गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

नदी की धारा में पैसे ढूँढता बचपन


गाहे-बगाहे...

अस्तांचल की ओर बढ़ते सूर्य की किरणें महानदी की सुनहरी रेत पर चमक रही थीं। मैं और दो मेरे मित्र नदी के मध्य दो पुलों के बीच खड़े थे। पंछियों का विशाल झुंड हमारे ऊपर आसमान में अटखेलियाँ कर रहा था। हजारों परिंदे करीब सौ मीटर के दायरे में उड़ते हुए हवा में गोते लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था वो मस्ती में डूबे हुए हैं और सब मिलकर कोई नृत्य कर रहे हैं, और नृत्य करते-करते आसमानी कैनवास पर चित्रकारी कर रहे हैं, अपनी उड़ान से अकल्पनीय आकृतियाँ बना रहे हैं। उनकी चहचहाट कानों में संगीत घोल रही थी।

 वहीं दूसरी ओर महानदी की धारा में दो बच्चे गोता लगा रहे थे। ऐसा लगा कि वे मछली पकड़ रहे हैं। हमने उनके पास जाकर पूछा, "कितनी मछली पकड़े हो, दिखाओ।" 

उन्होंने कहा "हम मछली नहीं पकड़ रहे हैं।" हमने पूछा "तो क्या कर रहे हो, नहा रहे हो?"

 बहुत पूछने पर एक बच्चे ने कहा, "हम 'पैसे' ढूंढ रहे हैं।"
 बच्चे का जवाब हैरान करने वाला था। हमने फिर पूछा "पैसा! क्या पैसा पानी में बह के आता है या यहां नहाने वाले पैसा डाल जाते हैं?"

 "नहीं" दोनों बच्चों ने जवाब दिया। उन्होंने कहा, "पुल से पार होते समय यात्री नदी में पैसे फेंकते हैं। हम उन्हीं पैसों को ढूँढ़ते हैं।" 

बात करते-करते भी बच्चे पानी में गोते लगाकर पैसा ढूँढने के प्रयास में लगे रहे। अब सूर्यास्त होने ही वाला था। दोनों बच्चे नदी की धारा से बाहर निकले।

 हमने पूछा "कितने पैसे मिले?" एक ने बताया तेरह रुपए और दूसरे ने कहा पांच। 

पूछने पर बच्चों ने बताया कि वे दोपहर 2 बजे से नदी में पैसे ढूँढ रहे थे। सड़क पुल फिर रेलवे पुल के नीचे करीब 4 घंटे गोता लगाने के बाद उन्हें इतने रुपए मिले थे। उन्होंने बताया कि रोज इतने रुपए नहीं मिलते, कभी 5-7 रुपए तो कभी एक सिक्का भी नहीं मिलता।

 हमने इन बच्चों के फोटो और वीडियो भी बनाए थे। वे विनम्रता से कहने लगे, " सर वाट्सएप में न डालिएगा, घर वालों को पता चल गया तो डाँट पड़ेगी।"

 "क्यों स्कूल नहीं जाते इसलिए? हमारे इस सवाल पर बच्चों ने जो सच्चाई बताई उसे भी जान लीजिए। 

एक बच्चा जो करीब 15 साल का था, बताया कि "आठवी के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई। मम्मी-पापा पत्थर खदान में मजदूरी करते थे। अब मम्मी बहुत बीमार है। उनके पैर की नस चिपक गई है। तीन-चार दिनों से उसे बहुत तेज बुखार भी है। उसे खरियाररोड एक बैगा के पास भी ले गए थे। कोई आराम नहीं मिला। पापा की कमाई कम है। मम्मी की गोली-पानी के लिए कुछ पैसे जुटा सकूँ यही सोचकर नदी में पैसा ढूँढने आया था। इससे पहले गाँव के ही एक हॉटल में काम करता था, लेकिन मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो छोड़ दिया।"

 दूसरा बच्चा जो महज 13 साल का था, उन्होंने बताया, "पापा नहीं हैं, उनकी मृत्यु हो चुकी है। मम्मी पत्थर खदान में मजदूरी करती हैं। पैसे की हमेशा तंगी रहती है। सुबह स्कूल जाता हूँ और छुट्टी के बाद नदी में पैसा ढूँढने आता हूँ, लेकिन रोज नहीं। रोज पैसा मिलता भी नहीं।"

सिक्कों की आस में ये बच्चे घंटों पानी में रहते हैं। धारा के नीचे आँखें खुली रखकर, साँसों को जितनी अधिक देर रोक सकते हैं उतनी देर तक रोके रखकर सिक्कों की तरह चमकती चीजों को टटोलते हैं। इस तरह लगातार मशक्कत के बाद कुछ सिक्के हाथ आ जाते हैं।

ये बच्चे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कोई 40 किमी दूर महासमुंद जिले की सीमा पर स्थित ग्राम घोड़ारी के हैं। 

महानदी के तट पर घोड़ारी जैसे कई गाँव हैं, जहाँ नदी ने मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं के लिए बहुत उदारता के साथ जीवन-साधन और अनुकूल वातावरण दिया है। 

नदी के पुराने सड़क पुल के नीचे की ओर मिट्टी के आकर्षक और सुरक्षित घरौंदे बनाकर जिस तरह परिंदे भरपूर आनंद से अपनी जिंदगी जी रहे हैं, इन गाँवों के वासिंदे भी जी सकते हैं। 

यहाँ की खदानों से करोड़ों रुपए के फर्शी पत्थर का उत्खनन होता है। नदी से रेत भी निकाली जाती है। शासन के खजाने में करोड़ों का राजस्व जाता है, लेकिन यहाँ के मूल निवासियों का जीवन कमोबेश वैसा ही है, जैसा कि उन बच्चों ने बताया। 

हमारे प्रदेश को प्रकृति ने भरपूर नेमतें बख्शी है और निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ ने तेजी से विकास किया है, यह नजर भी आता है, लेकिन उस पहलू को भी देखने की जरूरत है, जो आसानी से नज़र नहीं आता या नजरअंदाज कर दिया जाता है। 

नारों और जुमलों के शोर के साथ योजनाओं की तमाम गाड़ियाँ चलती हैं, किन्तु आम आदमी के सिर से उसी तरह गुजर जाती हैं, जिस तरह नदी ऊपर के पुल से गाड़ियाँ। उनसे कुछ फेंक भी दिए जाते हैं तो उसे पाने के लिए आम आदमी को वैसी ही जद्दोजहद करनी पड़ती है, जैसे इन बच्चों की दास्तां में प्रकाशित हुआ।

- ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छग)
9752111088

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मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

रण में विजय के लिए मां चण्डी की पूजा करते थे बाणासुर के सैनिक : मां चंडी सिद्ध शक्ति पीठ बिरकोनी, महासमुंद, छत्तीसगढ़ की रोचक कहानी


भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं बिरकोनी की मां चण्डी, भटके लोगों को बताती हैं राह

रणचण्डी की इतनी सुंदर पाषाण प्रतिमा अन्यत्र दुर्लभ

महासमुंद जिले के ग्राम बिरकोनी की पुण्यधरा पर अवस्थित आदिशक्ति स्वरूपा मां चण्डी का मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। यहां सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है।

 इस विश्वास भाव के प्रतिफल ही देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आते हैं और माता का दर्शन-पूजन कर अलौकिक सुख-शांति का अनुभव करते हैं।

यहां की मां चण्डी अद्वितीय सुंदरी हैं। काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित इतनी सुंदर रणचण्डी की प्रतिमा अत्यंत दुर्लभ है।

कहते हैं नवरात्र में हर रात मां के चेहरे का भाव परिवर्तन होता रहता है। कभी प्रचण्ड तेजस्विनी दिखती हैं, तो कभी सौम्य ममतामयी,
परन्तु हर रूप में वह मनोहारिणी हैं।

मां चण्डी की कीर्ति मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में है। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात वर्ष 2002 में शासन के निर्देश पर इस मातृशक्ति स्थल के संबंध में शिक्षक पोखन दास मानिकपुरी द्वारा यहां के बड़े-बुजुर्गों और जानकारों से रूबरू चर्चा कर  प्राप्त तथ्यों और जानकारी के आधार पर संकलन आलेख तैयार किया गया था। उस आलेख के अनुसार इस स्थल पर देवी कब से विराजमान हैं, इसका स्पष्टतः उत्तर बुजुर्गों के पास भी नहीं है। 

किन्तु जनस्रुतियों के आधार पर इसका इतिहास पौराणिक काल से शुरू होता है, जब श्रीपुर यानी वर्तमान सिरपुर बाणासुर की राजधानी थी। उसकी सैनिक छावनी बिरकोनी के पास थी। उनके सैनिकों ने ही रणचण्डी की प्रतिमा यहां एक टीले पर स्थापित की थी। युद्ध पर जाने से पूर्व वे विजय की कामना करते हुए मां चण्डी की पूजा करते और जयकारा लगाते हुए रणभूमि को प्रस्थान करते थे।

 कुछ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर प्राचीन राज्य सिरपुर या आरंग के सैनिकों की छावनी रही होगी। इस स्थान को बिरकोनी के पास महानदी किनारे स्थित ग्राम राजा बड़गांव में हुए हैहृयवंशी राजपूत ठाकुरों की सैनिक छावनी होने का अनुमान भी लगाया जाता है। 

अनुमान अलग-अलग होने के बावजूद एक तथ्य जो सभी स्वीकारते हैं, वह यह है कि इस देवी स्थल के आसपास सैनिकों की छावनी थी। वीर सैनिकों के रहने के कारण ही इस गांव का नाम 'बीरकोनी' पड़ा जो बाद में अपभ्रंश होकर 'बिरकोनी' हो गया। वर्तमान में मंदिर स्थल पर सैनिक छावनी होने के अनेक प्रमाण मौजूद हैं। 

मंदिर के रास्ते पर एक आयताकार क्षेत्र है, जिसे लोग 'हाथी गोड़रा' कहते हैं, जिसका अर्थ है हाथी रखने का स्थान। हाथी गोड़रा का भग्नावशेष यहां मौजूद है। युद्ध में जाने के पूर्व सैनिक मां चण्डी की पूजा-अर्चना करते थे। आज भी प्रतीकात्मक रूप से विजयादशमी पर्व के अवसर पर ऐसा किया जाता है। ग्रामीण पहले मां चण्डी मंदिर आकर पूजा-अर्चना करते हैं, फिर बस्ती में रामलीला का आयोजन होता है, जिसमें रावण का वध किया जाता है।

 माता के संबंध में एक किवदंती यह भी है कि उनका प्रारंभिक वास तुमगांव समीपस्थ ग्राम भोरिंग में था, किन्तु वे किसी बात से रूष्ठ होकर बिरकोनी आ गईं। भोरिंग के लोग आज भी मां चण्डी को ग्राम्य देवी की तरह पूजते हैं।

 मान्यता यह भी है कि बिरकोनी की मां चण्डी, बेमचा की मां खल्लारी और भीमखोज खल्लारी माता का आपस में बहन का नाता है। इसके संबंध में प्रचलित किवदंतियों के तार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।



बिरकोनी में मां चण्डी का मंदिर जिस स्थान पर है वह पहले वनाच्छादित था। कोरिया, कुर्रू व महुआ के पेड़ों की बहुलता थी। महुआ को स्थानीय बोली में मउहा कहा जाता है। महुआ पेड़ों की बहुलता के कारण ही इस वन क्षेत्र को मउहारी कहा जाता था। मउहारी क्षेत्र में चिंगरीडीह व चूहरीडीह नामक दो वनग्राम थे, जो अब नहीं हैं, लेकिन इन बस्तियों के नाम पर चिंगरिया और
चुहरी नामक तालाब आज भी हैं।

 स्थानीय निवासी जंगल के बीच पत्थरों के टीले पर विराजमान मां चण्डी को ग्राम्यदेवी के रूप में पूजते थे। चूंकि मउहारी वन में वन्यप्राणियों का स्वच्छंद विचरण होता था, इसलिए माता तक पहुंचना आसान नहीं था। तब भी एक बैगा दंपति माता की सेवा में लगी रहती थी। 

बताया जाता है कि बैगा भैयाराम यादव व उनकी पत्नी को माता की कृपा से कई सिद्धियां प्राप्त थीं। बैगा भैयाराम यादव की चमत्कारिक शक्तियों के रोचक किस्सों की चर्चा ग्रामीण आज भी करते हैं। दूर-दूर से दुःखी जन उनके पास आते थे और अपनी पीड़ा का समाधान पाते थे। बैगा भैयाराम पीड़ितजन को मां चण्डी की चरण-शरण होने के लिए प्रेरित करते थे।

 इस तरह मां चण्डी के प्रति लोगों की आस्था बढ़ती गई और इसकी कीर्ति मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में फैलती गई। बैगा भैयाराम यादव की समाधि मां चण्डी मंदिर के बाजू में ही स्थित है, लोग आज भी उन पर श्रद्धा के फूल चढ़ाते हैं।

 लोग बताते हैं, जब सड़क नहीं थी, तब जंगल के रास्ते पैदल ही आना जाना करते थे। कहते हैं कि जब लोग रास्ता भटक जाते थे तब मां चण्डी की मानव के रूप में प्रकट होकर उन्हें रास्ता बताती थीं।

 उस समय देवी के स्थल पर सर्पों का बसेरा होता था। नाग-नागिन के अलावा एक विशाल अजगर का भी लोग उल्लेख करते हैं, जो हर समय माता के ईर्द-गिर्द रहते थे। जब भव्य मंदिर निर्माण के लिए गर्भगृह से लगे एक पेड़ की कटाई की गई, तो उसके भीतर एक बड़े खोल में अजगर का विशाल कंकाल सुरक्षित मिला।

 नाग-नागिन के संबंध में कहा जाता है कि वे आज भी मंदिर के उत्तर-पश्चिम कोने में स्थित एक पुराने वट वृृृक्ष में वास करते हैं। लोग इस वट वृक्ष की पूजा करते हैं और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए लाल कपड़े में नारियल, सुपारी लपेटकर बांधते हैं। ऐसे भाव-बंधनों से यह वट-वृक्ष भरा हुआ है।

 वर्ष 1937-38 में जब ब्रिटिश शासन काल में रायपुर-विजयनगर रेल पांत बिछाई गई और महानदी में पुल निर्माण किया गया तब बिरकोनी की भूमि पर उपलब्ध ग्रेनाइट चट्टान के विशाल भंडार से गिट्टी, बोल्डर की ढुलाई की जा रही थी। उस समय महाराष्ट्र से आए ठेकेदार मजदूरी का भुगतान मां चण्डी की प्रतिमा के पास बैठकर करते थे। उन्होंने वहां पत्थरों से वर्गाकार चबूतरा बनाकर उस पर प्रतिमा को स्थापित कराया।

 स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस चबूतरे पर सीमेंट कंक्रीट का कमरानुमा मंदिर बनाया गया। यह निर्माण दाई भोरमबाई चंद्राकर के पुत्र बिसौहा चंद्राकर ने कराया था। 

कहते हैं कि भोरम बाई व गंगू चंद्राकर ने पुत्र प्राप्ति की कामना की थी, जिसे मां चण्डी ने पूरी की थी। दाई भोरम बाई चंद्राकर की इच्छा के अनुरूप पुत्र बिसौहा चंद्राकर ने यह मंदिर बनवाया। वर्षों बीत गए, मंदिर की यह संरचना भी पुरानी पड़ गई।

 इधर माता के दरबार मंे आने वाले श्रद्धालु पीने के पानी को तरस जाते थे। गांव के मजदूर लच्छीराम निषाद ने कुआं खोदने का निश्चय
किया और खुदाई शुरू की, लेकिन बीच में चट्टान आ गया। शासन से आर्थिक मदद मिलने पर वे चट्टान को भी तोड़ गए और कुछ दिनों बाद कुआं मीठे पानी से भर गया।

 इस चट्टानी भूमि पर कुआं और उसमें पानी देखकर लोगों में आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इसे माता का चमत्कार माना गया और लोग मंदिर विकास के लिए उत्साहित हुए। 

रामा चंद्राकर ने तब तक मंदिर के चारों ओर चबूतरे का विस्तार करा दिया था। गांव के दुर्गा समिति के सदस्यों ने मां चण्डी मंदिर के विकास में जुटने का निश्चय किया और मां चण्डी मंदिर विकास समिति का गठन किया। बलदाऊ चंद्राकर अध्यक्ष, दीनबंधु चंद्राकर उपाध्यक्ष, दामजी चंद्राकर सचिव, अशोक चंद्राकर कोषाध्यक्ष और ओमप्रकाश चंद्राकर संयोजक बनाए गए। 

अघोर पंथ के लहरी बाबा ने उन्हें मंदिर निर्माण के लिए प्रेरित किया। समिति के सदस्यों ने लाखों की लागत वाले भव्य मंदिर निर्माण की योजना बनाई, इसके लिए प्रारंभ में अपने बीच ही सहयोग राशि एकत्रित की। 

मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो जनसहयोग बढ़ता गया। मंदिर का भूमिपूजन तत्कालीन सांसद संत पवन दीवान ने किया। आगे भी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन का सहयोग मिलता गया और मंदिर का विकास होता गया। 

सड़क, बिजली, पानी की सुविधाओं के साथ ज्योति कक्ष, रंगमंच, यज्ञ शाला, सामुदायिक भवन आदि का निर्माण हुआ। रायपुर के इंजीनियर दिलीप पाणिग्रही द्वारा तैयार नक्शा के आधार पर व उनके मार्गदर्शन में करीब 51 लाख की लागत से अष्ट कोणीय भव्य मंदिर का निर्माण हुआ और पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की गरिमामय उपस्थिति में शिखर कलश की स्थापना हुई। 

आज इस मंदिर की शोभा देखते ही बनती है। करीब पांच दशक पूर्व बिरकोनी के लोकप्रिय सरपंच रहे दाऊ पोखन चंद्राकर चैत्र नवरात्र में भैयाराम बैगा के मार्गदर्शन में ज्योति प्रज्ज्वलित कराते थे। साथ ही आचार्य पं. उमाशंकर शर्मा द्वारा अष्टमी पर हवन-पूजन कराते थे।

 दाऊ पोखन चंद्राकर के अनुज खोमन चंद्राकर ने वर्ष 1981 में मां के मंदिर में प्रथम बार पांच मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित की गई। इसके बाद ज्योति कलशों की संख्या बढ़ती गई और आज इस देवी शक्तिपीठ में अखंड ज्योति के अलावा चैत्र और क्वांर नवरात्र में हजारों की संख्या में मनोकामना ज्योति कलश स्थापित की जाती है।

 नवरात्र में हजारों मनोकामना ज्योति कलशों की झिलमिल छटा दर्शनीय है। दोनों नवरात्र में मां चण्डी के दरबार में श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है। वहीं पौष पूर्णिमा पर मेला लगता है। 

वर्तमान में दिनेश्वर चंद्राकर की अध्यक्षता।में मंदिर कमेटी पूरी व्यवस्था का संचालन कर रही है। मां चण्डी का दरबार धर्म, आध्यात्म, कला, संस्कृति के संवर्धन का केन्द्र बना हुआ है।

स्थिति: मां चण्डी सिद्ध शक्तिपीठ बिरकोनी का यह प्रसिद्ध मंदिर बिरकोनी बस्ती की दक्षिण दिशा में लगभग डेढ़ किमी दूर स्थित है। यह गांव नेशनल हाइवे क्रमांक 53 पर महानदी के पूर्व में राजधानी रायपुर से लगभग 45 किमी और जिला मुख्यालय महासमुंद से लगभग 15 किमी दूर स्थित है। रायपुर-विशाखापट्टनम रेलमार्ग पर बेलसोंडा स्टेशन मंदिर के दक्षिण-पश्चिम में मात्र 2 किमी दूर है। इसका निकटतम हवाई अड्डा राजधानी रायपुर का माना स्थित स्वामी विवेकानंद हवाई अड्डा है।

प्रस्तुति एवं संपादन- 
 ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छग)

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मंगलवार, 13 जनवरी 2015

गीत..

...
तेरे नाम की चुटकी बनालूं,
बजाऊं दिन-रात सजना...बजाऊं दिन-रात सजना।
...
हर पल तेरा रूप निहारूं,
आंखें खोलूं या पलकें मूंदूं,
पुतरी में तुझको बसालूं,
नचाऊं दिन-रात सजना...नचाऊं दिन-रात सजना।
तेरे नाम की चुटकी बनालूं,
बजाऊं दिन-रात सजना...बजाऊं दिन-रात सजना।
...
चूड़ियां तेरे नाम की पहनूं,
बिन्दिया... तेरे नाम की...,
तेरे नाम की माला बनालूं,
जपूं मैं दिन-रात सजना...जपूं मैं दिन-रात सजना।
तेरे नाम की चुटकी बनालूं,
बजाऊं दिन-रात सजना...बजाऊं दिन-रात सजना।
...
तुम मालिक परमातम मेरे,
तुम मेरे अधिकारी...
तेरे प्रेम की जोग लगालूं,
पुकारूं दिन-रात 'सजना"...पुकारूं दिन-रात 'सजना"।
तेरे नाम की चुटकी बनालूं,
बजाऊं दिन-रात सजना...बजाऊं दिन-रात सजना।
...
-ललित मानिकपुरी, रायपुर (छग)

इतना ही फसाना है...

आसमां ने यूं देखा तिरछी नजर से,
लाल हो गई धरती मारे शरम से।
नींद से जागी, थी ले रही अंगड़ाई,
आसमां ने रंग दी चूनर किरण से।
रंग गए पौधे और रंग गए ताल,
जैसे रंग गए गेसू, रंग गए गाल।
पहाड़ों पर धूप सरकने लगी ऐसे,
आसमां की नजरें गुजरती सीने से।
मुंह धोकर धरती ने भी यूं मारा छींटा,
नीले आकाश पर बादलों का टीका।
ओस से भीगी ये पतली डगर ऐसी,
सिंदूरी सफर की आस कोई जैसी।
इस मोहब्बत का इतना ही फसाना है,
यूं सामने रहना और जुदाई का तराना है।
.........................
-ललित मानिकपुरी

सोमवार, 5 जनवरी 2015

आजा पिया...

चांद, सुरुज ना... भाए तारे...
आजा पिया घर में अंधियारे।
...
मन मंदिर में जोत जलाऊं,
तुम्हरी लौ से लौ लगाऊं,
अंतस का तम हरले आकर,
उर भर दे... उजियारे...
...
न फूलन की, न चंदन की,
महक न भाये ये बगियन की,

मन को तू महका दे आकर
प्रीत सुधा... बरसादे...
...
राह तकूं बस तोरे प्रियतम,
नाम रटूं बस तोरे प्रियतम,
सांसों की डोरी टूटत है
अब तो तू अपनाले....

...

(अपने ईष्ट को समर्पित)

 - ललित मानिकपुरी 

चलो यूं कर लें...

नए हैं दिन, नया साल, चलो यूं कर लें,
नए कदम, नई चाल, चलो यूं कर लें।
दिलों में रोप दें एक पौध,चलो चाहत की

मन हो जाएं बाग-बाग, चलो यूं कर लें।

...
तुम बनो चांद, चांदनी बिखेर दो अपनी,
मैं बनूं रात, मोहब्बत निसार दूं अपनी,
बना लें सेज सुनहरी, चलो सितारों की
नए सपने, नए हों ख्वाब,चलो यूं कर लें।

...
तुम्हे हो दर्द, तड़फकर जरा सा मैं देखूं,
तुम्हारी आह में मैं, अपनी कसक को देखूं,
हक एक-दूजे से मांगें, चलो देने का
मैं तुझे प्यार दूं, तुम चाह, चलो यूं कर लें।

....
-ललित मानिकपुरी

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

चिड़िया का जवाब....

जंगल में भयानक आग लग गई थी और जंगल के राजा शेर सहित सभी जानवर वहां से भाग रहे थे। तभी शेर ने एक छोटी-सी चिड़िया को जंगल की ओर जाते देखा। शेर ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रही हो। चिड़िया ने जवाब दिया कि मैं आग बुझाने जा रही हूं। शेर हंस पड़ा। उसने कहा कि तुम्हारी चोंच में जो महज दो बूंद पानी है, उससे तुम जंगल की इतनी बड़ी आग को कैसे बुझाओगी? उस चिड़िया ने जवाब दिया, कम से कम मैं अपने हिस्से का फर्ज तो निभा ही सकती हूं।
एक अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? इसका जवाब देते हुए ऑस्लो में शांति का नोबल पुरस्कार ग्रहण करने के बाद बाल अधिकारों के चितेरे श्री कैलाश सत्यार्थी ने लाखों लोगों की अंतरात्मा को झंकृत करे देने वाले अपने उद्बोधन में यह कहानी सुनाई, जो उन्होंने बचपन में सुनी थी। बंधुआ बच्चों की मुक्ति के लिए जीवन समर्पित करने वाले श्री कैलाश सत्यार्थी को बच्चों का मुक्तिदाता कहा जाता है, उन्होंने पिछले 30 सालों में 80 हजार बच्चों को मुक्ति दिलाई है। शांति के नोबल के वे बिलकुल सही हकदार थे, जो उन्हें मिला। हमें गर्व उन पर है।