइए हरेली की उन परंपराओं की बात करते हैं, जो लगते तो सहज हैं, किंतु असल में गहरे भाव अर्थ समेटे हुए हैं। गौर कीजिए... महसूस कीजिए, हरेली की परंपराएं हमसे कुछ कहती हैं... हरेली कुछ कहती है...।



*पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता की मिसाल है हरेली :

पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक है कि हम धरती की हरियाली को बचाए रखें। हरियाली के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं रहेगा। हरियाली है तभी खुशहाली भी है। यह अहम संदेश पीढ़ी-दर-पीढ़ी सरलता के साथ और प्रभावी ढंग से पहुंचती रहे, शायद इसी कारण हमारे पूर्वजों ने हरेली त्योहार मनाने की पंरपरा शुरू की होगी। सावन का महीना पौधरोपण के लिए बेहतर समय होता है। हरेली सावन अमावस्या को मनाई जाती है। इस समय तक खेतों में जोताई बोआई का कार्य पूरा हो जाता है और खेती-किसानी की व्यस्तता से कुछ अवकाश का क्षण होता है। यह वह समय होता है जब पेड़-पौधे लगाकर उन्हें सुरक्षित किया जा सकता है। हरेली में हर घर के दरवाजे पर और खेत-खलिहानों में नीम या भेलवा नामक औषधीय पौधे की डंगाल खोंसने, अरंडी के पत्तों में पशुओं को लोंदी खिलाने, गेंड़ी बनाने, नागर यानी हल और कृषि औजारों की पूजा... ऐसी कई रस्में निभाई जाती हैं, जिनके माध्यम से लोगों को पेड़-पौधों की महत्ता का ज्ञान या स्मरण सहज रूप से हो जाता है। इसलिए यह त्योहार पर्यावरण के प्रति जन-जागरूकता की शानदार मिसाल है। पारंपरिक जन-जागरूकता का ही परिणाम है कि देश के वन क्षेत्र में छत्तीसगढ़ का सबसे अहम स्थान है और अभी यहां का 44.21 प्रतिशत से अधिक भू-भाग वनाच्छादित है। 

*बनगोंदली और दसमूल प्रसाद परंपरा में सेहत सुरक्षा का ख्याल :

यह ऐसा प्रसाद है जो हरेली त्योहार के दिन सुबह गांवों के गौठानों में ही मिलता है। ये प्रसाद धेनु चराने का काम करने वाले चरवाहे राउत जन ही बांटते हैं। असल में गांवों के जंगलों से चरवाहे राउतों से अधिक परिचित कौन हो सकते हैं। धेनु चराते वो जंगल की जड़ी बूटियां और कंदमूल आसानी से ले भी आते हैं। बनगोंदली और दसमूल भी औषधीय गुणों से युक्त कंद-मूल हैं, जो छत्तीसगढ़ के जंगलों में पाए जाते हैं। स्थानीय स्तर पर रदालू कांदा, बनकांदा, दसमूर, दसमुड़ ऐसे कई अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है। हरेली के पहले चरवाहे राउत जन जंगल से ये कंद-मूल खोदकर लाते हैं, बड़े बर्तन में उबालते हैं और हरेली की सुबह गौठान में गांव वालों को काढ़ा सहित प्रसाद के रूप में बांटते हैं। गांव के लोग, बच्चे भी यह कंद-मूल रुचि से खाते हैं। माना जाता है कि औषधीय गुणों से भरे इन कंद-मूलों के सेवन से बरसाती मौसमी बीमारियों, संक्रमण और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से लड़ने के लिए शरीर सशक्त बनता है और बचाव कर पाता है। बरसात का मौसम जन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता है, अपने आस-पास उपलब्ध प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का सेवन कर हम किस प्रकार अपनी सेहत की रक्षा कर सकते हैं, इसका संदेश इस परंपरा से मिलता है।


*आटा और नमक लोंदी खिलाने की परंपरा में पशुधन की परवाह :

बरसात का मौसम लोगों के लिए ही नहीं, पशुधन के लिए भी अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होता है। इसलिए जन स्वास्थ्य के साथ ही पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण का ध्यान रखना जरूरी है। बरसात में नई-नई हरी-हरी घास पशुओं को लुभाती है, लेकिन घास चरते समय मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं, वायरस या बैक्टीरिया की चपेट में आ सकते हैं। पशुओं को इस समय भूजन्य रोगों का खतरा अधिक होता है। हरेली के दिन गौठान में पशुओं को दशमुड़ और बनकांदा के अलावा नमक और गेंहू आटे की लोंदी खिलाई जाती है। खम्हार पत्ता या अरंडी पत्ता में लपेटकर नमक और आटे की लोंदी को खिलाया जाता है। नमक पाचन के लिए और गेंहू आटा की लोई पोषण में सहायक होती है। यह पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण के प्रति जागरूकता का प्रयास है। एक लोई खिलाने से पशु को पोषण नहीं मिल जाता, यह संदेश है कि पशुओं के स्वास्थ्य और पोषण का पूरा ख्याल रखें, जरूरत पड़े तो गेंहू आटे की लोई भी खिलाएं, क्योंकि पशु हमारी कृषि के प्रमुख आधार हैं और कृषि हमारे जीवन व संस्कृति का आधार है। हरेली के दिन घरों में कृषि औजारों की पूजा कर गुरहा चीला यानी गुड़ से बना चीला, गुलगुला बोबरा आदि खास पकवान खाने की परंपरा भी पोषण का ही हिस्सा है। स्वास्थ्य और सेहतमंद रहने के लिए अच्छा आहार भी आवश्यक है।




*पर्यावरण के अनुकूल हैं छत्तीसगढ़ सरकार की योजनाएं :

छत्तीसगढ़ सरकार की तमाम योजनाएं और कार्यक्रम प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल हैं। सुराजी गांव योजना के तहत इसके चार घटकों नरवा, गरवा, घुरवा और बारी कार्यक्रम के तहत जो कार्य किए जा रहे हैं उसमें प्रकृति की सेवा-सुरक्षा और जनकल्याण मूल भाव है। मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की इस सोच के अनुसार धरातल पर हो रहे कार्यों का व्यापक और गहरा प्रभाव अब परिलक्षित होने लगा है। नरवा कार्यक्रम के तहत प्रदेश के 12743 बरसाती नदी-नालों का ट्रीटमेंट कर उन्हें पुनर्जीवित किया गया है। उनके जल धारण क्षमता में बढ़ोतरी से भू-जल स्तर में जबरदस्त सुधार हो रहा है। इससे जंगलों में हरियाली का बढ़ना भी स्वाभाविक है, और जीव-जन्तुओं के लिए अनुकूलता भी। नदियों के तटों पर लाखों की संख्या में पौधे लगाए जा रहे हैं। इस साल नदी तट वृक्षारोपण योजना के तहत हसदेव, गागर, बांकी, बुधरा, बनास, जमाड़, महानदी, शिवनाथ, खारून नदी के तट पर 4 लाख से अधिक पौधों का रोपण किया जाएगा। किसानों को वाणिज्यिक प्रजाति के वृक्षारोपण हेतु प्रोत्साहित करने के लिए मुख्यमंत्री वृक्ष संपदा योजना भी लागू की गई है। शहरों में नए ऑक्सीजोन के रूप में कृष्ण कुंज आकार ले रहे हैं।

विशेष आलेख - ✍️ ललित मानिकपुरी



मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

व्यंग्य : अगर ना जलूं तो?

 अगर ना जलूं तो? 


"सुनो... सुनो ना... अरे इधर-उधर कहां देख रहे हो, सामने देखो, मैं बोल रहा हूं, रावण।" 

इस आवाज से पुतला बनाने वाले आर्टिस्ट की हालत खराब हो गई। कांपते अधरों से बस तीन शब्द बोल पाया "रा..वण!" 

 "हां... रावण!" पुतला फिर बोला।

मारे डर के आर्टिस्ट ऊंचे मचान से गिरते-गिरते बचा।

पुतला बोला - "अरे डर क्यों रहे हो? तुमने ही तो बनाया है ना मुझे?"

आर्टिस्ट मन ही मन कहने लगा- "ये क्या हो रहा है? आज तक तो ऐसा नहीं हुआ।" वह रावण के पुतले को आश्चर्य से देखे जा रहा था। 

इतने में पुतला फिर बोला- डरो नहीं, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।"  

किसी तरह खुद को संभालते हुए आर्टिस्ट बोला - "कहिए सर, क्या कहना चाहते हैं?" 

"मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारी इच्छा क्या है?" 

रावण के पुतले का ऐसा बोलना था कि आर्टिस्ट कांपने लगा। बोला- "सर मेरी आखिरी इच्छा क्यों पूछ रहे हैं? मैं मरना नहीं चाहता। मुझसे कोई गलती हुई है तो प्लीज़ माफ़ कर दीजिए।"

"अरे तुम्हारी आखिरी इच्छा नहीं पूछ रहा हूं। मैं ये पूछ रहा कि तुम इतनी मेहनत से ये जो मेरा पुतला बना रहे हो, उसका करोगे क्या?" 

रावण के पुतले और आर्टिस्ट के बीच संवाद जारी रहा।

"मैं कुछ नहीं करूंगा सर, कसम से मैं कुछ भी नहीं करूंगा।" 

"तो फिर बना क्यों रहे हो?"

"वो तो समिति वालों ने आर्डर दिया है सर। दशहरा के दिन आपको जलाएंगे।"

"और तुझे क्या लगता है, मैं जल जाऊंगा?"

"सर आज तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ है कि लोगों ने आपको जलाया और आप न जले हों।"

"अच्छा, और अगर न जलूं तो?"

"आपके अंदर बारूद-फटाखे तो पहले ही भरे होते हैं, केरोसिन डालकर जला डालेंगे।"

"हा हा हा हा..." अट्टहास करते हुए रावण के पुतले ने कहा - "ये, ये लोग मुझे जलाएंगे?  "हा हा हा हा...हा हा हा हा..." रावण को जलाएंगे? नहीं...नहीं जलूंगा।" 

आर्टिस्ट थरथरा रहा था। लेकिन प्राणों से ज्यादा फिक्र पैसे की हो रही थी। हिम्मत कर उसने कहा- "सर आप नहीं जलेंगे तो, ये लोग मेरी ऐसी-तैसी कर डालेंगे। पैसा भी नहीं देंगे। हजारों-लाखों रुपए लगते हैं सर रावण बनाने में, आई मीन आपका पुतला बनाने में। पुतला दहन के साथ ही आतिशबाजी भी होती है। सब गड़बड़ हो जाएगा। मेरे इतने दिनों की मेहनत और खर्च बर्बाद हो जाएगा। बाल-बच्चेदार आदमी हूं सर, इस काम से जो पैसा मिलेगा, उसी से परिवार के लिए राशन पानी का इंतजाम करूंगा। आप नहीं जलेंगे तो बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी।" इतना कहते-कहते आर्टिस्ट की आंखें डबडबा गईं।

"अरे यार तुम तो रोने लगे। मैं तो यूं ही मज़ाक कर रहा था। दरअसल मैं तुम्हारी कला से बहुत खुश हूं। तुमने बहुत परिश्रम से मेरा पुतला बनाया है। तुम जब मेरी मूंछों को बढ़िया ऐंठनदार बना रहे थे, तभी तुमसे मज़ाक करने का मन हुआ।"

"तो सर आप जलेंगे ना?" आर्टिस्ट ने पूछा।

रावण के पुतले ने गंभीरता से कहा- "हां जलूंगा, क्योंकि मेरे जलने से तुम्हारे घर का चूल्हा जलता है। लोग मुझे जलाने के साथ यदि अपनी बुराई भी जला देते तो उनके लिए भी जल जाने में खुशी होती।" 


रचना- ललित मानिकपुरी, बिरकोनी (महासमुंद)



शनिवार, 30 जुलाई 2022

छत्तीसगढ़ी हास्य रचना

कुकुर मन के जबर फिकर...




कलवा कुकुर- गली सड़क म गरवा मन ला भूँक-भूँक के दउड़ावन त का मजा आवय यार। अब मजा नी आवत हे। 

भुरवा कुकुर- हाॅं यार सब गरवा मन तो गौठान म ओइलाय हें, बाॅंचे खुचे‌ मन कोठा म बॅंधाय हें। गली डाहर सुन्ना पर गे हे। 

खोरवा कुकुर- अरे गौठान म उॅंखर बर का गजब बेवस्था हे भाई, चारा, पानी, छइहाॅं...अरे मत पूछ। हमीं मन लठंग-लठंग एती-ओती फिरत हन। कुकुर मन के तो कोनो पूछइया नी हे। 

झबला कुकुर- अरे धीरे बोल रे भाई, नी जानस का? छत्तीसगढ़ सरकार ह पहिली तो गोबर खरीदी चालू करिस, अउ अब गौमूत्र घलो बिसावत हे। देखत रहिबे बाॅंचे-खुचे गरवा मन घलो गौठान म ओइला जहीं, नी ते कोठा म बॅंधा जहीं। हमन तो एती-ओती गली-डाहर के घुमइया अउ मस्त रहइया कुकुर आन, सोचव भूपेश सरकार के नजर कहूॅं हमर ऊपर पर गे, तब का होही? 

भुरवा कुकुर- बने कथस भाई, जनता के फायदा करे बर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के दिमाग म कोई भी आइडिया आ सकत हे। "गोधन न्याय योजना" के जइसे कहूॅं "श्वान धन योजना" लॉन्च कर दिस तब का होही? हमर तो मरे बिहान हो जही। सब मोर बात मानव, अउ अतलंग करना बंद करौ, जबरन भूॅंकना हबरना बंद करौ। रात म अपन ड्यूटी करौ अउ दिन म सबला "जय जोहार" करौ। 

जय जोहार...    

- साहेब छत्तीसगढ़िया, महासमुंद