गुरुवार, 6 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहिनी

                                 उतलइन

                                                                                              - ललित दास मानिकपुरी

''अरे कहाँ जाबे रे, आज तो तोला स्कूल लेगिच के रइहौं।"" अइसे काहत अउ चंदू ल कुदावत-कुदावत गुरुजी कपड़ा सुद्धा तरिया म चभरंग ले कूद परिस। लद्दी म गोड़ बिछलगे, अउ गुरुजी चित गिरगे। ओला देख के चंदू कठ्ठलगे। ''बने होइस रे.., बने होइस"" काहत-काहत, तरिया म तउरत ए पार ले ओ पार भागगे।
एती गुरुजी लद्दी म सनाय गिरत-परत तरिया ले निकलिस, खोरावत-खोरावत अपन घर पहुँचिस। गोड़ लचक गे राहय। जस बेरा बितिस तस पीरा बाढ़िस। अब तो गुरुजी रेंगे घलो नइ सकत राहय। गुरुजी परछी म खटिया ऊपर गोड़ लमाए बइठे राहय। ''हे राम, हे भगवान"" जपत राहय। मने-मन खिसियावत राहय- ''सरकार के काहे, फरमान जारी कर दिस। 'हर लइका ल हर हाल म स्कूल म भर्ती करना हे, कोनो छूटना नइ चाही।" भले गुरुजी के परान छूट जाय। अरे महूँ चाहथँव,  गाँव के सबो लइका बनें स्कूल आवँय, पढ़ँय-लिखँय, फेर नइच आहीं तब मैं काय करिहौं। फेर न.. ही.., नवा कानून बन गे हे, 'नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम।" नौकरी म तलवार लटके हे, अब गोड़ टूटय ते, मूड़ फूटय, गाँवभर के लइका ल भर्ती करनचहे। हे राम, हे भगवान...। हे राम, हे भगवान...।""
ओतके बेरा चंदू ल धरके ओखर ददा मेघनाथ पहुँचिस। कथे-''गुरुजी..., ए गुरुजी, मोर लइका तोर काय बिगाड़े हे? तैं काबर कुदाथस एला?
गुरुजी चंदू के ददा डाहर देखके कथे। ''अरे मोला काय पूछथस मेघनाथ, तोर टूरा ल पूछ, ये नलायक काय करत रिहिस हे। मैं तो तोर लइका ल स्कूल म भर्ती करना चाहथौं। तीन घँव होगे, तुहँर घर जावत, तुमन तो मिलव नहीं, तोर टूरा घलो देखिस ते भागिस। अब का करँव? अँई, आज स्कूल म भर्ती करे के आखरी दिन आय। काली ले कक्षा लगना शुरू  हो जाही, आज एला भर्ती कराना जरूरी हे।""
अतका सुनिस ते चंदू अपन हाथ ल छोड़ाके पल्ला होगे।
गुरुजी कथे ''देखे भागगे न? अउ अब एती देख, काय बिगाड़े हे कथस न तोर टूरा ह, त देख बने"" गुरुजी अपन गोड़ ल देखइस।
''ए का होगे गुरुजी, तोर गोड़ कइसन फूल गे हे?"" मेघनाथ पूछिस।
गुरुजी सब बात ल बताइस '' मेघनाथ! तोर टूरा ह दिखत के सिधवा हे अउ बदमासी म अउवल हे।  बिजली खंभा म चढ़त रिहिस हे। ओ तो मैं स्कूल जावत देख परेंव, नइ ते तार म चटक के मर जतिस। चिल्लायेंव त उतर के भागे लागिस। पाए रतेंव त धर के स्कूल लेगेे रतेंव। फेर, तोर टूरा ह तरिया म कूद के तउरत भाग गे, अउ मैं मरत-मरत बाँचेंव।""
अतका सुनिस त मेघनाथ सरमिंदा होगे।
गुरुजी कथे '' मेघनाथ, ठाढ़े झन र, कुर्सी म बइठ। मोर बात के रिस झन करबे, तोर टूरा घातेच उतलइन हे। ओला स्कूल भेज। मैं ओला परेम से पढ़ाहूँ। सरकार के डाहर ले फोकट म किताब मिलही। मध्याह्न भोजन म रोज पेट भर खाय बर मिलही। अरे अउ का चाही। अभी ओहा इती-वोती किंचरत रइथे। अमरया म ए डारा ले ओ डारा सलगत रइथे। नइ ते यमराज कस भँइसा म बइठ के तरिया भर तउरत रइथे। उहाँ ले निकलही त बस्तीभर किंजरही। कभू साइकिल दुकान म बइठे रही त कभू बिजली वाला मन के पाछू-पाछू घूमत रही। अरे अइसने करही त काय करही जिनगी म?""
मेघनाथ कथे '' तैं काहत तो बने हस गुरुजी, फेर ओखर मनेच नइहे पढ़ई म, त काय करँव?""
गुरुजी किहिस ''काय करँव झन क, लइका के स्कूल में भर्ती होना अउ पढ़ना-लिखना जरूरी हे। अरे दाई-ददा ह लइका के पढ़ई बर चेत नइ करही त गुरुजीच ह काय करही।""
मेघनाथ कथे- '' मैं तो पउर साल के ओला स्कूल भेजहूँ कहेंव गुरुजी, फेर नोनी ल पाही-खेलाही कहिके ओखर दाई ह एसो राहन दे कहि दिस। अब टूरा घुमक्कड़ होगे हे। घरो म रही त ओला टोरही, ओला फोरही। काली रेडियो ल खोलके बिगाड़ दिस, अउ आज पंखा ल छिहीं-बिहीं कर दिस। खिसियाएंव त भागगे। अब काय करँव? जउन ओखर भाग म होही तउन बनही।
गुरुजी कथे- अरे लइका भर्ती नइ होही भइया, त सरकार ह मोर भाग ल बिगाड़ दीही। कइसनो करके तैं काली ओला स्कूल लान।
 बिहान दिन गुरुजी खोरावत-खोरावत स्कूल जाए बर निकलिस। स्कूल के तीरेच म पहुँचे रिहिस। ओतके बेरा लइका मन डराए-घबराए भागत-भागत निकलत रिहिन। ''चटकगे-चटकगे"" चिल्लावत रिहिन।
गुरुजी पूछिस ''का चटकगे रे, अउ तुमन काबर हँफरत भागत हावव?"" 
लइका मन बताइन- ''गुरुजी-गुरुजी, पंखा के तार टूट गे हे। राजू, मोहन अउ गोलू चटक गेहे।""
अतका सुनिस त गुरुजी के धकधकी चढ़गे। ए काय होगे भगवान, काहत हड़बड़ी म दउड़ परिस। जइसे दउड़िस, गोड़ के हाड़ा रटाक ले टूटे कस लागिस, अउ गुरुजीचक्कर खाके गिरगे। मुड़ी फूटगे, बेहोस होगे।
 तभे स्कूल के पाछू डाहर ले चंदू ह लइका मन के चिल्लई ल सुनगे दउड़त अइस। करेंट म चटके के बात ल सुनिस ते सिद्धा स्कूल के परछी डारह भागत गिस। कुर्सी ल पटकके रटाक ले टोरिस, अउ ओखर खूरा ल धर के तार ल भवाँ के मारिस, चटके लइका मन छटकके भुइयाँ म गिरिन।
चंदू देखिस कि बिजली तार ह लटकत हे, फेर कोनो चटक जही। अइसे कहिके टेबल ल, बिजली के मीटर डाहर तीर के चढ़गे, अउ मेन स्वीच ल गिरा दिस। तार म बिजली करेंट बंद होगे। फेर देखिस कि लइका मन बेहोस परे हे। दउड़त डॉक्टर ल बला के लान डरिस। बात ल सुनिस त गाँववाला मन घलो सकलागें।
डॉक्टर के दवई-पानी म तीनों लइका ठीक होंगे। गुरुजी ल घलो अराम लागिस। तब सब बात ल लइका मन गुरुजी ल बताइन। गुरुजी भौंचक होगे। ओला ये समझत देरी नइ लागिस कि बिजली वाला मन के संग किंजरत-किंजरत चंदू ह ये सब ज्ञान पाहे।
गुरुजी चंदू ला तीर म बलाके पोटार लिस, अउ किहिस- ''साबास बेटा, साबास। आज तैं अपन ये लइका मन के परान बचाके महूँ ल बचादेस। कतको कहेव सरपंच ल, स्कूल के छानी-परवा अउ बिजली-विजली के मरामत करा दे, फेर कोनो धियान नइ दिस। आज लइका मन ल कुछू हो जतिस, त मैं का जवाब देतेंव? चंदू ल कथे बेटा आज तैं देखा देस कि उतलइन नइ हस, बहुत हुसियार हस, फेर स्कूल काबर नइ आवस। अब ले रोज स्कूल आबे, मैं तोला पढ़ाहूं-लिखाहूं। एक दिन तें बहुत बड़े आदमी बनबे।""
गुरुजी के परेम पाके चंदू रोज स्कूल आए लगिस अउ पढ़ई में घलो अउवल होगे। एक दिन स्कूल म संदेस आइस, चंदू के चयन वीरता पुरस्कार बर होहे। घातेच उतलइन चंदू ह आज स्कूल अउ गाँव के गौरव बनगे।
                         ---------------------------------------------

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी : बइगा के बहू




                                                                                                                                      - ललित दास मानिकपुरी

अकड़म-बकड़म कउहा काड़ी... कोलिहा, कउवां, कारी नारी... भुतका, फुतका, मशान...  मैं तोर बाप, चल भाग, चल भाग.. जय भोले, जय संखर, जय घमखूरहा देवता .. हा फू..., हा फू..., हा फू...।

 बइगा मंतर मार के फूंकत हे। अंगना म बाहरी धर के एती-वोती कूदत हे। बीच म चूंदी-मू डी ल छरियाय, चउदा बछर के नोनी बही बरन बइठे हे। मुहाटी ले परछी के जात ले मनखे जुरियाय हे। ये देखके बइगा के बहू अकबकागे। कालेच गौना होके आए रिहिस। रात बितिस अउ बिहनिया बाहरे-बटोरे बर उठे रिहिस। मने मन सोंचत हे, ये का होवत हे? बहू ल कुरिया ले निकलत देख के ओखर सास बइगिन दाई ह ओखर तिर अइस। बहू ओला पूछीस- 'ये का होवत हे मां?" 

बइगिन दाई किहिस- 'सरपंच के नोनी ल भूत धर ले हे बहू।"
 
बइगा ह मंतर कुड़बुड़ावत, जोर-जोर से फूंकत हे। 'तैं जाबे ते नई जास" काहत अमली के गोजा ल धर लिस अउ नोनी ल फेर सटासट सोंटे लागिस। नोनी किकिया डरिस। बइगा ओखर हाथ ल धरके अंगरी ल कस के मुरकेट दिस, नख ल उखाने लागिस। पीरा के मारे नोनी  छटपटावत हे, रोवत-कलपत हे। बइगा बबा काहत हे-'अब देख भूत कइसे कल्हरत हे।" नोनी के चूंदी ल धर के बइगा लिमउ के रसा चटाइस अउ किहिस 'सरपंच अब उतर के तोर नोनी के भूत। ले जा एला।" 

सवा सौ रुपया भेंट करके सरपंच बइगा के पांव परिस। 'दार-चाउंर भेजवाहूं बबा" किहिस अउ अपन नोनी ल धर के लेगे। 

अइसने एक के पाछू  एक दसों झन ल बइगा झारिस-फूकिस। काखरो पेट पिरावत हे, त काखरो लइका नइ होवत हे। काखरो बइला गंवागे, त काखरो बाई पदोवत हे। सबके बीमारी अउ बिपत्ति के इलाज बइगा करा हे, झार-फूंक अउ ताबीज। एवज म दार-चांउर, रुपया-पइसा, दारू-कुकरा अइसे कतको जिनिस बइगा के अंगना म लोगन कुड़हो देवें। आजो मिलिस। बइगिन दाई ल हांक पारत बइगा कथे-'ए बइगिन... ले धर ओ पइसा।" 

पइसा ल झोंक के बइगिन अपन बहू ल अमरत कथे, 'ले बहू, अब तो घर तूहीं ल चलाना हे, पइसा ल तिहीं धर।"

'रिस झन करबे मां, फेर अइसन कमई के पइसा ल में छुवंव घलो नहीं।"- बहू किहिस। 
अतका सुनिस त बइगा तम-तमागे- 'का केहेस? का ये चोरी-चकारी के पइसा ए?" अरे बइगइ हमर धरम आय, ये हमर धरम के पइसा आय, लोगन हमर पांव पर के देथें। ये कमई ल नइ धरबे त का तोर घरवाला के टेलरी म घर चलही?
 
बहू ससुर के लिहाज राखत चुप होगे अउ कुरिया म खुसरके अपन गोसइयां सूरज ल उठाइस। सूरज कथरी ओ ढे कुहरत राहय। देहें लकलक ले तीपे राहय। बहू अपन सास ल चिल्लाइस-'मां देख तो एला का होगे?" पाछू-पाछू बइगा घलो आगे। सूरज ल देख के कथे- 'काली गांव ल आवत एला बाहरी हावा लग के तइसे लागथे।" बहू कथे- 'एला कोनो बाहरी हावा नइ लगे हे, एला जर धरे हे। अस्पताल लेगे बर परही।" बइगा कथे 'अस्पताल! अरे सारा संसार हमर अंगना म आथे, बने होय बर। हमर लइका ल का हम अस्पताल लेगबो?" अउ फेर दुनिया का कही?"
बइगा बबा नइ मानिस, झारे-फंूके लागिस। सूरज के कंपकंंपी छूटत राहय। बहू कथरी उपर कथरी ओ ढावत राहय। पहर बीत गे। देहेें ले तरतर-तरतर पछीना छूटिस त सूरज ल थोरिक बने लागिस। संझा बेरा देहेें फेर अंगरा होगे। बइगा भभूत धरके फेर फूंकिस। तीन दिन होगे जर धरत अउ उतरत। 

सूरज के दसा देखके बहू से रेहे नइ गिस। चुप साइकिल धरके निकलगे अउ पूछत-पाछत डेढ़ कोस दूरिहा आन गांव के डाक्टर ल बला के लान डरिस। सूरज आंखी कान ल छटियाय खटिया म परे राहय। बइगा-बइगिन मुड़ धर के बइठे राहंय। 

डाक्टर किहिस- "एला मलेरिया होगे हे तइसे लागत हे। खून जांच करे बर परही।" 

अतका सुनिस ते बइगा भड़कगे-"मलेरिया का होथे, मैं जानत हंव एला करंजन करे हे। अउ कोन करे हे? ये बहू करे हे। एही हर हे टोनही।"

 डाक्टर सब हाल ल बहू के मुंहू ले सुन डरे राहय। बइगा-बइगिन ल खिसियावत किहिस "अरे बहू ल टोनही काहत सरम नइ आय, ए पढे-लिखे हे, ए मोला बला के नइ लानतिस, ते ये आदमी नइ बांचतिस।"

 सूजी-दवई चलिस अउ सूरज बने होगे। अपन बाई ल कथे 'तंय मोर परान बचादेस लक्ष्मी, मैं तोर उपकार कइसे चुका हूं?" 

बहू अपन कान के झुमका ल हेर के ओखर हाथ म धरा दिस अउ किहिस- "एला बेच के मोर बर कम्प्यूटर लान दे। मैं गांव के लइका मन ल कम्प्यूटर सिखा हूं।"

 सूरज कम्प्यूटर लेके लानिस। बहू गांव के पढ़इया लइका मन ल कम्प्यूटर सिखाय लगिस। महिला मन के कपड़ा घलो खिलय। घर म पइसा सुघर आय लगिस अउ चार समाज म बेटा-बहू के संगे-संग बइगा-बइगिन के घलो मान होये लगिस त बइगा चेत अइस।
 एक दिन अपन बहू ल कथे- "बहू, लइका मन के पढ़े-लिखे बर परछी के जघा छोटे परत हे। ये कुरिया ल फोर के तोर बर मुंडा ढलवा देथंव।" 

बहू कथे- "बाबूजी ए कुरिया में तो देवता गड़े हे अउ एहां तो आप मन लड़का मन ल बइगई सिखाथव।"  

बइगा बबा कथे- "बेटी उमर पहागे फूंकत -झारत, कतको मरिन-कतको बांचिन। तें नइ होतेस त अपन एकलउता बेटा ल गंवा डारतेंव। भगवान मोर पाप के सजा मोर बेटा ल देवत रिहिस, तैं ओखर रक्षा करे। अउ मैं बइगई सिखा के काखरो जिनगी तो नइ बनाए सकेंव, तोर शिक्षा पाके जरूर गांव के लइका मन के जिनगी संवरही। तें जौन कम्पूटर लाने हंस, देवता करा उही ल मढ़ा दे। न रही बांस अउ न बजही बांसरी।"
(नईदुनिया में प्रकाशित और आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित) 

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी- गुवालीन



-ललित दास मानिकपुरी 

पूस पुन्नी के बड़े बिहनिया राजिम के तिरबेनी संगम म सूरुज के लाली घाम बगरत रिहिस। नदिया के पातर धार घलो दूरिहा ले चमकत रिहिस। अपन सा ढे चार साल के बाबू संग नदिया म उतरेंव। माड़ीभर पानी म जय गंगा मइया कहिके डुबकी लगाएंन त अइसे लागिस, जइसे बियाकुल जीव जुड़ागे। लइका घलो मारे खुसी के चाहके लागिस। फेर का, दोनों झन पानी छीत-छीत के अउ घोलन-घोलन के  नदिया नहाए के मजा लेवत रहेन।
घाम थोरकिन अउ बाढ़ गे। अब तो धार के तरी के रेती घलो चमके लागिस। उथली धार म बोहावत मोती कस सुंदर गोटर्री मन ल देख के बाबू बीने लागिस।तभे एक ठन गुवालीन दिखिस। जइसे नदिया के अथाह रेती म अकबकागे रिहिस अउ बाहिर निकले बर अपन दोनों हाथ ल टांगत रिहिस। बाबू ओला देखके झटकुन उचालीस। अउ खुसी ले चाहकत किहिस ''पापा, ये देख।""
जइसे कोनो हीरा पागे, माटी के गुवालीन के सुंदर मूर्ती ल देखके लइका गदगद होगे। पूछिस- ''पापा, ये का ये?""
में बताएंव- ''बेटा, ये गुवालीन ए।"" बाबू ल जइसे कुछू समझ नइ अइस, कथे- ''गुवालीन!"" 
में केहेंव- ''हां बेटा गुवालीन। जइसे हमन दीवाली के दिन लक्ष्मी माता के मूर्ती  के पूजा करथन, वइसेे गांव म गुवालीन के पूजा करे जाथे। तुलसी चौरा म मढ़ा के अउ दिया बार के एखर परनाम करे जाथे।  गुवालीन माने समझ ले, लक्ष्मी माता। देख, एखर मुड़ म दिया हे अउ दोनों हाथ म दिया हे। दिया बारे ले अंजोर होथे न, त बेटा ये अंजोर के देवी आय। अंधियार ल दूरिहा भगाथे। घर-दुवार अउ जिनगी म अंजोर भर देथे।""
बाबू कथे-''त पापा, ये गुवालीन ल हमन घर ले जाबो। हमर घर म सदा अंजोर रही।""
में केहेंव-''नहीं बेटा, ए गुवालीन ल कोनो दाई-माई ह नदिया म बिसरजन करे हे। एला इहें राहन दे, नदिया में। चल हमन चलबो।""
लइका के मन नइ मानत रिहिस, गुवालीन के चेहरा ल एकटक निहारत बाबू कथे-''पापा, देख तो गुवालीन रोवत हे।""
आंखी गड़ाके महू देखेंव। दोनों आंखी के तरी-तरी गाल के आवत ले परे चिनहा ल देख के सिरतोन म अइसे लागत रिहिस जइसे गुवालीन आंसू ढारत हे।
में केहेंव-''बेटा, नदिया के धार म बोहावत-बोहावत अउ रेती-कंकड़ म रगड़ाके गुवालीन के चेहरा म चिनहा पर गे हे। माटी के मूर्ती कहूं रोही? अब एला छोड़ अउ चल निकलबो। ज्यादा बेर ले बूड़े रबो त जुड़ धर लेही।""
 बात मान के बाबू, जइसे फेंके लागिस, गुवालीन कंठ फोर के चिल्लाइस, ''नहीं...।"" साक्षात परगट होगे। कहिस-''मत डारव मोला, थोरिक सुन लौ मोर गोठ।""
अकबकाके दोनों बाप-बेटा एक-दूसर ल पोटार के खूँटा कस गड़े रहिगेन। आंखी उघरे के उघरे रहिगे।
गुवालीन अइसे कि चेहरा चंदा कस चमकत रिहिस, काया माटी कस माहकत रिहिस, हरियर धार के लाली लुगरा पहिरे, दोनों हाथ म जगमग दिया अउ मुड़ म नांदी-कलसा बारे। अंग-अंग ले जइसे अंजोर फूटत रिहिस।
सुघ्घर परेम से किहिस- ''भइया तुमन सिरतोन जानेंव, में गुवालीन अंव। छत्तीसगढ़ महतारी के दुलउरीन बेटी अंव। कोन जनी काबर ते मोला अइसे लागत हे कि मोर छत्तीसगढ़ महतारी ल कोनो बात के पीरा हे। ओ पीरा ह महू ल जनावत हे। कांटा बनके हिरदे म गड़त हे। जी छटपटावत हे कहूं ल पूछ लेतेंव कहिके। भइया, तें कुछू जानथस का? बता न भइया बता न, का बात के पीरा हे मोर दाई ल?""
गुवालीन अइसे अधीर होके पूछत रिहिस हे जइसे ससुरार में उदुपहा अपन मइके के मनखे ल पाके कोनो बेटी ह पूछथे, अपन दाई-ददा के फिकर करत। में जान डरेंव, गुवालीन हमर छत्तीसगढ़ के चिंता करत हे, फेर मोर जुबान नइ खुलत रिहिस।
हमन ल चुप ठाढ़े देख के गुवालीन ह फेर करलई अकन ले उही बात किहिस। त झिझकत-झिझकत केहेंव-''गुवालीन मइया, तें फिकर झन कर, छत्तीसगढ़ म सब बने-बने हे। अब तो छत्तीसगढ़ के अलग राज बन गे हे। हमर रयपुर म हमर सरकार बइठे हे। जौन सबके हियाव करत हे। साहर से लेके गांव तक बिकास होवत हे। रयपुर तो चमकत हे। गांव मन के तसबीर घलो बदलत हे। छत्तीसगढ़ तो पूरा देस म नंबर एक राज बन गे हे। बड़े आदमी मन कार म घूमत हें, गरीबहा मन बर कारड बने हे। रुपया-दू रुपया म चांउर अउ फोकट म नून मिलत हे। इहां के जनता बहुत खुस हे मइया। फेर छत्तीसगढ़ महतारी ल का बात के दुख-पीरा होही।""
मोर गोठ ल सुनके गुवालीन के चेहरा म थोरिक सांति के भाव अइस। कथे- ''तें सिरतोन काहत हस न भइया? तोर गोठ ल सुनके बने लागिस। का करंव दाई बर संसो लागे रइथे।""
 अतका कहिके गुवालीन चुप होगे। फेर मोर बाबू ल दुलार करत कहिथे- ''कतेक पियारा हे बाबू। एखर हाथ परिस तभे में ये रूप म आके अपन हिरदे के बात ल केहे सकेंव अउ अपन महतारी के हाल-चाल ल जाने सकेंव। तें धन्य हस बेटा।""
में केहेंव-''मइया, ये तो मोर जइसे बनिहार अउ किसनहा के लइका आय। एखर हाथ म कोनो चमत्कार नइ हे। ये तो तोर मूर्ती ल देख के खुस होके उचालीस। माटी के तोर सुंदर नान-नान मूर्ती ल देखके गांव म हर लइका-सियान खुस हो जाथें।""
गुवालीन मुसकावत कथे- ''हां भइया, खुस काबर नइ होही।  देवारी तिहार के सुघ्घर मउका जउन रहिथे। खेत म धान के सोनहा बाली लहलहावत रहिथे। अन्न्कुमारी देवी के अइसन गजब रूप ल देख के मनखेच मन नहीं, चिरई-चिरगुन घलो मारे खुसी के चिहुं-चिहांवत रहिथे। अरे सुवा तो माटी के मूर्ती बनके सुवा नचइया बहिनी मन के टुकनी म बइठ जथे। गांव के हर घर, हर अंगना-दुवार म जाथे अउ सबला खुसी मनाए के संदेस देथे- घर म लक्ष्मी अवइया हे दीदी, अब हो जाव तियार। छूही-माटी झट करिलौ, चंउक पुरलौ अंगना-दुवार। फोरौ फटाका भइया अउ मनावौ देवारी तिहार।""
  गुवालीन के हिरदे के गोठ ल सुनके जइसे हमरो मन ह आनंद के धारा म डुबकइयां खेले लागिस। गुवालीन के अंग-अंग ले झरत परेम परकास म जाड़-घाम घलो नइ जनावत रिहिस। एती गुवालीन के आँखी म तउरत हे सुरता। सुरता, सोनहा दिन के।
 में केहेंव- ''हां मइया, देवारी के समे तो सबला बड़ सुघ्घर लागथे, चारो कोती खुसी के माहुल रहिथे अउ फटाका फूटत रहिथे। गाँव के गुड़ी-हाट म बइठ के कुम्हारीन दाई ह माटी के सुघ्घर दिया, नांदी, कलसा अउ गुवालीन बेचत रहिथे।  सुरहुति के दिन संझाती के बेरा घरो-घर सबले पहली तुलसी चौरा म तोर मूर्ती ल मढ़ाके दिया ल बारथें।""
गुवालीन कथे- ''हां भइया, दिया बार के कोठी-डोली, कुरिया, बारी, अँगना-दुवार सबो कोती झंकाथें। फेर थारी म दिया धर के घरो-घर बांटे ल जाथें। ये भाव ले कि काखरो घर अंधियार झन राहय अउ सबो घर सुख-सांति के परकास बगरय। घर-दुवार, गली-खोर, बारी-बखरी अउ पूरा गांव ह दिया मन के झिलमिल अंजोर म जगमगा जथे। कतेक सुघ्घर दिखथे। अइसे लागथे जइसे अकास के चंदैनी मन भुइयां म उतर गे हे।""
में केहेंव- ''हां गुवालीन मइया तोर किरपा ले पूरा गांव म जगमग अंजोर होथे, गौंटिया के बिल्डिंग होय चाहे बनिहार के खदर-कुरिया, सब जगा तोर किरपा के अंजोर बगरथे। हमर छत्तीसगढ़ के तिहीं तो लक्ष्मी आस। हमर भाग ए कि हमन अइसे भुइयां म जनम धरेन जिहां 'अंजोर के देवी" के पूजा करे के संस्कृति हे। ओ मानुस घलो धन्य हे जेन ह तोर मूर्ती के अइसे सरूप ल गढ़िस। मुड़ म दिया-कलसा सोहे अउ दोनों हाथ म दिया धरे। सादा सिंगार, भरे छत्तीसगढ़ महतारी के संस्कार।""
''गुवालीन मइया, ओ मानुस के मन म देवी के अइसे सरूप नइ अइस, जौन ह सोन-चांदी के सिक्का के ढेर अउ नोट के गड्डी मन के चकाचउंध म खड़े रहिथे, अउ जेवर-गाहना, मकुट पहिर के पइसा बरसावत रहिथे। छत्तीसगढ़ के गरीबहा, बनिहार, अउ कमिया समाज बर ओ हा धन के नइ, अंजोर के लक्ष्मी के कल्पना करिस। अइसे देवी ल पूजे के फल आय कि  इहां के मनखे मन अभाव अउ गरीबी म घलो सुख सांति ल पाइन। धन के जगा धान बर पसीना बोहाइन अउ छत्तीसगढ़ ल धान के कटोरा बनाइन। ओ मानुस के में चरन पखारंव।""
गुवालीन कथे- ''ओ मानुस तो मोर हिरदे म बसथे भइया। मोर अवतार करइया ल कइसे भुला सकथंव। ओखर वंसज मन के उपकार ल घलो नइ भुला सकंव। बड़ सुरता आथे गांव के कुम्हार बबा अउ कुम्हारीन दाई के। कइसे अपन हाथ ले सुघ्घर परेम से अउ कतिक मेहनत म बनावंय मोर मूर्ती। उंखर नोनी-बाबू मन घलो खुसी-खुसी हाथ बटावंय। खेत ले माटी खन के लानय। ओला सूखो के,  कुचर के, छानके, पानी म फिलोके पिसान बरोबर सानंय, अउ अपन  हाथ ले सुघ्घर मोर सरूप देवंय। फेर सूखो के भट्ठी म पकोवंय। फेर सोनहा, लाली अउ हरियर रंग बनाके मोर साज-सिंगार करंय। जइसे कोनो मयारू  बाप-महतारी बिदाई के बेरा अपन दुलउरीन बेटी के करथें।  मुड़ म नांदी-कलसा बोहा के अउ दोनों हाथ म दिया धरा के जइसे काहंय, जा दुलउरीन बेटी तें घर-घर अंजोर बगराबे।""
गुवालीन कथे- ''बांस के टुकना म मोर नान-नान मूर्ती अउ दिया, कलसा, नांदी धरके गु डी-हाट म बइठ जाय कुम्हारीन दाई। अउ ओला बिसइया भइया मन घलो बड़ संुदर भावना ले उंखर कला साधना अउ मेहनत के वाजिब दाम देवंय।""
में केहेंव- ''गुवालीन मइया, अब ओ दिन बिसर गे। अब नया जमाना आगे। नवां-नवां तकनीक आगे। अब माटी गूंथ-गूंथ के चाक म चढ़ाके हाथ ले गुवालीन बनाए के जमाना झर गे। अब तो प्लास्टर ऑफ पेरिस के मूर्ती बनथे, ओ भी सांचा में। ओमा रंग घलो चकाचक लगथे। गजब के सुंदर दिखथे अउ वइसने दाम म बिकथे।""
गुवालीन खुस होवत कथे- ''अच्छा! तब तो कुम्हारीन दाई ल बने पइसा मिलत होही। बजार ले लइका मन बर आनी-बानी के खई-खजानी लानत होही। सबो झन बने-बने खावत-पियत अउ पहिनत-ओढ़त होंही।""
में केहेंव- ''नइ मइया, अइसे बात नइ होय। तें ज्यादा खुस झन हो। अब तोर मूर्ती नइ बनय अब तो लक्ष्मी माता के मूर्ती बनथे।""
गुवालीन कथे- ''ये तो अउ बने बात ए। लक्ष्मी माता के अउ जादा किरपा होही। में तो अंजोरभर करथंव, लक्ष्मी माता तो धन के बरसा करहीं।"" 
में केहेंव- ''गुवालीन मइया लक्ष्मी माता के किरपा तो होवत हे, फेर उंखर उपर जेन मन कला-शिल्प के बड़े-बड़े सौदागर हें। भले कुछू कला झन जानय, पर कला के बैपार करे बर जानथें। कलाकार ल अंगरी म नचाए बर जानथें। उंखर मेहनत ले अपन दुकान सजाए बर जानथें। लक्ष्मी माता के मूर्ती या फोटू कोनो कुम्हार के घर म नइ बनय अउ न तो ओमन बेचंय। ओखर बाजार तो बड़े-बड़े साहर म लगथे। गांव के मनखे मन घलो साहर म जाके ओला बिसाथें। अउ संगे-संग बिजली के रंग-बिरंगा झालर लाइट घलों ले आथें। अब घर म सुरहुति दिया बारे के दिन घलो नदावत हे। बिजली के झालर लाइट लगाथें अउ बटन दबाते साठ जगमग अंजोर हो जथे। याहा महंगई के जमाना म तेल भर-भर के कोन दिया बारे सकही मइया, नेगहा चार दिया बरगे त बहुत होगे।""
''गुवालीन मइया तोर मूर्ती ल राखे बर अब तो घर म जगा घलो नइये। भाई बटवारा म अंगना खड़ागे। अंगना के तुलसी चौरा उजर गे। तुलसी महरानी घलो घर ले बिदा होगे। अब गमला म भोगइया कैक्टस के जमाना आगे। तुलसी के पौधा आँखी म गड़त रिहिस अउ कैक्टस के कांटा सुहाथे। मइया, तुलसी बर ठउर नइहे त तोर परवाह कोन करत हे। अब न तो माटी के कला के जमाना हे, न माटी से जुड़े कलाकार के। अब जमाना हे बजार के। सब जिनिस बजार म बेचावत हे।  गांव म कुम्हारीन दाई करा अब का बांच गे लोगन के बिसाए बर।""
''जेला आधुनिकता कथे, ओखर आंधी म माटी म जामे कला अउ संस्कृति के जर उसलगे। कतेक कुटीर उद्योग, हस्त सिल्पकारी अउ खेती ले जुड़े लोहार, बढ़ई मन के पारंपरिक बेवसाय के दिया बुतागे। कुम्हार मन के चाक टूट गे, धमन भठ्ठी फूट गे। माटी म प्राण फूकइया हाथ बर अब काम नइहे। कुम्हारीन दाई मन खपरा बनाके गुजर-बसर करत रिहिन। अब खपरा के दिन घलो पहा गे। छानी-परवा के जगा मुंडा ढलागे। नंदियाबइला अउ जांता-पोरा के खेलौना अब के लइका मन ल नइ भावय। ट्यूसन अउ होमवर्क ले उबर गे त उंखर हाथ कम्प्यूटर के माउस म माढ़े रइथे। नइ त आंखी टीबी म गड़े रइथे। माटी के बरतन तो अब भिखमंगा घलो नइ बउरय। ओ दिन घलो बिसरत जात हे, जब घरो-घर करसी भरे राहय। लकलकावत घाम अउ गर्मी म करसी के सीतल पानी ल पीके प्यासे भर नइ बुझावय आत्मा घलो जुड़ा जाय। अब करसी के जगा घर-घर म फ्रीज आगे। वइसने जात्रा म सुराही के संग छूट गे। अब बड़े-बड़े कंपनी के पाउच अउ बोतल म भरे पानी पीये के जमाना आगे। काला बतावंव मइया चिंता-फिकर म घुर-घुर के कुम्हार बबा के जीव छूट गे।  कुम्हारीन दाई अधिया गे। लोग-लइका मन चोरोबोचो होके कर्जा-बोड़ी म बुड़ा गे। पुस्तैनी काम-धंधा छूटगे अउ भटकत हे बनी-भूती करत।""
 अतका सुनिस ते गुवालीन के आँखी ले आँसू के धार तरतर-तरतर बोहाए लागिस। मोरो आंखी डबडबा गे। आंसू ल पोंछत गुवालीन पूछथे- '' त भइया का उंखर कोनो पूछइया नइये? इहां के सरकार डाहर ले घलो कुछू मदद नइ मिलय का?""
में केहेंव- ''गुवालीन मइया, कुम्हार मन के अइसे दसा ल देखके सरकार ह कतेक कुम्हार मन ल बिजली से चलइया चाक दिस।  फेर अब चाक म बनावंय का? अउ बनाही त पकावंय कइसे। जंगल उजर गे, लकड़ी सोना होगे। भट्ठी ल तपाहीं कामा? कोइला के भाव आसमान छूअत हे, अउ धान के भूसा चाउर ले मांहगा होगे हे। काला बतावंव मइया गोबर के छेना तक नोहरहा होगे हे। बस्ती बाढ़ गे, चरागन चपका गेे। गाय-गरू  के चरे बर जगा नइ हे। अब आदमी ट्रैक्टर-मोटर भले राख लेहीं, फेर चार ठन मवेशी राखे के हिम्मत नइ हे। अब तो गौ माता घलो घर ले विदा होगे मइया, धीरे-धरे कोठा सुन्न्ा पर गे। एक ओ दिन रिहिस, जब पंद्रही नइ बीते पाय घर म चांट-चांट के पेंऊस खावत रेहेन। अब तो गोबर बर तरसे ल होगे हे। भट्ठी के ईंधन बर छेना तो दूर, दुवारी ल लीपे बर घलो एक लोई गोबर नइ मिलत हे। वहू दिन लकठा गे हे जब गौरी-गनेस बनाए बर घलो गोबर बिसाए ल परही।  मल्टीनेशनल कंपनी मन गाय के फोटू लगे पैकेट म सूरा के गू भरके 'गाय का शुद्ध गोबर" के नाम ले बेचहीं।""
गुवालीन संग हमर गोठ चलते रिहिस। ओती बाबू के दाई ह माई लोगिन घाट म नहाके पूजा करे बर अगोरत रिहिस। असकटाके आ धमकिस। दूरिहा ले खिसियावत कथे, तुमन नदिया म बूड़ेच रहू कि निकलहू घलो। मंदिर म आरती शुरू  होगे हे। चलो झट निकलव।
गुवालीन कथे- ''भइया बड़ सुघ्घर हे तोर बहुरिया। पूजा के थारी धरे हे, अउ मंदिर जाय बर देखत हे। तब तक बाबू ह मोर कोरा ले उतर के अपन दाई करा दउड़ गे रिहिस।  ओखर कान म कुछु किहिस। अउ अंगरी धर के नदिया के धार म ले आनिस। गुवालीन मइया के किरपा होइस अउ ओखरो अंतस के आंखी उघर गे। मइया के दरसन पाके गदगद होगे। फेर का, तीनों झन आरती उतारेंन। गुवालीन मइया हाथ उठाके असीस दीस। खुसी राहव, सदा खुसी राहव।
में केहेंव- ''मइया, में तो गरीबहा किसनहा अंव, जेन दिन इहां के किसान अउ ओखर परिवार म खुसियाली आ जही, ओ दिन तो सिरतोन म छत्तीसगढ़ महतारी देवारी मनाही। वास्तव म ये किसान अउ किसानी के दुरगति के भुगतान ए कि गांव-समाज ले जुरमिल के जिये के भाव अउ संस्कृति ह मिटावत हे। खेती किसानी ह ये भावना के जर आय। जउन ह दुरभाग ले सुखावत हे। जर सुखाही त रूख बांचही? धीरे-धीरे पाना-डारा सब सुखा के गिर जाहीं। जइसे लोक कला, सिल्प, संस्कृति अउ साहित्य के चुपचाप सेवा-साधना करइया मन दुबरावत हें अउ एखर बैपार करइया मन दुहरावत हें।
गुवालीन कथे-भइगे भइया भइगे, में जान डरेंव। इहीच बात के पीरा म मोर छत्तीसगढ़ महतारी ह कुहरत हे, अउ इही पीरा ह मोरो करेजा म काँटा बन के गड़त हे। में का करंव दाई.. तोर दुख ल में कइसे  हरंव। कहिके गुवालीन रो डारिस।"" 
अतका सुनके मोर बाबू कथे- ''तुमन चिंता झन करौ पापा, में हंव न।""
 बाबू के गोठ सुनके गुवालीन के मुख म मुसकान दउड़ गे। बाबू ल अपन कोरा म पाके कथे- ''हां बेटा तें तो हस न। मोला भरोसा हे। फेंके-डारे माटी के गुवालीन ल उचा के अपन हिरदे ले लगाइया जिहां तोर जइसे लइका हंे, उहां के समाज एक दिन घपटे अंधियारी ल खेदार के सोनहा बिहान जरूर लाही।"" अतका कहिके गुवालीन अंतरध्यान होगे।
                                                                                                            
                                                                                                               9752111088


छत्तीसगढ़ : सुरमय बिहाव, अनूठे नेकचार





मुन्नी बदनाम हुई... जैसे दो-चार फिल्मी गाने डीजे या बैंड बाजे की धुन पर बजे, बाराती लटक-मटक के नाचे, बफे में दावत उड़ाई, दूल्हा-दुल्हन के फेरे हुए, दहेज का सामान समेटे और चलते बने। लो हो गई शादी। यह आज का दौर है, जो नगर, कस्बों से होते हुए देहातों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ का विशाल ग्राम्यांचल विवाह की उन गौरवशाली परंपराओं को समेटे हुए है, जिनमें रोचक व आदर्श रस्मों-रिवाजों की मनमोहक मोतियां गुथी हुई हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला शहरी या कस्बाई समाज भी विवाह के पारंपरिक रस्मों-रिवाजों से विलग नहीं है।
 छत्तीसगढ़ में जिसे 'बिहाव" कहा जाता है, वह एक युगल का मिलन मात्र नहीं है, वरन दो परिवार और दो कुल के अटूट संगम का मांगलिक उत्सव होता है। इस उत्सव से लोक गीत, संगीत और नृत्य का अभिन्न् रिश्ता है। कई जनजातियों में कुछ ऐसे भी लोक नृत्य और संगीत का प्रचलन है, जिसकी प्र भा में फूटा प्रेमांकुर उसी क्षण ही दो आत्माआंे को एकाकार कर उनके वैवाहिक जीवन का सूत्रपात कर देता है। नृत्य के दौरान ही युवक-युवतियां जीवन भर के लिए एक-दूसरे का हाथ थाम लेते हैं। यह चोरी-छिपे या अमर्यादित स्वछंदता के माहौल में नहीं वरन सामाजिक और पारिवारिक रजामंदी के सुरक्षित और सुखद वातावरण में होता है।

नाचते-नाचते चुन लेते हैं जीवन साथी

बस्तर के अबूझमाड़िया आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला 'ककसार उत्सव" अविवाहित युवक-युवतियों के लिए ऐसा ही एक अवसर होता है, जब वे अपने जीवन साथी का चयन कर वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। 'ककसार" का संबंध अबूझमाड़ियों की विशिष्ट मान्यता से है, जिसके अनुसार वर्ष की फसलों में जब-तक बालियां नहीं फूटतीं, स्त्री-पुरुषों का एकांत में मिलना वर्जित माना जाता है। बालियां फूट जाने पर ककसार उत्सव के माध्यम से यह वर्जना तोड़ दी जाती है। स्त्री-पुरुष अपने-अपने अर्धवृत्त बनाकर सारी रात नृत्य करते हैं। इस नृत्य में उसी धुन और ताल का प्रयोग किया जाता है, जो विवाह के समय प्र योग किया जाता है। गोड़ एवं बैगा जनजातियों का लोकप्रिय 'बिलमा" नृत्य भी ऐसा लोकनृत्य है, जिसमें अविवाहित युवतियां विशेष सजधज कर टोलियों में एक गांव से दूसरे गांव नृत्य करने जाती हैं और नृत्य करते-करते अपने जीवन साथी का चुनाव कर इस नृत्य के नाम को सार्थक करती हैं।

हाथी पर सवार होकर नाचता है समधी

इसी तरह विवाह के अवसर पर विभिन्न् जाति-जनजातियों में उनके विशेष गीत, संगीत और नृत्य का आयोजन होता है। बैगा जनजाति में विवाह के समय 'परघोनी" नृत्य का प्रचलन है। बारात की अगुवानी के समय खटिया, सूप, कम्बल आदि से हाथी बनाया जाता है। उस पर समधी को बैठाकर नगा डा एवं टिमकी के धुन पर गाते हुए नचाया जाता है। वहीं हाथी के आगे दुल्हन खड़ी होती है। यह एक तरह से हास-परिहास का क्षण होता है, जिसमें दुल्हन भी शामिल होती है।

 'बिरहा" की होड़

गोंड़ व बैगा आदिवासियों में विवाह के अवसर पर 'बिरहा" गाने की प्रथा है। यह श्रृंगारपरक विरह गीत है, जिसमें प्राय: लड़की के विरह का वर्णन होता है। यह प्रश्न पूछने के अंदाज में ऊंची टेर लगाकर पुरुषों द्वारा गाया जाता है। कभी-कभी स्त्री-पुरुष दोनों गाते हैं। इस अवस्था में स्त्री-पुरुषों के मध्य सवाल-जवाब होता है। बारात में तो बिरहा गाने की होड़ देखी जाती है। बस्तर में पाई जाने वाली दोरला जनजाति विभिन्न् पर्वों के साथ-साथ विवाह के अवसर पर 'दोरला" नृत्य करती हैं। वहीं विवाह में खास तौर पर 'पेण्हुल"नृत्य करने की परिपाटी है। एक विशेष प्रकार के ढोल के साथ स्त्रियां रहके और बट्टा पहनकर तथा पुरुष पंचे, कुसमा एवं रूमाल पहनकर खूब नाचते हैं। बस्तर में भतरा, परजा एवं धुरवा जनजातियों में भी यह नृत्य प्रचलित हैं।

'धनुष-बाण" लेकर आता है दूल्हा

  छत्तीसगढ़ में विवाह के कई रस्मों-रिवाज भी रोचक हैं। शिकार के लिए बांस से बने धनुष तथा घानन वृक्ष की लकड़ी से बने बाण का प्रयोग करने वाले धनवार जनजाति के लोगों में, दूल्हा विवाह के समय भी धनुष बाण लेकर आता है।

'वधूधन" देने की प्रथा

गोंड़, कोरबा, कोरकू, ओरांव आदि जनजातियों में विवाह के समय वधू धन देने की प्रथा है। यह दहेज प्रथा के बिलकुल उलट है। इस प्रथा में वधू के पिता को वर पक्ष के द्वारा एक निश्चित मात्रा में धन दिया जाता है, जो दोनों पक्षों को मंजूर होता है। हालांकि कई बार वधू धन के लिए कुछ अकड़ भी दिखाई जाती है। 

लड़की पकड़े नोट, तो रिश्ता मंजूर

छत्तीसगढ़ की पिछड़ी और सामान्य जातियों मे वैवाहिक कार्यक्रम प्राय: तीन दिनों का होता है। पहले दिन तेल, दूसरे दिन मायन और तीसरे दिन बारात। इन तीन दिनों में कई रस्में बाजे-गाजे के साथ निभाई जाती हैं, जिनमें निहित आशय और मान्यताएं भी कम रोचक नहीं।
विवाह पूर्व मंगनी यानी सगाई की रस्म में कन्या को रुपए पकड़ाए जाते हैं। इसे पैसा धराना कहते हैं। लड़की को प्रेमपूर्वक पैसा पकड़ाने का आशय है कि, अब तुम हमारी हो। लड़की भी प्रेमपूर्वक पैसे पकड़ती है, इससे यह पता चलता है कि यह रिश्ता उसे स्वीकार है। वस्त्र, आभूषण व कलेवा लेकर कन्या का हाथ मांगने के लिए पहुंचा वर पक्ष का मुखिया कन्या को यह चीजें भेंट करता है। इस अवसर पर अंगूठी पहनाने की परंपरा भी प्रचलित है।

प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन

अन्य क्षेत्रों में जहां विवाह के समय घर के प्रवेश द्वार की साज-सज्जा पर विश्ोष ध्यान दिया जाता है। दरवाजे के आसपास ऐसी कोई चीज नहीं रहने दी जाती जिससे कि वहां की शोभा बिगड़े। वहीं ग्राम्य अंचल में विवाह कार्यक्रम में सर्वप्रथम जो कार्य होता है वह है प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन। घर के प्रवेश द्वार पर बांस के सहारे विचित्र कुरूप आकृतियां टांगी जाती है। यह आकृतियां अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं। कहीं सूखे काश या पैरा का पुतला बनाकर व पुराना कपड़ा पहनाकर टांगा जाता है, तो कहीं गोबर के पांच-सात कंडों के ऊपर प्याज रखकर टांगे जाते हैं। यह एक तरह से टोटका है, जिसके पीछे भाव यह है कि विवाह कार्यक्रम और उसमें शामिल होने वाले लोगों को किसी की नजर न लगे।

हरियाली भरी छांव में होती हैं रस्में

विवाह कार्यक्र म के पहले दिन मड़वा छाने अर्थात मंडपाच्छादन की रस्म होती है। मड़वा, हरीतिमा का प्रतीक है। इसे हरियर मड़वा भी कहते हैं। डूमर, चिरईजाम (जामुन), आम या महुआ की हरी-भरी डालियों से मड़वा का आच्छादन किया जाता है। इसकी शीतल छांव में विवाह की सभी रस्म संपन्न् होती हैं। शामियाना लगाने वाले लोग भी इन पेड़ों की कुछ डालियां जरूर लगाते हैं।

दूल्हा के बाद चूल्हा का महत्व

विवाह कार्यक्र म में दूल्हा, दुल्हन के बाद चूल्हा का बड़ा महत्व होता है।
मंडपाच्छादन के दिन ही चुलमाटी की रस्म होती है। दामाद या फूफा के साथ वर-वधु की मां, चाची या बड़ी मां देवस्थल या गांव के उस स्थल से सात टोकरी में मिट्टी लाते हैं, जहां कोई फसल न उगी हो, अर्थात-कुवांरी मिट्टी। पूजापाठ करके मिट्टी खुदाई का कार्य दामाद या फूफा करते हैं। मां, चाची या बड़ी मां उस मिट्टी को अपने आंचल में लेती हैं और सम्मानपूर्वक बाजे-गाजे के साथ घर लाकर उससे चूल्हा निर्मित करते हैं। इस नेंग का आशय है कि देवस्थल की मिट्टी से निर्मित चूल्हा का भोजन-पकवान आशीष से भरा हो। इसी दिन तेलमाटी की भी रस्म होती है। तेलमाटी भी चूलमाटी की तरह देवस्थल या गांव में निर्धारित स्थल से लाई जाती है। इस मिट्टी को म डवा के नीचे रखा जाता है, जिसके ऊपर मड़वाबांस व मंगरोहन स्थापित होता है। इस रस्म के पीछे मड़वास्थल पर देवताओं के वास का भाव है। इन रस्मों में मिट्टी की खुदाई के दौरान स्त्री-पुरुष रिश्तेदारों के बीच हंसी-मजाक के रूप में गीत गाया जाता है।
तोला माटी कोड़े ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन बहिनी ल तीर धीरे-धीरे।
तोला पर्रा बोहे ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन भाई ल तीर धीरे-धीरे।
......................

लकड़ी से होती है लड़के-लड़की की शादी

प्राय: हर मड़वा में विवाह के पूर्व लड़के व लड़की की शादी 'लकड़ी" से कराई जाती है। जिसे मंगरोहन कहा जाता है। मंगरोहन मूलत: मंगलकाष्ठ है, जिसे डूमर या चार की लकड़ी से बनाया जाता है। फीटभर की लकड़ी को बैगा या बढ़ई के घर मंगरोहन का स्वरूप दिया जाता है। मंगरोहन निर्माण पश्चात बाजे-गाजे के साथ बैगा के घर से परघाकर मड़वास्थल तक लाया जाता है। यहांॅ छिंद की पत्ती का तेलमौरी बनाकर उसमें बांॅधते हैं तथा मड़वा के तले स्थापित करते हैं। सर्वप्रथम दुल्हा-दुल्हन की शादी मंगरोहन के साथ होती है, ताकि किसी प्रकार का अनिष्ट न हो।

हल्द्रालेपन का हक सिर्फ महिलाओं को

दूसरे दिन मायन और देवतला का नेंग होता है। इसमें देवी-देवताओं को तेल-हल्दी चढ़ाते हैं और शेष तेल-हल्दी को वर-वधु को चढ़ाते हैं, ताकि विवाह निर्विघ्न संपन्न् हो। खास बात यह है कि दुल्हा-दुल्हन को हरिद्रालेपन का अधिकार सिर्फ महिलाओं को है। महिलाएं ही वर-वधु को तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म निभाती है। इस दौरान हल्दी, कलशा और बांस के पर्रा को लेकर गीत गाने की परंपरा है।
एक तेल चढ़गे...
एक तेल चढ़गे ओ दाई हरियर-हरियर,
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुमलाय।
.......................

हरदाही पर होती है हल्दी की होली

 संध्याकाल 'हरदाही" खेलते हैं।  होली में जैसे एक-दूसरे पर रंग-गुलाल लगाया जाता है, उसी तरह इसमें पीसी हुई कच्ची हल्दी एक-दूसरे पर लगाई जाती है। इस अवसर का महिलाएं खूब आनंद लेती हैं। इस दिन 'चिकट" का भी नेंग होता है। मामा पक्ष से वस्त्र, उपहार आदि वर-वधु के माता-पिता के लिए आता है, इसे भेंटकर हल्दी लगाते हैं। इसका उद्देश्य आपस में मधुरता बढ़ाने से है।

खाट पर होती है नहडोरी की रस्म

तीसरे दिन नहडोरी की रस्म में वर-वधु के लेपित हल्दी को धुलाने का कार्यक्र म होता है। वर-वधु को उनके घरों में खाट पर बिठाकर स्नान कराया जाता है, ताकि बारात व भांवर के लिए उन्हें सजाया-सवांरा जा सके। नहडोरी के बाद मौली धागा को घुमाकर वर-वधु के हाथों में आम पत्ता के साथ बांधते हैं। इसी को कंकन कहते हैं। तत्पश्चात मौर सौंपने की रस्म होती है। मौर का अर्थ होता है मुकुट, राजा-महाराजाओं का श्रृंगार तथा जिम्मेदारी का प्रतीक। मौर धारण कर दूल्हा, दूल्हा राजा बन जाता है। मौर सौंपने का आशय वर को भावी जीवन के लिए आशीष व उत्तरदायित्व प्रदान करना है। आंगन में चौक पूर कर पी ढा रखते हैं, वर को उस पर खड़ाकर या कुर्सी पर बिठाकर सर्वप्रथम मां पश्चात काकी, मामी, बड़ी बहनें व सुवासिन सहित सात महिलाएं मौर सौंपती हैं। इस पल का सुंदर गीत है-
पहिरव ओ दाई... पहिरव ओ दाई,
मोर सोन कइ कपड़ा, दाई सोन कइ कपड़ा,
सौंपंव ओ दाई मोर माथे के मटुक।
---------------

बारात का मधुर क्षण 'भड़ौनी"

बारातियांे का वधु पक्ष की ओर से जोर शोर से स्वागत किया जाता है। दोनों पक्ष के समधियों का मिलन होता है, जिसे समधी भेंट कहते हैं। अनेक जातियों में बारात स्वागत के दौरान भड़ौनी गायन की परंपरा है। इसमें बारातियों का एक पक्ष तो कन्या पक्ष की महिलाओं का दूसरा पक्ष होती हंै। दोनों पक्ष हंसी-ठिठोली के रूप में एक-दूसरे को छेड़ते हुए गीत गाते हैं। इस अवसर एक लोकगीत है-
नदिया तिर के पटवा भाजी पटपट करथे रे,
आए हे बरतिया मन हा मटमट-मटमट करथे रे।
मटमट-मटमट करथस समधिन मारतहस ऊचाटा वो,
दुलहीन होगे दुल्हा के अब तैंहा मोरे बांटा वो।
---------

 धेनु गाय का आदर्श टिकावन

पाणिग्र हण की रस्म में वधू के पिता वर के हाथ में वधू का हाथ रखकर तथा उसमें आटे की लोई रखकर धागे से बांधते हैं। तत्पश्चात वर तथा वधू के पैर के अंगूठों को दूध से धोकर माथे पर चांवल का टीका लगाते हैं। यह विवाह की महत्वपूर्ण रस्म, जिसमें वर द्वारा वधू की ताउम्र  जिम्मेदारी निभाने तथा वधू का समर्पण का भाव निहित है। इसके साथ ही टिकावन यानी दहेज देने की रस्म होती है। लोकगीतों में टिकावन का आशय स्पष्ट है।-
कोन तोला टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि कोना तोला टिकय धेनु गाय
दाई तोर टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि ददा तोर टिकय धेनु गाय

सात भांवर, सात वचन

अब होती है भांवर यानी फेरा की रस्म। भांवर महज परिक्रमा नहीं है, हर भांवर के साथ वधू को अपने बचपन के आंगन से बिछुड़ने का अहसास होता है और प्रत्येक भांवर अनजाने से नाता जुड़ने का बोध कराता है। भांवर के बाद मांग भरने की रस्म। सिंदूर सुहाग का प्रतीक है। मांग भरने के बाद वधु सुहागिन हो जाती है तथा पतिव्र त धर्म पालन के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है। इस रस्म में वर द्वारा वधु के मांग में सात बार बंदन या सिंदूर लगाया जाता है। वामांग में आने के पूर्व वधू वर से सात वचन मांगती है और वर सात वचन देता है।

जा बेटी अब मायके की सुध मत करना

विवाह में विदाई की अहम रस्म होती है। यह क्षण बहुत भावुकता भरा होता है। बाबुल यानी पिता के घर से अपने घर की ओर जाती है वधु। सभी प्रि यजन विदाई देते हैं। बचपन की सखियां, पिता का दुलार, मां की गोद, भाई के स्नेह, बहनों के प्यार से बने घर-आंगन को छोड़कर कन्या अब अपने नए घर की ओर चलती है। भीगी आंखों से अपनी लाडली को विदा करते स्वजनों की ओर की देखते अपरिचित की आंखें भी छलक जाती हैं। हाथ में धान भरकर पीछे की ओर उछालती बेटी मायके की कामना करती है। विदाई है नवसृजन के लिए पुनर्जन्म। इस अवसर के लिए भावुकता भरा यह गीत है-
जा दुलौरीन बेटी तैं मइके के सुध झन लमाबे।
सास ससुर के सेवा ल करबे मइके के सुध लमाबे।।

वर के घर भी होता है टिकावन

वधू का ब्याह कर लाने के बाद वर के घर में भी टिकावन होता है।  इससे पूर्व डोला परछन और कंकन मौर की रस्म होती है। जो मूलत: वर-वधु के संकोच को दूर करने का उपक्रम है। इसमें कन्या के घर से लाये लोचन पानी को एक परात में रखकर दूल्हा-दुल्हन का म डवा के पास एक-दूसरे का कंकन छु डवाया जाता है। फिर लोचन पानी में कौड़ी, सिक्का, मुंदरी, माला खेलाते हैं, जिसमें वर एक हाथ से तथा वधू दोनों हाथ से सिक्का को ढूंढते हैं। जो सिक्का पाता वह जीत जाता है।

कन्या के घर से निकलती है बारात

 छत्तीसगढ़ में कई जाति समाजों में कन्या पक्ष वाले भी वर के घर बारात लेकर जाते हैं। इसे चौथिया बारात कहा जाता है। इस बारात के बाराती अधिकांश महिलाएं होती हैं। वर पक्ष के बाराती जहां कन्या को उसके मायके से ससुराल ले आते हैं, वहीं कन्या पक्ष की बाराती महिलाएं कन्या को दूल्हे के घर से वापस ले आती हैं। कुछ दिनों बाद गौना का नेंग होता है। इसमें दूल्हा, दुल्हन को लिवाने आता है। तब उसके साथ दुल्हन को विदा किया जाता है। 

विवाह का प्रतिनिधि साज 'मोहरी"

छत्तीसगढ़ में विवाह का प्रतिनिधि साज है 'मोहरी।" शहनाई की तरह यह भी मुंह से फूंककर बजाया जाने वाला कठिन वाद्य है। 'मोहरी" का प्रभावी स्वर जहांॅ भाव-विभोर कर देता है, वहीं इसके साथी वाद्य 'निसान" नाचने के लिए विवश कर देता है। डफड़ा, टिमऊ और झुमका छत्तीसगढ़ के विवाह संगीत को और समृद्ध करते हैं।

-  ललित दास मानिकपुरी

रायपुर (छत्तीसगढ़)
('कादम्बिनी" जुलाई 2012 के अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

मृत्यु के बाद भी मानवता की अनंत सेवा



 आजीवन जनता की सेवा करते रहे ज्योति बसु मृत्यु के बाद भी दीन-दुखियों, पीड़ित और बीमारजनों की सेवा करते रहेंगे। मानवता की अनंत सेवा की उनकी कामना ही है कि उन्होंने देहदान किया। धार्मिक, सामाजिक और सांसारिक कर्मकांडों के भयानक मकड़जाल से स्वयं को मुक्त कर इस महामानव ने ऐसी मिसाल रखी जो मिथ्या मान्यताओं के निरा अंधकार में प्रकाशपुंज बनकर समाज का मार्गदर्शन करेगा। नि:संदेह देहदान एक साहस भरा कदम है और भारत ऐसे लाखों साहसी व्यक्तित्वों से भरा पड़ा है। अकेले पश्चिम बंगाल में ज्याति बसु जैसे नामचीन हस्तियों सहित लगभग सात लाख लोगों ने देहदान किया है। छत्तीसगढ़ में भी कई देहदानी हुए हैं। किन्तु अब भी समाज में बहुतेरे लोग देहदान के प्रति शंका-कुशंकाओं से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
  व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत समाज में जीवात्मा की मुक्ति के नाम पर नाना प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं। कर्मकांडों का अपना महत्व हो सकता है किन्तु इसके बिना जीवात्मा की मुक्ति नहीं होगी, यह सोचना कितना सही है? अलग-अलग धर्म-संप्रदायों या जाति-समाजों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। यहां मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, लेकिन देह दान के संबंध में जब ऐसी अनेक मान्यताएं और शंकाएं आड़े आ रही हों तो इनका निवारण करने की आवश्यकता भी महसूस होती है। देहदान करने वाले का अंतिम क्रि या-कर्म उसके परिजनों द्वारा प्रचलित धार्मिक सामाजिक मान्यताओं के अनुसार नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका शव चिकित्सा विज्ञान छात्रों के व्यावहारिक अध्ययन के लिए रख लिया जाता है। धार्मिक मान्यताओं और संदेहों की बेड़ियों में जकड़ी मानसिकता के कारण लोग चिकित्सा जगत को बहुत आवश्यता होने के बाद भी देहदान के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। अलग-अलग धर्म-संप्रदायों व जाति-समाजों में अंतिम क्रि याकर्म की अलग-अलग रीति है। किसी का अग्नि संस्कार किया जाता है तो किसी को जमीन मे दफ्न किया जाता है। अग्नि संस्कार करने वाले यदि यह मानते हैं कि अग्नि संस्कार करने से ही जीवात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो क्या जो दफ्न किए जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिलती? और यदि दफ्न करने वालों की मान्यता के अनुसार दफनाने से ही मुक्ति मिलती है तो क्या अग्नि संस्कार में जल जाने वालों को मुक्ति नहीं मिलती? यदि दोनों विधि से अंतिम क्रि याकर्म करने पर मृतात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो मृतात्मा की मुक्ति का कोई तीसरा, चौथा या पांचवा उपाय भी हो सकता है। यह उपाय देहदान का क्यों नहीं ?
अंतिम क्रिया कर्म का प्रावधान या व्यवस्था तो सिर्फ मृत देह के निस्तार के लिए है। उसका निस्तार नहीं करने पर उसमें कीड़े लगेंगे, दुर्गंध आएगा और वातावरण प्रदूषित होगा। इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न् होंगी, बीमारियां फैलेंगी। इससे उन लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचेगी जो मृतक से भावनात्मक रूप से संबंध रखते हैं। इसलिए मृत देह का अंतिम क्रियाकर्म सम्मानजनक ढंग से कर दिया जाता है। सभ्य समाज में यह अच्छा भी नहीं लगेगा और न ही उचित होगा कि कोई मनुष्य का शव सड़ता-गलता प डा रहे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जीवात्मा जिस क्षण किसी शरीर का त्याग करता है वह उसी क्षण नया शरीर धारण कर लेता है। यदि यह जगत के पालनकर्ता की व्यवस्था है तो यह व्यवस्था मनुष्य के किसी जाति-समाज की बनाई व्यवस्था का मोहताज नहीं हो सकती। शरीर त्यागने के साथ ही जीवात्मा पुराने शरीर से मुक्त होकर नया शरीर को प्राप्त कर लेता है तो मृत्यु के बाद शरीर के साथ क्या किया जा रहा है, इससे उसका क्या लेना-देना? मृत्यु उपरांत मृतक का अंतिम संस्कार और अन्य कर्मकांड यदि इसलिए कराया जाता है कि वह जरा-मरण के चक्र  से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाए तो मेरा मानना है कि किसी जीवात्मा को जरा-मरण के चक्र  से मुक्ति उसके धर्म-कर्म और पुण्य या नेक कार्यों की वजह से मिल सकती है, इसलिए नहीं कि उसके मृत शरीर का अंतिम संस्कार या अन्य क्रि याकर्म उसके परिजनों ने अपने सामाजिक-धार्मिक नियमों से किया। वनों की सुरक्षा में तैनात किसी सेवक को शेर खा जाए तो उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा? उसे जमीन में दफनाया जाएगा या आग में जलाया जाएगा? जाहिर है कि उसका इन तरीकों से अंतिम संस्कार किया ही नहीं जा सकता। किन्तु अपना कर्तव्य निभाते मृत्यु को प्राप्त हुए उस सेवक को वह मुक्ति पाने का अधिकार तो है, जिस मुक्ति के संबंध में लोग मृतक का अंंतिम क्रि या-कर्म उसके धर्म, समुदाय और जाति-समाज की परंपरा के अनुसार आवश्यक मानते हैं।
कर्मकांड परिजनों की संतुष्टि के लिए होते हैं मृतक की आत्मा की मुक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। जीवात्मा की मुक्ति के लिए यह कर्मकांड आवश्यक हांे तब भी शव को जलाए या दफनाए बिना भी तो यह किए जा सकते हैं। जिस तरह शेर का आहार बनने वाले व्यक्ति के लिए उसके परिजन करते। संत कबीर के संबंध में कहा जाता है कि उनका अंतिम संस्कार उनके शव के बिना ही करना प डा था। मगहर में उनके प्राण त्यागने के बाद उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने ढंग से करने के लिए युद्ध पर उतारू हुए उनके हिन्दू-मुस्लिम अनुयायियों को सत्य का बोध कराते हुए संत कबीर ने अपनी मृत काया को फूलों में परिवर्तित कर दिया। उन फूलों को बांटकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई। इस तरह भी शव पर चढ़े फूलों से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई जा सकती है। 
मुक्ति का सहज उपाय है त्याग। हम किसी चीज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो उसका त्याग कर दें। जीवात्मा की मुक्ति में देह की दशा बाधक नहीं हो सकती। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए पहले भी अनेक महामानवों ने देह दान किया है। महर्षि दधिचि ने अपने देह का दान किया। उनकी अस्थियों का वज्र  बनाकर संसार के प्राणियों के लिए संकट बने आसुरी शक्तियों का संहार किया गया।
आज तरह-तरह की बीमारियां मानव समाज के लिए चुनौती बन रही है। हिन्दू-मुस्लिम, गरीब-अमीर सभी वर्ग के लोग इसके शिकार बन रहे हैं। वहीं इन चुनौतियों से निपटने का वास्तविक भार जिनके कांधे पर है, वे चिकित्सक और चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों को व्यावहारिक अध्ययन के लिए मानव शरीर की कमी से जूझना प ड रहा है। ऐसी स्थिति में देहदान कर न केवल चिकित्सा छात्रों के ज्ञानार्जन का माध्यम बन सकते हैं बल्कि, उनके माध्यम से मरने के बाद भी पि डत मानवता के सेवा करते रह सकते हैं। इससे दुआएं ही मिलेंगी जो मरने वाले को ही नहीं उसके सकल कुल परिवार को भी तार देंगी। समाज में ऐसे मानने वालों की भी कमी नहीं है कि मरने वाले का रीतिपूर्वक अंतिम संस्कार नहीं किया गया तो वह भूत या पिशाच बन जाएगा। कहा जाता है कि दान से ब डे से ब डा संकट टल जाता है। संसार के हित में अपने देह का दान करने वाले को यह संकट आ ही नहीं सकता। फिर भी देहदान कर कोई पिशाच बन सकता है तो आज ऐसे ही भूत-पिशाचों की जरूरत है जो मानव समाज के कल्याण के काम आएं। मरकर मिट्टी या राख होने से बेहतर ही होगा कि हम ऐसे पिशाच बन जाएंॅ।  मैंने भी तय किया था कि देहदान करूंगा, अब यह सचमुच करने जा रहा हूंॅ। मन में जारी विचारों का अंतरद्वंद खत्म हो चुका है और अंतस की चेतना से शंकाओं का स्वमेय समाधान हो चुका है।
ललित मानिकपुरी, संपादकीय विभाग
नईदुनिया प्रेस रायपुर, मो.9752111088

...तो और गजब होता







इन आंखों में रोशनी है, नूर है, गहराई है,
कोई ख्वाब अगर होता तो और गजब होता।
.......
लाखों में एक है, तेरा रूप यौवन,
हया भी होती तो और गजब होता।
.......
तुझमें अदा है, नजाकत है, दिल है, मुहब्बत है,
वफा भी होती तो और गजब होता।
.......
बादल है, बरसात है, रात है, तेरा साथ है,
कोई भूल हो जाती तो और गजब होता।
.......
हलवा है, पूड़ी है, कबाब है, बिरयानी है,
भूख अगर होती तो और गजब होता।
.......
पलंग है, गद्दा है, तकिया, रजाई है,
नींद अगर होती तो और गजब होता।
.......
पुलिस है, थाने हैं, कानून है, अदालत है,
इंसाफ सदा होता तो और गजब होता।
.......
सरकार है, दफ्तर है, अमला है, अफसर हैं,
गरीब का काम भी होता तो और गजब होता।
.......
हां आजाद हो तुम और कई अधिकार तुम्हारे,
याद अगर फर्ज भी होता तो और गजब होता।
.......
तुम शायर बड़े, कवि, कमाल के कलमकार,
मजलूमों के तरफदार भी होते तो और गजब होता।
.......
तेरे शहर में शूरमाओं के बुत बहुत हैं,
इनमें जान अगर होती तो और गजब होता।
.......
इमारतें बहुत हैं पूजा की, इबादत की,
वहां भगवान भी होते तो और गजब होता।
.......
मैं हिन्दू हूं, मुस्लिम हूं, सिख्ख हूं, ईसाई हूं,
इंसान अगर होता तो और गजब होता।
.......
तुन्हें पसंद है मेरे गीत, अशआर मेरे यार,
तारीफ भी कर देते तो और गजब होता।
.......
वो आज फिर चौक पर फहराएंगे तिरंगा,
उनका नकाब उतर जाता तो और गजब होता।
.......
नमन है वतन पे जां निसार करने वालों को,
उनके अरमां भी पूरे होते तो और गजब होता।
.......
और गर्व है मां भारती, संतान हूं तेरी,
तुझपे कुर्बान हो जाता तो और गजब होता।
.............................

जय-हिन्द... वन्दे-मातरम्...
-ललित मानिकपुरी, रायपुर (छग)

मंगलवार, 11 मार्च 2014

जाते कहाँ मुसाफिर...

 

जाते कहाँ मुसाफिर, जाना तुझे कहाँ है
तू देख ले ठहर कर, मंजिल तेरी कहाँ है।


जिधर तेरे कदम हैं, वो फरेब की डगर है
है मतलबों की दुनियां, बुराई का शहर है
ये प्यार की है गलियां, है नेकियों की बस्ती 
इस रास्ते पे आजा, तेरा खुद यहाँ है।


है जिंदगी जरा सी, मुस्कान दे जा सबको
ईमान और वफ़ा का, पैगाम दे जा सबको
दिल तोड़ न किसी का, दिल दिल से जोड़ ले तू
मस्जिद तेरी यहीं है, मंदिर तेरा यहाँ है।
… 


औरों में तू बुराई, न देख मेरे भाई 
हर जान है उसी की, हर जान में हैं साँईं
हर शख्स को बनाले, मीत अपने मन का
तू जीत ले जगत को, अपना तेरा जहाँ है।