सोमवार, 5 जनवरी 2015

आजा पिया...

चांद, सुरुज ना... भाए तारे...
आजा पिया घर में अंधियारे।
...
मन मंदिर में जोत जलाऊं,
तुम्हरी लौ से लौ लगाऊं,
अंतस का तम हरले आकर,
उर भर दे... उजियारे...
...
न फूलन की, न चंदन की,
महक न भाये ये बगियन की,

मन को तू महका दे आकर
प्रीत सुधा... बरसादे...
...
राह तकूं बस तोरे प्रियतम,
नाम रटूं बस तोरे प्रियतम,
सांसों की डोरी टूटत है
अब तो तू अपनाले....

...

(अपने ईष्ट को समर्पित)

 - ललित मानिकपुरी 

चलो यूं कर लें...

नए हैं दिन, नया साल, चलो यूं कर लें,
नए कदम, नई चाल, चलो यूं कर लें।
दिलों में रोप दें एक पौध,चलो चाहत की

मन हो जाएं बाग-बाग, चलो यूं कर लें।

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तुम बनो चांद, चांदनी बिखेर दो अपनी,
मैं बनूं रात, मोहब्बत निसार दूं अपनी,
बना लें सेज सुनहरी, चलो सितारों की
नए सपने, नए हों ख्वाब,चलो यूं कर लें।

...
तुम्हे हो दर्द, तड़फकर जरा सा मैं देखूं,
तुम्हारी आह में मैं, अपनी कसक को देखूं,
हक एक-दूजे से मांगें, चलो देने का
मैं तुझे प्यार दूं, तुम चाह, चलो यूं कर लें।

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-ललित मानिकपुरी

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

चिड़िया का जवाब....

जंगल में भयानक आग लग गई थी और जंगल के राजा शेर सहित सभी जानवर वहां से भाग रहे थे। तभी शेर ने एक छोटी-सी चिड़िया को जंगल की ओर जाते देखा। शेर ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रही हो। चिड़िया ने जवाब दिया कि मैं आग बुझाने जा रही हूं। शेर हंस पड़ा। उसने कहा कि तुम्हारी चोंच में जो महज दो बूंद पानी है, उससे तुम जंगल की इतनी बड़ी आग को कैसे बुझाओगी? उस चिड़िया ने जवाब दिया, कम से कम मैं अपने हिस्से का फर्ज तो निभा ही सकती हूं।
एक अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? इसका जवाब देते हुए ऑस्लो में शांति का नोबल पुरस्कार ग्रहण करने के बाद बाल अधिकारों के चितेरे श्री कैलाश सत्यार्थी ने लाखों लोगों की अंतरात्मा को झंकृत करे देने वाले अपने उद्बोधन में यह कहानी सुनाई, जो उन्होंने बचपन में सुनी थी। बंधुआ बच्चों की मुक्ति के लिए जीवन समर्पित करने वाले श्री कैलाश सत्यार्थी को बच्चों का मुक्तिदाता कहा जाता है, उन्होंने पिछले 30 सालों में 80 हजार बच्चों को मुक्ति दिलाई है। शांति के नोबल के वे बिलकुल सही हकदार थे, जो उन्हें मिला। हमें गर्व उन पर है।

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

लघुकथा-

अभागे...

''इससे ज्यादा अभागा और कौन होगा? जहां इतना बड़ा सत्संग-प्रवचन हो रहा है, वहां यह कंबल ओढ़कर सोया पड़ा रहता है।"" एक सत्संगी ने दूसरे सत्संगी से कहा। तब दूसरे ने भी उनके हां में हां मिलाते हुए कहा-''बिलकुल सही कहते हैं संत जी, पांच दिनों से देख रहा हूं यह आदमी सद्गुरु महाराज का भजन-प्रवचन सुनने के बजाय इसी तरह सोया रहता है। ठीक है सत्संग पंडाल काफी बड़ा है, लेकिन यह साधु-संतों और श्रद्धालुओं के लिए है। भंडारा में पेलकर नींद भाजने वाले के लिए यहां कोई जगह नहीं होनी चाहिए। देखो तो कितना खराब लगता है। यह अभागा नहीं, कुंभकर्ण है। राक्षस है। मानुष जनम पाकर भी पशु के समान है। भगाओ इसे।""
उनकी बातों का समर्थन करने वाले और कई मिल गए। फिर क्या था, सत्संग पंडाल से खींचते हुए लोगों ने उसे भगा दिया। दूसरे दिन पुन: प्रवचन का समय हुआ, रोज की तरह महराज के आने के पहले ही लोग पंडाल में पहुंचने लगे। लेकिन आज पंडाल का माहौल बहुत खराब था, चारों ओर जूठन-पत्तल बिखरे पड़े थे। चारों ओर गंदगी का आलम था। कहीं से गंदा पानी बहता आ रहा था, तो कहीं कीचड़ हो रहा था। पंडाल के आसपास मल-मूत्र और गंदगी से अंदर तक दुर्गंध फैल रही थी। ऐसे में न तो वहां किसी का प्रवचन में मन लग रहा था और न ही भोजन-भंडारा के प्रति रुचि हो रही थी। आयोजकों ने सोचा कि सत्संग स्थल का यह हाल कैसे हो गया। तमाम सदस्यों से पूछने-ताछने पर पता चला कि उन्होंने तो सफाई के लिए किसी को नियुक्त ही नहीं किया था। फिर सवाल उठा कि इसके पहले चार-पांच दिनों तक फिर यहां का वातावरण साफ-सुथरा कैसे था।
तभी प्रवचनकर्ता महराज जी को उस आदमी की याद आई। उन्होंने कहा -''मैं तड़के उठता था तो एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को यहां से कचरा उठाते देखता था। संभवत: वह सारी रात यह काम करता था। उसे फावड़ा लेकर नाली भी बनाते देखा था। कहां है वह।"" तभी कुछ सत्संगियों को ध्यान आया कि कहीं वही तो नहीं, जिसे हम ही लोगों ने मारपीट कर भगा दिया। तब महराज ने कहा- ''प्रवचन कहने और सुनने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसे अपने जीवन-व्यवहार में आत्मसात करना। हम अभागे हैं, एक इंसान को नहीं पहचान सके तो संत, सद्गुरु या परमेश्वर को क्या पहचान पाएंगे।""
-ललित दास मानिकपुरी

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

रामू हो गया रॉबर्ट



रामू हो गया रॉबर्ट, मीरू हो गई मारिया,
तोड़ते पत्थर और झोपड़ी घर-बार हैं।
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जूतों के भीतर से, झांक रही उंगलियां,
जुगाड़ के कोट में भी पैबंद हजार हैं।
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ये फटे हाल सांता, क्या बांटे खुशियां,
पेट में सूखा और मुंह पर डकार है।
...
रॉबर्ट हो गया राम, मारिया बन गई मीरा,
सामने वही पत्थर, हथौड़ी औजार है।
...
अब माथे पर तिलक है, मांग में सिंदूर,
पर हाथों में फफोले, पांवों में दनगार है।
...
ये राम भला क्या करे, दीपदान आज,
माटी का दिया, तेल को लाचार है।
...
 -ललित मानिकपुरी


सोमवार, 29 दिसंबर 2014

ठठा खेल थोड़ी है.…

रोग, शोक, दुःख, पीरा से मुक्ति
शादी पक्की, नौकरी में तरक्की,
सपने बेचकर अपना खजाना भरना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

टीवी पर चमत्कारों का विज्ञापन,
गुप्त कक्षों में कामसूत्र के आसन,
एक ध्यान में कुंडलियां जगा देना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।


आश्रम की आड़ में मस्ती-अय्याशी,
फिर भी श्रीश्री ब्रह्मचारी, संन्यासी,
होटल में बैठ त्रिकालदर्शी हो जाना,

ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

भक्ति के नाम पर भोग-विलास,
साधना के नाम पर लीला-रास,
सत्य के नाम पाखंड का डंका बजा देना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

ललित मानिकपुरी

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

16/12...

16/12...

 
रो रहा स्कूल
कक्षाएं स्तब्ध
श्याम पट के आगे
अंधेरा घना
फट गया दिल
किताबों का
कलम नि:शब्द
रह-रहकर
सुबकते बस्ते
अश्रु बहातीं
पानी बोतलें
जहर मांगते
टिफिन डिब्बे
कौन दे सांत्वना
दरों-दीवारों को
कौन समझाए
क्यारियों को
कैलेंडर शर्मिंदा
तारीख ही क्यूं बनी
16 दिसंबर