गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

छत्तीसगढ़ : सुरमय बिहाव, अनूठे नेकचार





मुन्नी बदनाम हुई... जैसे दो-चार फिल्मी गाने डीजे या बैंड बाजे की धुन पर बजे, बाराती लटक-मटक के नाचे, बफे में दावत उड़ाई, दूल्हा-दुल्हन के फेरे हुए, दहेज का सामान समेटे और चलते बने। लो हो गई शादी। यह आज का दौर है, जो नगर, कस्बों से होते हुए देहातों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। बावजूद इसके छत्तीसगढ़ का विशाल ग्राम्यांचल विवाह की उन गौरवशाली परंपराओं को समेटे हुए है, जिनमें रोचक व आदर्श रस्मों-रिवाजों की मनमोहक मोतियां गुथी हुई हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाला शहरी या कस्बाई समाज भी विवाह के पारंपरिक रस्मों-रिवाजों से विलग नहीं है।
 छत्तीसगढ़ में जिसे 'बिहाव" कहा जाता है, वह एक युगल का मिलन मात्र नहीं है, वरन दो परिवार और दो कुल के अटूट संगम का मांगलिक उत्सव होता है। इस उत्सव से लोक गीत, संगीत और नृत्य का अभिन्न् रिश्ता है। कई जनजातियों में कुछ ऐसे भी लोक नृत्य और संगीत का प्रचलन है, जिसकी प्र भा में फूटा प्रेमांकुर उसी क्षण ही दो आत्माआंे को एकाकार कर उनके वैवाहिक जीवन का सूत्रपात कर देता है। नृत्य के दौरान ही युवक-युवतियां जीवन भर के लिए एक-दूसरे का हाथ थाम लेते हैं। यह चोरी-छिपे या अमर्यादित स्वछंदता के माहौल में नहीं वरन सामाजिक और पारिवारिक रजामंदी के सुरक्षित और सुखद वातावरण में होता है।

नाचते-नाचते चुन लेते हैं जीवन साथी

बस्तर के अबूझमाड़िया आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला 'ककसार उत्सव" अविवाहित युवक-युवतियों के लिए ऐसा ही एक अवसर होता है, जब वे अपने जीवन साथी का चयन कर वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। 'ककसार" का संबंध अबूझमाड़ियों की विशिष्ट मान्यता से है, जिसके अनुसार वर्ष की फसलों में जब-तक बालियां नहीं फूटतीं, स्त्री-पुरुषों का एकांत में मिलना वर्जित माना जाता है। बालियां फूट जाने पर ककसार उत्सव के माध्यम से यह वर्जना तोड़ दी जाती है। स्त्री-पुरुष अपने-अपने अर्धवृत्त बनाकर सारी रात नृत्य करते हैं। इस नृत्य में उसी धुन और ताल का प्रयोग किया जाता है, जो विवाह के समय प्र योग किया जाता है। गोड़ एवं बैगा जनजातियों का लोकप्रिय 'बिलमा" नृत्य भी ऐसा लोकनृत्य है, जिसमें अविवाहित युवतियां विशेष सजधज कर टोलियों में एक गांव से दूसरे गांव नृत्य करने जाती हैं और नृत्य करते-करते अपने जीवन साथी का चुनाव कर इस नृत्य के नाम को सार्थक करती हैं।

हाथी पर सवार होकर नाचता है समधी

इसी तरह विवाह के अवसर पर विभिन्न् जाति-जनजातियों में उनके विशेष गीत, संगीत और नृत्य का आयोजन होता है। बैगा जनजाति में विवाह के समय 'परघोनी" नृत्य का प्रचलन है। बारात की अगुवानी के समय खटिया, सूप, कम्बल आदि से हाथी बनाया जाता है। उस पर समधी को बैठाकर नगा डा एवं टिमकी के धुन पर गाते हुए नचाया जाता है। वहीं हाथी के आगे दुल्हन खड़ी होती है। यह एक तरह से हास-परिहास का क्षण होता है, जिसमें दुल्हन भी शामिल होती है।

 'बिरहा" की होड़

गोंड़ व बैगा आदिवासियों में विवाह के अवसर पर 'बिरहा" गाने की प्रथा है। यह श्रृंगारपरक विरह गीत है, जिसमें प्राय: लड़की के विरह का वर्णन होता है। यह प्रश्न पूछने के अंदाज में ऊंची टेर लगाकर पुरुषों द्वारा गाया जाता है। कभी-कभी स्त्री-पुरुष दोनों गाते हैं। इस अवस्था में स्त्री-पुरुषों के मध्य सवाल-जवाब होता है। बारात में तो बिरहा गाने की होड़ देखी जाती है। बस्तर में पाई जाने वाली दोरला जनजाति विभिन्न् पर्वों के साथ-साथ विवाह के अवसर पर 'दोरला" नृत्य करती हैं। वहीं विवाह में खास तौर पर 'पेण्हुल"नृत्य करने की परिपाटी है। एक विशेष प्रकार के ढोल के साथ स्त्रियां रहके और बट्टा पहनकर तथा पुरुष पंचे, कुसमा एवं रूमाल पहनकर खूब नाचते हैं। बस्तर में भतरा, परजा एवं धुरवा जनजातियों में भी यह नृत्य प्रचलित हैं।

'धनुष-बाण" लेकर आता है दूल्हा

  छत्तीसगढ़ में विवाह के कई रस्मों-रिवाज भी रोचक हैं। शिकार के लिए बांस से बने धनुष तथा घानन वृक्ष की लकड़ी से बने बाण का प्रयोग करने वाले धनवार जनजाति के लोगों में, दूल्हा विवाह के समय भी धनुष बाण लेकर आता है।

'वधूधन" देने की प्रथा

गोंड़, कोरबा, कोरकू, ओरांव आदि जनजातियों में विवाह के समय वधू धन देने की प्रथा है। यह दहेज प्रथा के बिलकुल उलट है। इस प्रथा में वधू के पिता को वर पक्ष के द्वारा एक निश्चित मात्रा में धन दिया जाता है, जो दोनों पक्षों को मंजूर होता है। हालांकि कई बार वधू धन के लिए कुछ अकड़ भी दिखाई जाती है। 

लड़की पकड़े नोट, तो रिश्ता मंजूर

छत्तीसगढ़ की पिछड़ी और सामान्य जातियों मे वैवाहिक कार्यक्रम प्राय: तीन दिनों का होता है। पहले दिन तेल, दूसरे दिन मायन और तीसरे दिन बारात। इन तीन दिनों में कई रस्में बाजे-गाजे के साथ निभाई जाती हैं, जिनमें निहित आशय और मान्यताएं भी कम रोचक नहीं।
विवाह पूर्व मंगनी यानी सगाई की रस्म में कन्या को रुपए पकड़ाए जाते हैं। इसे पैसा धराना कहते हैं। लड़की को प्रेमपूर्वक पैसा पकड़ाने का आशय है कि, अब तुम हमारी हो। लड़की भी प्रेमपूर्वक पैसे पकड़ती है, इससे यह पता चलता है कि यह रिश्ता उसे स्वीकार है। वस्त्र, आभूषण व कलेवा लेकर कन्या का हाथ मांगने के लिए पहुंचा वर पक्ष का मुखिया कन्या को यह चीजें भेंट करता है। इस अवसर पर अंगूठी पहनाने की परंपरा भी प्रचलित है।

प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन

अन्य क्षेत्रों में जहां विवाह के समय घर के प्रवेश द्वार की साज-सज्जा पर विश्ोष ध्यान दिया जाता है। दरवाजे के आसपास ऐसी कोई चीज नहीं रहने दी जाती जिससे कि वहां की शोभा बिगड़े। वहीं ग्राम्य अंचल में विवाह कार्यक्रम में सर्वप्रथम जो कार्य होता है वह है प्रवेश द्वार पर कुरूपता का प्रदर्शन। घर के प्रवेश द्वार पर बांस के सहारे विचित्र कुरूप आकृतियां टांगी जाती है। यह आकृतियां अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग होती हैं। कहीं सूखे काश या पैरा का पुतला बनाकर व पुराना कपड़ा पहनाकर टांगा जाता है, तो कहीं गोबर के पांच-सात कंडों के ऊपर प्याज रखकर टांगे जाते हैं। यह एक तरह से टोटका है, जिसके पीछे भाव यह है कि विवाह कार्यक्रम और उसमें शामिल होने वाले लोगों को किसी की नजर न लगे।

हरियाली भरी छांव में होती हैं रस्में

विवाह कार्यक्र म के पहले दिन मड़वा छाने अर्थात मंडपाच्छादन की रस्म होती है। मड़वा, हरीतिमा का प्रतीक है। इसे हरियर मड़वा भी कहते हैं। डूमर, चिरईजाम (जामुन), आम या महुआ की हरी-भरी डालियों से मड़वा का आच्छादन किया जाता है। इसकी शीतल छांव में विवाह की सभी रस्म संपन्न् होती हैं। शामियाना लगाने वाले लोग भी इन पेड़ों की कुछ डालियां जरूर लगाते हैं।

दूल्हा के बाद चूल्हा का महत्व

विवाह कार्यक्र म में दूल्हा, दुल्हन के बाद चूल्हा का बड़ा महत्व होता है।
मंडपाच्छादन के दिन ही चुलमाटी की रस्म होती है। दामाद या फूफा के साथ वर-वधु की मां, चाची या बड़ी मां देवस्थल या गांव के उस स्थल से सात टोकरी में मिट्टी लाते हैं, जहां कोई फसल न उगी हो, अर्थात-कुवांरी मिट्टी। पूजापाठ करके मिट्टी खुदाई का कार्य दामाद या फूफा करते हैं। मां, चाची या बड़ी मां उस मिट्टी को अपने आंचल में लेती हैं और सम्मानपूर्वक बाजे-गाजे के साथ घर लाकर उससे चूल्हा निर्मित करते हैं। इस नेंग का आशय है कि देवस्थल की मिट्टी से निर्मित चूल्हा का भोजन-पकवान आशीष से भरा हो। इसी दिन तेलमाटी की भी रस्म होती है। तेलमाटी भी चूलमाटी की तरह देवस्थल या गांव में निर्धारित स्थल से लाई जाती है। इस मिट्टी को म डवा के नीचे रखा जाता है, जिसके ऊपर मड़वाबांस व मंगरोहन स्थापित होता है। इस रस्म के पीछे मड़वास्थल पर देवताओं के वास का भाव है। इन रस्मों में मिट्टी की खुदाई के दौरान स्त्री-पुरुष रिश्तेदारों के बीच हंसी-मजाक के रूप में गीत गाया जाता है।
तोला माटी कोड़े ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन बहिनी ल तीर धीरे-धीरे।
तोला पर्रा बोहे ल नई आवै मीत धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे अपन भाई ल तीर धीरे-धीरे।
......................

लकड़ी से होती है लड़के-लड़की की शादी

प्राय: हर मड़वा में विवाह के पूर्व लड़के व लड़की की शादी 'लकड़ी" से कराई जाती है। जिसे मंगरोहन कहा जाता है। मंगरोहन मूलत: मंगलकाष्ठ है, जिसे डूमर या चार की लकड़ी से बनाया जाता है। फीटभर की लकड़ी को बैगा या बढ़ई के घर मंगरोहन का स्वरूप दिया जाता है। मंगरोहन निर्माण पश्चात बाजे-गाजे के साथ बैगा के घर से परघाकर मड़वास्थल तक लाया जाता है। यहांॅ छिंद की पत्ती का तेलमौरी बनाकर उसमें बांॅधते हैं तथा मड़वा के तले स्थापित करते हैं। सर्वप्रथम दुल्हा-दुल्हन की शादी मंगरोहन के साथ होती है, ताकि किसी प्रकार का अनिष्ट न हो।

हल्द्रालेपन का हक सिर्फ महिलाओं को

दूसरे दिन मायन और देवतला का नेंग होता है। इसमें देवी-देवताओं को तेल-हल्दी चढ़ाते हैं और शेष तेल-हल्दी को वर-वधु को चढ़ाते हैं, ताकि विवाह निर्विघ्न संपन्न् हो। खास बात यह है कि दुल्हा-दुल्हन को हरिद्रालेपन का अधिकार सिर्फ महिलाओं को है। महिलाएं ही वर-वधु को तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म निभाती है। इस दौरान हल्दी, कलशा और बांस के पर्रा को लेकर गीत गाने की परंपरा है।
एक तेल चढ़गे...
एक तेल चढ़गे ओ दाई हरियर-हरियर,
मड़वा म दुलरू तोर बदन कुमलाय।
.......................

हरदाही पर होती है हल्दी की होली

 संध्याकाल 'हरदाही" खेलते हैं।  होली में जैसे एक-दूसरे पर रंग-गुलाल लगाया जाता है, उसी तरह इसमें पीसी हुई कच्ची हल्दी एक-दूसरे पर लगाई जाती है। इस अवसर का महिलाएं खूब आनंद लेती हैं। इस दिन 'चिकट" का भी नेंग होता है। मामा पक्ष से वस्त्र, उपहार आदि वर-वधु के माता-पिता के लिए आता है, इसे भेंटकर हल्दी लगाते हैं। इसका उद्देश्य आपस में मधुरता बढ़ाने से है।

खाट पर होती है नहडोरी की रस्म

तीसरे दिन नहडोरी की रस्म में वर-वधु के लेपित हल्दी को धुलाने का कार्यक्र म होता है। वर-वधु को उनके घरों में खाट पर बिठाकर स्नान कराया जाता है, ताकि बारात व भांवर के लिए उन्हें सजाया-सवांरा जा सके। नहडोरी के बाद मौली धागा को घुमाकर वर-वधु के हाथों में आम पत्ता के साथ बांधते हैं। इसी को कंकन कहते हैं। तत्पश्चात मौर सौंपने की रस्म होती है। मौर का अर्थ होता है मुकुट, राजा-महाराजाओं का श्रृंगार तथा जिम्मेदारी का प्रतीक। मौर धारण कर दूल्हा, दूल्हा राजा बन जाता है। मौर सौंपने का आशय वर को भावी जीवन के लिए आशीष व उत्तरदायित्व प्रदान करना है। आंगन में चौक पूर कर पी ढा रखते हैं, वर को उस पर खड़ाकर या कुर्सी पर बिठाकर सर्वप्रथम मां पश्चात काकी, मामी, बड़ी बहनें व सुवासिन सहित सात महिलाएं मौर सौंपती हैं। इस पल का सुंदर गीत है-
पहिरव ओ दाई... पहिरव ओ दाई,
मोर सोन कइ कपड़ा, दाई सोन कइ कपड़ा,
सौंपंव ओ दाई मोर माथे के मटुक।
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बारात का मधुर क्षण 'भड़ौनी"

बारातियांे का वधु पक्ष की ओर से जोर शोर से स्वागत किया जाता है। दोनों पक्ष के समधियों का मिलन होता है, जिसे समधी भेंट कहते हैं। अनेक जातियों में बारात स्वागत के दौरान भड़ौनी गायन की परंपरा है। इसमें बारातियों का एक पक्ष तो कन्या पक्ष की महिलाओं का दूसरा पक्ष होती हंै। दोनों पक्ष हंसी-ठिठोली के रूप में एक-दूसरे को छेड़ते हुए गीत गाते हैं। इस अवसर एक लोकगीत है-
नदिया तिर के पटवा भाजी पटपट करथे रे,
आए हे बरतिया मन हा मटमट-मटमट करथे रे।
मटमट-मटमट करथस समधिन मारतहस ऊचाटा वो,
दुलहीन होगे दुल्हा के अब तैंहा मोरे बांटा वो।
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 धेनु गाय का आदर्श टिकावन

पाणिग्र हण की रस्म में वधू के पिता वर के हाथ में वधू का हाथ रखकर तथा उसमें आटे की लोई रखकर धागे से बांधते हैं। तत्पश्चात वर तथा वधू के पैर के अंगूठों को दूध से धोकर माथे पर चांवल का टीका लगाते हैं। यह विवाह की महत्वपूर्ण रस्म, जिसमें वर द्वारा वधू की ताउम्र  जिम्मेदारी निभाने तथा वधू का समर्पण का भाव निहित है। इसके साथ ही टिकावन यानी दहेज देने की रस्म होती है। लोकगीतों में टिकावन का आशय स्पष्ट है।-
कोन तोला टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि कोना तोला टिकय धेनु गाय
दाई तोर टिकय नोनी अचहर पचहर ओ अचहर-पचहर
कि ददा तोर टिकय धेनु गाय

सात भांवर, सात वचन

अब होती है भांवर यानी फेरा की रस्म। भांवर महज परिक्रमा नहीं है, हर भांवर के साथ वधू को अपने बचपन के आंगन से बिछुड़ने का अहसास होता है और प्रत्येक भांवर अनजाने से नाता जुड़ने का बोध कराता है। भांवर के बाद मांग भरने की रस्म। सिंदूर सुहाग का प्रतीक है। मांग भरने के बाद वधु सुहागिन हो जाती है तथा पतिव्र त धर्म पालन के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है। इस रस्म में वर द्वारा वधु के मांग में सात बार बंदन या सिंदूर लगाया जाता है। वामांग में आने के पूर्व वधू वर से सात वचन मांगती है और वर सात वचन देता है।

जा बेटी अब मायके की सुध मत करना

विवाह में विदाई की अहम रस्म होती है। यह क्षण बहुत भावुकता भरा होता है। बाबुल यानी पिता के घर से अपने घर की ओर जाती है वधु। सभी प्रि यजन विदाई देते हैं। बचपन की सखियां, पिता का दुलार, मां की गोद, भाई के स्नेह, बहनों के प्यार से बने घर-आंगन को छोड़कर कन्या अब अपने नए घर की ओर चलती है। भीगी आंखों से अपनी लाडली को विदा करते स्वजनों की ओर की देखते अपरिचित की आंखें भी छलक जाती हैं। हाथ में धान भरकर पीछे की ओर उछालती बेटी मायके की कामना करती है। विदाई है नवसृजन के लिए पुनर्जन्म। इस अवसर के लिए भावुकता भरा यह गीत है-
जा दुलौरीन बेटी तैं मइके के सुध झन लमाबे।
सास ससुर के सेवा ल करबे मइके के सुध लमाबे।।

वर के घर भी होता है टिकावन

वधू का ब्याह कर लाने के बाद वर के घर में भी टिकावन होता है।  इससे पूर्व डोला परछन और कंकन मौर की रस्म होती है। जो मूलत: वर-वधु के संकोच को दूर करने का उपक्रम है। इसमें कन्या के घर से लाये लोचन पानी को एक परात में रखकर दूल्हा-दुल्हन का म डवा के पास एक-दूसरे का कंकन छु डवाया जाता है। फिर लोचन पानी में कौड़ी, सिक्का, मुंदरी, माला खेलाते हैं, जिसमें वर एक हाथ से तथा वधू दोनों हाथ से सिक्का को ढूंढते हैं। जो सिक्का पाता वह जीत जाता है।

कन्या के घर से निकलती है बारात

 छत्तीसगढ़ में कई जाति समाजों में कन्या पक्ष वाले भी वर के घर बारात लेकर जाते हैं। इसे चौथिया बारात कहा जाता है। इस बारात के बाराती अधिकांश महिलाएं होती हैं। वर पक्ष के बाराती जहां कन्या को उसके मायके से ससुराल ले आते हैं, वहीं कन्या पक्ष की बाराती महिलाएं कन्या को दूल्हे के घर से वापस ले आती हैं। कुछ दिनों बाद गौना का नेंग होता है। इसमें दूल्हा, दुल्हन को लिवाने आता है। तब उसके साथ दुल्हन को विदा किया जाता है। 

विवाह का प्रतिनिधि साज 'मोहरी"

छत्तीसगढ़ में विवाह का प्रतिनिधि साज है 'मोहरी।" शहनाई की तरह यह भी मुंह से फूंककर बजाया जाने वाला कठिन वाद्य है। 'मोहरी" का प्रभावी स्वर जहांॅ भाव-विभोर कर देता है, वहीं इसके साथी वाद्य 'निसान" नाचने के लिए विवश कर देता है। डफड़ा, टिमऊ और झुमका छत्तीसगढ़ के विवाह संगीत को और समृद्ध करते हैं।

-  ललित दास मानिकपुरी

रायपुर (छत्तीसगढ़)
('कादम्बिनी" जुलाई 2012 के अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

मृत्यु के बाद भी मानवता की अनंत सेवा



 आजीवन जनता की सेवा करते रहे ज्योति बसु मृत्यु के बाद भी दीन-दुखियों, पीड़ित और बीमारजनों की सेवा करते रहेंगे। मानवता की अनंत सेवा की उनकी कामना ही है कि उन्होंने देहदान किया। धार्मिक, सामाजिक और सांसारिक कर्मकांडों के भयानक मकड़जाल से स्वयं को मुक्त कर इस महामानव ने ऐसी मिसाल रखी जो मिथ्या मान्यताओं के निरा अंधकार में प्रकाशपुंज बनकर समाज का मार्गदर्शन करेगा। नि:संदेह देहदान एक साहस भरा कदम है और भारत ऐसे लाखों साहसी व्यक्तित्वों से भरा पड़ा है। अकेले पश्चिम बंगाल में ज्याति बसु जैसे नामचीन हस्तियों सहित लगभग सात लाख लोगों ने देहदान किया है। छत्तीसगढ़ में भी कई देहदानी हुए हैं। किन्तु अब भी समाज में बहुतेरे लोग देहदान के प्रति शंका-कुशंकाओं से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
  व्यक्ति के मृत्यु के उपरांत समाज में जीवात्मा की मुक्ति के नाम पर नाना प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं। कर्मकांडों का अपना महत्व हो सकता है किन्तु इसके बिना जीवात्मा की मुक्ति नहीं होगी, यह सोचना कितना सही है? अलग-अलग धर्म-संप्रदायों या जाति-समाजों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। यहां मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, लेकिन देह दान के संबंध में जब ऐसी अनेक मान्यताएं और शंकाएं आड़े आ रही हों तो इनका निवारण करने की आवश्यकता भी महसूस होती है। देहदान करने वाले का अंतिम क्रि या-कर्म उसके परिजनों द्वारा प्रचलित धार्मिक सामाजिक मान्यताओं के अनुसार नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका शव चिकित्सा विज्ञान छात्रों के व्यावहारिक अध्ययन के लिए रख लिया जाता है। धार्मिक मान्यताओं और संदेहों की बेड़ियों में जकड़ी मानसिकता के कारण लोग चिकित्सा जगत को बहुत आवश्यता होने के बाद भी देहदान के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। अलग-अलग धर्म-संप्रदायों व जाति-समाजों में अंतिम क्रि याकर्म की अलग-अलग रीति है। किसी का अग्नि संस्कार किया जाता है तो किसी को जमीन मे दफ्न किया जाता है। अग्नि संस्कार करने वाले यदि यह मानते हैं कि अग्नि संस्कार करने से ही जीवात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो क्या जो दफ्न किए जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिलती? और यदि दफ्न करने वालों की मान्यता के अनुसार दफनाने से ही मुक्ति मिलती है तो क्या अग्नि संस्कार में जल जाने वालों को मुक्ति नहीं मिलती? यदि दोनों विधि से अंतिम क्रि याकर्म करने पर मृतात्मा को मुक्ति मिल सकती है तो मृतात्मा की मुक्ति का कोई तीसरा, चौथा या पांचवा उपाय भी हो सकता है। यह उपाय देहदान का क्यों नहीं ?
अंतिम क्रिया कर्म का प्रावधान या व्यवस्था तो सिर्फ मृत देह के निस्तार के लिए है। उसका निस्तार नहीं करने पर उसमें कीड़े लगेंगे, दुर्गंध आएगा और वातावरण प्रदूषित होगा। इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न् होंगी, बीमारियां फैलेंगी। इससे उन लोगों की भावनाओं को भी ठेस पहुंचेगी जो मृतक से भावनात्मक रूप से संबंध रखते हैं। इसलिए मृत देह का अंतिम क्रियाकर्म सम्मानजनक ढंग से कर दिया जाता है। सभ्य समाज में यह अच्छा भी नहीं लगेगा और न ही उचित होगा कि कोई मनुष्य का शव सड़ता-गलता प डा रहे। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि जीवात्मा जिस क्षण किसी शरीर का त्याग करता है वह उसी क्षण नया शरीर धारण कर लेता है। यदि यह जगत के पालनकर्ता की व्यवस्था है तो यह व्यवस्था मनुष्य के किसी जाति-समाज की बनाई व्यवस्था का मोहताज नहीं हो सकती। शरीर त्यागने के साथ ही जीवात्मा पुराने शरीर से मुक्त होकर नया शरीर को प्राप्त कर लेता है तो मृत्यु के बाद शरीर के साथ क्या किया जा रहा है, इससे उसका क्या लेना-देना? मृत्यु उपरांत मृतक का अंतिम संस्कार और अन्य कर्मकांड यदि इसलिए कराया जाता है कि वह जरा-मरण के चक्र  से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाए तो मेरा मानना है कि किसी जीवात्मा को जरा-मरण के चक्र  से मुक्ति उसके धर्म-कर्म और पुण्य या नेक कार्यों की वजह से मिल सकती है, इसलिए नहीं कि उसके मृत शरीर का अंतिम संस्कार या अन्य क्रि याकर्म उसके परिजनों ने अपने सामाजिक-धार्मिक नियमों से किया। वनों की सुरक्षा में तैनात किसी सेवक को शेर खा जाए तो उसका अंतिम संस्कार कैसे होगा? उसे जमीन में दफनाया जाएगा या आग में जलाया जाएगा? जाहिर है कि उसका इन तरीकों से अंतिम संस्कार किया ही नहीं जा सकता। किन्तु अपना कर्तव्य निभाते मृत्यु को प्राप्त हुए उस सेवक को वह मुक्ति पाने का अधिकार तो है, जिस मुक्ति के संबंध में लोग मृतक का अंंतिम क्रि या-कर्म उसके धर्म, समुदाय और जाति-समाज की परंपरा के अनुसार आवश्यक मानते हैं।
कर्मकांड परिजनों की संतुष्टि के लिए होते हैं मृतक की आत्मा की मुक्ति से इसका कोई संबंध नहीं। जीवात्मा की मुक्ति के लिए यह कर्मकांड आवश्यक हांे तब भी शव को जलाए या दफनाए बिना भी तो यह किए जा सकते हैं। जिस तरह शेर का आहार बनने वाले व्यक्ति के लिए उसके परिजन करते। संत कबीर के संबंध में कहा जाता है कि उनका अंतिम संस्कार उनके शव के बिना ही करना प डा था। मगहर में उनके प्राण त्यागने के बाद उनका अंतिम संस्कार अपने-अपने ढंग से करने के लिए युद्ध पर उतारू हुए उनके हिन्दू-मुस्लिम अनुयायियों को सत्य का बोध कराते हुए संत कबीर ने अपनी मृत काया को फूलों में परिवर्तित कर दिया। उन फूलों को बांटकर उनके अनुयायियों ने अपने-अपने ढंग से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई। इस तरह भी शव पर चढ़े फूलों से अंतिम संस्कार की रश्म निभाई जा सकती है। 
मुक्ति का सहज उपाय है त्याग। हम किसी चीज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो उसका त्याग कर दें। जीवात्मा की मुक्ति में देह की दशा बाधक नहीं हो सकती। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए पहले भी अनेक महामानवों ने देह दान किया है। महर्षि दधिचि ने अपने देह का दान किया। उनकी अस्थियों का वज्र  बनाकर संसार के प्राणियों के लिए संकट बने आसुरी शक्तियों का संहार किया गया।
आज तरह-तरह की बीमारियां मानव समाज के लिए चुनौती बन रही है। हिन्दू-मुस्लिम, गरीब-अमीर सभी वर्ग के लोग इसके शिकार बन रहे हैं। वहीं इन चुनौतियों से निपटने का वास्तविक भार जिनके कांधे पर है, वे चिकित्सक और चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों को व्यावहारिक अध्ययन के लिए मानव शरीर की कमी से जूझना प ड रहा है। ऐसी स्थिति में देहदान कर न केवल चिकित्सा छात्रों के ज्ञानार्जन का माध्यम बन सकते हैं बल्कि, उनके माध्यम से मरने के बाद भी पि डत मानवता के सेवा करते रह सकते हैं। इससे दुआएं ही मिलेंगी जो मरने वाले को ही नहीं उसके सकल कुल परिवार को भी तार देंगी। समाज में ऐसे मानने वालों की भी कमी नहीं है कि मरने वाले का रीतिपूर्वक अंतिम संस्कार नहीं किया गया तो वह भूत या पिशाच बन जाएगा। कहा जाता है कि दान से ब डे से ब डा संकट टल जाता है। संसार के हित में अपने देह का दान करने वाले को यह संकट आ ही नहीं सकता। फिर भी देहदान कर कोई पिशाच बन सकता है तो आज ऐसे ही भूत-पिशाचों की जरूरत है जो मानव समाज के कल्याण के काम आएं। मरकर मिट्टी या राख होने से बेहतर ही होगा कि हम ऐसे पिशाच बन जाएंॅ।  मैंने भी तय किया था कि देहदान करूंगा, अब यह सचमुच करने जा रहा हूंॅ। मन में जारी विचारों का अंतरद्वंद खत्म हो चुका है और अंतस की चेतना से शंकाओं का स्वमेय समाधान हो चुका है।
ललित मानिकपुरी, संपादकीय विभाग
नईदुनिया प्रेस रायपुर, मो.9752111088

...तो और गजब होता







इन आंखों में रोशनी है, नूर है, गहराई है,
कोई ख्वाब अगर होता तो और गजब होता।
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लाखों में एक है, तेरा रूप यौवन,
हया भी होती तो और गजब होता।
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तुझमें अदा है, नजाकत है, दिल है, मुहब्बत है,
वफा भी होती तो और गजब होता।
.......
बादल है, बरसात है, रात है, तेरा साथ है,
कोई भूल हो जाती तो और गजब होता।
.......
हलवा है, पूड़ी है, कबाब है, बिरयानी है,
भूख अगर होती तो और गजब होता।
.......
पलंग है, गद्दा है, तकिया, रजाई है,
नींद अगर होती तो और गजब होता।
.......
पुलिस है, थाने हैं, कानून है, अदालत है,
इंसाफ सदा होता तो और गजब होता।
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सरकार है, दफ्तर है, अमला है, अफसर हैं,
गरीब का काम भी होता तो और गजब होता।
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हां आजाद हो तुम और कई अधिकार तुम्हारे,
याद अगर फर्ज भी होता तो और गजब होता।
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तुम शायर बड़े, कवि, कमाल के कलमकार,
मजलूमों के तरफदार भी होते तो और गजब होता।
.......
तेरे शहर में शूरमाओं के बुत बहुत हैं,
इनमें जान अगर होती तो और गजब होता।
.......
इमारतें बहुत हैं पूजा की, इबादत की,
वहां भगवान भी होते तो और गजब होता।
.......
मैं हिन्दू हूं, मुस्लिम हूं, सिख्ख हूं, ईसाई हूं,
इंसान अगर होता तो और गजब होता।
.......
तुन्हें पसंद है मेरे गीत, अशआर मेरे यार,
तारीफ भी कर देते तो और गजब होता।
.......
वो आज फिर चौक पर फहराएंगे तिरंगा,
उनका नकाब उतर जाता तो और गजब होता।
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नमन है वतन पे जां निसार करने वालों को,
उनके अरमां भी पूरे होते तो और गजब होता।
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और गर्व है मां भारती, संतान हूं तेरी,
तुझपे कुर्बान हो जाता तो और गजब होता।
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जय-हिन्द... वन्दे-मातरम्...
-ललित मानिकपुरी, रायपुर (छग)

मंगलवार, 11 मार्च 2014

जाते कहाँ मुसाफिर...

 

जाते कहाँ मुसाफिर, जाना तुझे कहाँ है
तू देख ले ठहर कर, मंजिल तेरी कहाँ है।


जिधर तेरे कदम हैं, वो फरेब की डगर है
है मतलबों की दुनियां, बुराई का शहर है
ये प्यार की है गलियां, है नेकियों की बस्ती 
इस रास्ते पे आजा, तेरा खुद यहाँ है।


है जिंदगी जरा सी, मुस्कान दे जा सबको
ईमान और वफ़ा का, पैगाम दे जा सबको
दिल तोड़ न किसी का, दिल दिल से जोड़ ले तू
मस्जिद तेरी यहीं है, मंदिर तेरा यहाँ है।
… 


औरों में तू बुराई, न देख मेरे भाई 
हर जान है उसी की, हर जान में हैं साँईं
हर शख्स को बनाले, मीत अपने मन का
तू जीत ले जगत को, अपना तेरा जहाँ है।

शुक्रवार, 21 जून 2013

छत्तीसगढ़ी कहानी... पेंउस



कहानीकार- ललित दास मानिकपुरी

घर के तीर जइसे पहुंचिस, तनू ह खुसी के मारे उछले लगिस। ममा के गाड़ी ले झट उतरगे अउ रानी गाय ल पोटार लिस।

 'रानी आगे... रानी आगे..., नानी... नानी... रानी आगे" अइसे काहत कूदे-नाचे लगिस।

'आ...रे, आ..." अइसे नानी के इसारे पाके रानी गाय बां... बां...करत भीतर गिस। 

कोठा म जइसे गाय-बछवा मन घलो रस्ता जोहत राहय, रानी के अवाज ल सुनके सबके कान खड़ा होगे। 

रानी गाय कोठा के परछी म बने अपन ठउर म जाके खड़े होगे। 
एती तनू ह 'चल दूध पीबे, चल..." काहत ओखर चंदनू बछरू ल ले आनिस। 

बछरू घलो 'अम्मा..." काहत उझलत-कूदत अपन मां करा पहुंचगे। हुदेन-हुदेन के दूध पीये लगिस। 

रानी गाय अपन बछरू ल चांटत-दुलारत सुघर दूध पियाए लगिस। येला देखके तनू ताली-बजा-बजाके नाचे लगिस। 

फेर का तनू के नाना-नानी अउ ममा-मामी सबके चेहरा म मुसकान आगे।

घंटाभर पहिली के ही बात आय। घर म कइसे उदासी छाय रहिस। तनू न तो खात रहिस न पियत रहिस।

 'का होगे, रानी अतका बेर ले आए कइसे नी हे, सब गइया तो आगे?" ये सवाल रहि-रहि के पूछय। 

बछरू अम्मा... अम्मा... कहिके चिल्लावय त तनू के करेजा लहुटे धरै। आंखी ले आंसू झरै। रहि-रहि के मुहाटी अउ गली-खोर म निकल-निकल के देखय। रानी नी दिखय त फेर परछी म आके बइठ जाय।

'आ जाही बेटी, आ जाही, चल एक कौंरा खाले।" अइसे नानी अउ मामी समझावय। 

फेर तनू कहां मानय। उल्टा उही मन ल काहय- देखौ न, चंदनू अम्मा... अम्मा... करत भूख म कइसन रोवत हे। 

बछरू के नरियई अउ तनू के करलई ल देख के सबो बेचैन होगे राहय। नानी तो बछरू ल पानी-पसिया पियाय के प्रयास घलो करिस, लेकिन बछरू ओमा मुंह तक नी धरय। बस अम्मा... अम्मा... रटत रहय।

थक हार के नानी घलो बइठगे। नाना ल कथे-'अइसन म जी रोवासी लागथे हो, आंखी दिखतिस त मीही ह खोज के ले आनतेंव। बिहनिया गिस त थोरिक खोरावत रहिस हे। मैं जानेंव कोठा म गाय-बछवा के झगरा म लाग दिस होही, का जानंव चरे बर जाही त आयेच नी सकही कहिके। अब कती खार, कती नरवा परे होही?"

नाना कथे- 'मोहन घलो दुकान ले नी आवत हे। आतिस त भेजतेंव गाय ल खोजे बर। सब गाय-गरू ल बेचहूं काहत रहिस हे। जतन करइया नी हे। बहू बिचारी ल स्कूल अउ घर कुरिया के काम-बूता ले समय नी मिलय, अउ बेटा ल दुकान ले। महूं सियान होगेंव, तैं एक झन का करबे, अउ कतका दिन ले करे सकबे ओ। गांव के चरागन घलो सिरागे, गरवा मन बाहिर ले भूखे आथे अउ घर म प्यासे रहिथे। अइसन करलई ले तो बने होही बेची दै सब गाय-गरू ल।"

तभे मुहाटी म गाड़ी के हारन बाजिस। 
'ममा आगे" काहत तनू दउड़िस अउ झट गाड़ी म चढ़ गे।
'ममा... ममा... झन भितरा गाड़ी ल, रानी गइया आय नी हे, चंदनू रोवत हे, चल न ममा, रानी ल खोज के लानबो।"

तनू के बात सुनके ममा कथे- 'अभी तो बहुत घाम हे बेटा, चल खाना खाबो तब तक गाय आ जाही। अउ नी आही त जाबो खोजे बर।"

तनू जिद म अड़ गे 'न ही, अभिच जाबो"। 
ममा समझगे तनू नी मानय। जब ले आहे छुट्टी मनाए बर बछरू मन के संग मगन रइथे। अउ जब ले चंदनू जमने हे तब ले ओखर खुसी के ठिकाना नी हे। बस ओला पोटारत-चूमत रइथे। जब तक चंदनू के मां नी आही, तनू ल चैन नी परय।

फेर का, पेटभर पानी पी के अउ मुंड़-कान ल बांध के दूनों झन निकलगे गाय ल खोजे बर। ये रस्ता ले ओ रस्ता, खेत-खार, तरिया, डबरी सबो कोती किंजरगें, फेर गाय नी मिलस। तनू उदास होगे। प्यास म टोटा घलो सुखाय ल लगिस। थक हार के दूनों घर लहुटगें।

घर के तीर पहुंचिन त देखथे कि गाय तो इंहा पहुंचगे हे। ओखर आय ले जइसे घर म खुसी आगे। 

नानी-नाना के चिंता उतरिस। मोहन ल कहिन - 'डाक्टर ल बला के ले आनबे बेटा, गाय के पांव के इलाज कर देही।"

अब सबो झन गोड़-हाथ धोके खाय बर बइठत रहिन, तभे मवेसी कोचिया जोहत राम पहुंचगे। 

जोहत राम कथे- 'मोहन दाऊ, गाय-बछवा मन ल बेचहूं काहत रेहे गा, लेगे बर आए हंव। तीन-तीन सौ के हिसाब म नौ ठन के सत्तइस सौ होथे। ले पइसा अउ जल्दी ढिलौ।"

मोहन अपन मां-बाबूजी अउ तनू डाहर देखथे। उंखर चेहरा के भाव ल समझगे। कथे- 'मैं अपन बिचार बदल देंव कोचिया। सत्तइस सौ पइसा बर अपन भरे कोठा ल नी उजारंव।"

कोचिया कथे- 'देख भई, भाव बियाना के बाद सौदा ले नटना ठीक बात नी होय। अब चल मैं ले जाय बर आए हंव त पूरा तीन हजार दे देहूं। अब जल्दी ढिलौ। वइसे भी तुमन तो गाय-गरू के सेवा जतन करे नी सकत हव, अइसने रखई ह लक्ष्मी ल सजा देवई तो आय। दे दव मोला, कम से कम लक्ष्मी के सरापा ले बांच जाहू।"

अतका सुनिस त तनू के नाना भड़कगे- 'कस रे जोहत राम तैं गाय-गरू ल अइसने बिसा के कट्टी वाला मन ल बेच देथस। मास बर गौ के जी के सौदा करथस त तोला उंखर सरापा नी लगय, अउ हमला श्राप लगही? तैं तुरते अपन मुख ल टार। हमन अपन जीयत भर ले गाय-गरू के सेवा करबो।"

अतका सुनिस त तनू के मामी कथे- 'आप मन ठीक कहत हौ बाबूजी, कसाई के हाथ म अपन गाय मन ल नी देन। गांव म चरागन नी हे त का होइस पैरा-भूसा तो खवा सकथंन। 

अपन गरभ म हाथ फेरत अउ तनू ल दुलारत मामी कथे- 'कोठा ल उजार के अपन नवा पीढ़ी के भाग ले दूध-दही ल नी छीनन।" 

गोठ चलते रहिस। एती तनू के नानी ह कटोरी म पेंउस धर के अइस अउ कोचिया ल प्रेम से देवत कथे- 'ले कोचिया खा, खाय के चीज ये होथे, गौ के मास खाय के चीज नी होय।" 

हाथ म पेंउस के कटोरी अइस त कोचिया अपन नजर ल झुका दिस। जइसे पेंउस के महक पाके ओखरो अंतस महके लगिस।
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कहानी - ललित दास मानिकपुरी
ग्राम व पोस्ट-बिरकोनी
जिला-महासमुंद (छग)
मो. 9752111088

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