शनिवार, 6 सितंबर 2025

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर (छत्तीसगढ़ी कहानी)

मंकू बेंदरा अउ कपटी मंगर  (छत्तीसगढ़ी कहानी)

"खी खी खी... हूॅंप  हूॅंप..." अइसे अपन भाखा में मंकू बेंदरा के माँ हा मंकू बेंदरा ला किहिस कि - "चल बेटा उतर, चल-चल, हवा बहुत जोर से चलत हे। मौसम बिगड़त हे, कहूँ बने ठउर में जाबो!" 

फेर उतलइन मंकू बेंदरा हा पेड़ के अउ ठीलिंग में चढ़गे। हवा सनसनावत राहय। डंगाली एती ओती लहसत राहय। तेमा ओरम के मंकू हा झूले के मज़ा लेवत राहय। 

मंकू के माँ हा ओला धर के तीरे बर ऊपर डाहर चढ़े लगिस, तभे हवा अचानक जोर के आँधी बनगे। डारा रटाक ले टूट गे। आँधी में मंकू बेंदरा हा डारा सुद्धा नदिया डाहर फेंकागे। 

नदिया में मंगर हा मुँहूँ फारे ताकत राहय। ओहा बड़ दिन के जोंगत रिहिस कि, "एको दिन एको झन बेंदरा कहूँ गिर जतिस ते बढ़िया पार्टी मनातेंव!"

ओहा मने मन सोचय कि, "ये बेंदरा मन अतेक मीठ-मीठ जामुन खाथें त ऊॅंकर माॅंस में कतका सुवाद होही, अउ करेजा कतका सुहाही!" बेंदरा मन ला देख के ओकर लार टपक जाय। फेर अपन ये इच्छा ला मन में लुकाय ऊपरछवा ऊॅंकर हितवा-मितवा बने राहय। 

आज मंकू बेंदरा ला नदिया में गिरत देख के मंगर हा लपक गे। मंटू ला खाए बर अपन मुँहूँ ला जबर फार डरिस। लेकिन ऊपर ले गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा ओला देख डरिस। खतरा के अंदाजा होगे। पल भर में सोच डरिस कि कइसे बाँचे जाय। 

गिरत-गिरत मंकू बेंदरा हा मंगर के मुँहूँ में डारा ला ख़ब ले खोंस दिस। जामुन के डारा हा मंगर के टोटा के भीतरी के जावत ले अरझ गे। डारा के दूसर छोर ला कस के धरे मंकू बेंदरा हा मंगर के पीठ में गोड़ फाॅंस के‌ बइठ गे।‌ 

पीरा के मारे मंगर छटपटाय लगिस।‌‌ टोटा के भीतर के जात ले खुसेरे डारा ला उलगे के उदिम करय, फेर उलग नइ पाय। 

ओहा मंकू बेंदरा ला अपन पीठ ले गिराए के भारी उदिम करिस, फेर मंकू तो डारा ला कस के धरे राहय, अउ अपन दूनो पाँव ले घलो कस के फाॅंसे राहय। 

मंगर के‌ बड़ ताकत रिहिस। मंकू जानत रिहिस कि एक कनिक भी चूक होइस ते जीव नइ बाॅंचय। ओ पूरा सवचेत रिहिस। 

मंगर हा मंकू ला बुड़ोय बर गहिर पानी में उतरे लगिस। मंकू अकबकागे।‌ 

तभे मंकू‌ ला अपन माॅं के गोठ सुरता आगे कि, "मंगर मन हा पानी के भीतर में घलो बड़ बेरा ले साॅंस थाम के रहि जथें। लेकिन ऊॅंकर ऊपर जब अलहन बिपत आथे तब धुकधुकी में ओकर साँस तेज हो जथे। तब साँस लेबर ऊपर डाहर आए ला परथे!"

ये बात के सुरता करत मंकू बेंदरा हा मंगर के टोटा में फॅंसे डारा ला हलाय लगिस। मंगर हा पीरा में बायबिकल होगे। साँस लेबर ऊपर डाहर आइस, तब मंकू घलो साँस ले पाइस।‌ 

बड़ बेरा ले ऊंकर दूनों के बीच लड़ई चलत रिहिस। दूनों लस्त पर गें। मंगर ला घलो जानब होइस कि मोरो जीव छूट सकत हे। अइसे में समझौता करना ठीक रही। ओहा मंकू के हाथ-पाँव जोड़े लगिस। किहिस- "मोला माफी दे भाई, मोला छोड़ दे।"

मंकू किहिस - "तब तैं मोला मोर ठउर तक अमरा दे।"

मंगर हा चुपचाप ओला ओकर ठउर में लान दिस। मंकू हा मंगर के मुँहूँ ले डारा ला सूर्रत चप ले कूद के पेड़ में चढ़ गे। 

पेड़ के ऊपर ले मंगर ला किहिस - "तोर मुँहूँ में डारा ला अपन जीव बचाय बर खोंसे रहेंव संगी, तोर जीव लेना मोर मकसद नइ रिहिस। हमन तो तोला मया करत रोज मीठ-मीठ जामुन खवावन। अउ तैं हमर संग कपट करे।"

मोर माँ तो मोला पहिली ले मोला चेताय रिहिस कि - "बेटा काकरो संग बैर मत करबे, फेर काकरो ऊपर आँखी मूँद के भरोसा घलो झन करबे। मोर माँ मोला यहू सिखाय रिहिस कि, बिपत के बेरा घबराबे झन, हिम्मत देखाबे। आज मोर माँ के सीख मोला बचा लिस।" 

अइसे काहत मंकू अपन माँ ला पोटार लिस। अब आँधी थम गे रिहिस। 

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद 


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बुधवार, 3 सितंबर 2025

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

 

(छत्तीसगढ़ी कहानी) "उड़-उड़"

"चींव-चींव...चींव-चींव..." अइसे आरो देवत माई चिरई हा अपन पिला चिरई ला रहि-रहि के बलावत राहय। "आ न बेटा आ! आ उड़! उड़-उड़!" 

फेर पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा ले टस-ले-मस नइ होय। उड़ियाय बर अपन गोड़ ला उसाले ला धरय, त डर के मारे काँप जाय, अउ फेर मुरझुरा के बइठ जाय। 

ओकर मन में भारी डर हमा गे रिहिस। सोचय कि, "मैं कहूँ उड़ियाहूँ, त‌ खाल्हे डाहर खाई में गिर जहूँ, अउ नदिया में बोहा जहूँ। 

इही सोच-सोच के ओ पिला चिरई हा उड़ियाबे नइ करे। खोलखा ले मुड़ी निकाल के खाल्हे डाहर देखे के तको ओकर हिम्मत नइ होय। 

भलुक ओकर छोटे भाई-बहिनी मन नदिया के ओ पार दूसर खॅंड़ में मस्त खावत खेलत राहॅंय। दाई-ददा मन घलो अपन काम बुता में लगे राहॅंय। 

काम बुता करत-करत माई चिरई हा ओ पहाड़ के खोलखा डाहर देखय अउ "आ बेटा आ" कहिके आरो लगावय। 

तीन दिन पहिली सिर्फ वो पिला चिरई के छोड़ चिरई मन के पूरा परिवार हा पहाड़ के खोलखा ला छोड़ के उड़ियावत नदिया के दूसर खॅंड़ में आ गे राहॅंय। काबर कि, अब पहाड़ के खोलखा के जरूरत नइ रहि गे रिहिस। माई चिरई हा सुरक्षित ठउर में अंडा दे बर पहाड़ के वो ऊॅंच खोलखा ला चुने रिहिस। उन्हें अपन खोंधरा बनाए रिहिस।

जब ओकर जम्मो पिला मन अंडा फोर के निकल गें, त ऊॅंकर भूख मेटाए बर नदिया ले मछरी, कीरा-मकोरा निते दाना-दुनका अपन चोंच में चाप के खोलखा में लेगय, अउ नान-नान चीथ टोर के ओमन ला खवावय। 

जब पिला मन बड़े होगें अउ ऊॅंकर पाॅंख जाम गे, तब ओमन ला उड़े बर अउ खुद ले चारा चुगे बर सिखोय खातिर माई चिरई हा प्लान बनाए रिहिस। 

प्लान के मुताबिक वो खोलखा ला छोड़ के सब्बो झन ला एक्के संग उड़ियाना रिहिस। अउ उड़ियावत- उड़ियावत नदिया के ओ पार जाना रिहिस। 

माई के इशारा पाके सब्बो झन एक्के संग उड़िन। खोलखा ले उड़े के बाद बाकी सब चिरई मन उड़ते गिन उड़ते गिन, बस इही पिला के मन में भय हमा गे अउ ओहा तुरते लहुट के खोलखा में फेर हमागे। 

तब ले ओ पिला चिरई हा पहाड़ के खोलखा में बइठे बस टुकुट-टुकुर देखत राहय। अकेल्ला लाॅंघन-भूखन परे राहय। ओला आस रिहिस कि मम्मी हा पहिली जइसे चारा लान के खवाही। फेर तीन दिन होय के बाद भी ओकर मम्मी ओकर बर चारा दाना नइ लानिस।

भूख में पेट सोप-सोप करत राहय। खोलखा में बाँचे-खुॅंचे जउन भी खाय के रिहिस, ओला ओ खा डरे रिहिस। भूख के मारे अपनेच अंडा के फोकला ला घलो खा डरिस। 

अब तो भूख सहे नइ जावत रिहिस। चक्कर आए लगिस। ओला अइसे लागे लगिस कि अब तो प्राण नइ बाँचय। 

जिंदगी बचाना हे अउ जीना हे, त ओला खोलखा ले बाहिर निकलना परही। फेर, ओकर मन में अभीच ले डर बैठे हे। भूख में शरीर घलो कमजोर होगे हे। अइसन में ओ कइसे उड़ियाही? खाई ला कइसे पार करही? नदिया ला कैसे पार करही? 

ये चिंता माई चिरई ला होवत रिहिस। ओहा अपन पिला ला बचाना चाहत रिहिस, फेर ओला जीये के लायक भी बनाना चाहत रिहिस। 

माई चिरई हा नदिया के खॅंड़ ले उड़ान भरिस। नदिया के पानी में गोता लगावत चोंच में मछरी चाप के निकलिस। अउ सनसन-सनसन उड़ियावत पहाड़ खोलखा डाहर निकल गे। 

अपन मम्मी ला आवत देख के खोलखा में बइठे पिला चिरई के मन हरिया गे। देखिस कि, मम्मी हा मोर खाए बर मछरी लानत हे, त ओकर खुशी के ठिकाना नइ रिहिस। 

फेर देखथे कि, ओकर मम्मी खोलखा मेर आके अचानक रुक गे। चोंच में मछरी चपके हे, फेर खोलखा में आवत नइ हे। 

ओ हा तुहनू देखाय कस खोलखा तिर आइस, तभे पिला चिरई हा मछरी ला खाए बर अपन चोंच ला लमावत जइसे आगू डाहर सलगिस, माई चिरई हा तुरते पाछू घुॅंच गे। 

अब पिला चिरई हा खोलखा ले उलन के खाई में गिरे लगिस। गिरत-गिरत अपन मम्मी डाहर बचाही कहिके देखथे, त ओकर मम्मी हा ओला ओकर हाल में छोड़ के ऊपर डाहर उड़ागे। 

पिला चिरई ला लगिस कि अब तो वो बस मरने वाला हे। तभे ओला जनइस, ये एहसास होइस कि ओकर जम्मो पाँख मन फरिया गे हें। ओहा जोरदार साँस लिस, अपन छाती में हवा भरिस, अउ पंख मन ला फड़फड़ाना शुरू करिस। गिरत रिहिस ते हा हवा में थम गे। फेर ऊपर उठे लगिस। उड़े लगिस। 

तभे वो देखिस कि ओकर मम्मी, पापा, भाई, बहिनी सब्बो झन ओकर आजू बाजू उड़त राहॅंय।‌ ओमन ओकर हौसला बढ़ाये बर आए राहॅंय। 

ओमन ला देख के‌ ओ पिला चिरई घलो मगन होके उड़े लगिस। नदिया के पानी में खेले लगिस। पानी तरी बुड़ के टप ले मछरी बिन डरिस। 

भूख-प्यास मेटाए के बाद वो हा जमके उड़े लगिस, आसमान में गोता लगाए लगिस। वो हा अब जान डरिस कि वो पंछी आय। 

        ✍️ ललित मानिकपुरी 


(आयरिश उपन्यासकार - लायम ओ' फ़्लैहर्टी के कहानी "His First Flight" ले प्रेरित)


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रविवार, 24 अगस्त 2025

देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा...




* अच्छी फसल की कामना का लोकपर्व 'भोजली'

* छत्तीसगढ़ में अटूट मैत्री परंपरा का प्रतीक भी है


देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा वो, लहर तुरंगा,

हमरो भोजली दाई के भिजे आठो अंगा...


सावन के महीने में अगर आप छत्तीसगढ़ के गांवों में आपको यह गीत सुनने को जरूर मिल जाएगा। जो कि 'भोजली' गीत के रूप में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ का यह पारंपरिक गीत 'भोजली देवी' को समर्पित है। सावन के महीने में मनाया जाने वाला भोजली का त्यौहार हरियाली और उल्लास का प्रतीक है।  



सावन में रिमझिम बारिश की बूंदें अपनी प्रकृति का पोषण करती हैं, इसी समय प्रकृति हरी चादर ओढ़कर सभी में हर्ष और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। तब कृषक अपने खेती के कामों से थोड़ा समय निकालकर गांवों के चौपालों में सावन का आनंद लेते हैं और इसी समय अनेक लोक पर्वों का आगमन होता है। जिनमें से एक है 'भोजली' का त्यौहार। 


छत्तीसगढ में सावन महीने की नवमी तिथि को छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें गेहूं के दाने उगाए जाते हैं। ऐसी कामना की जाती है, कि- ये दानें जल्दी ही भोजली फसल के रूप में तैयार हो जाएं। जिस तरह भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी तरह खेतों की फसलें भी दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़े और किसान संपन्नता की ओर बढ़े। भोजली का त्यौहार ये उम्मीद देता है, कि इस बार फसल लहलहायेगी और इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं और लड़कियां सुरीले स्वरों में भोजली सेवा लोकगीत गाती हैं। 



भोजली को घर के किसी पवित्र और छायेदार जगह में उगाया जाता है। भोजली के ये दाने धीरे-धीरे पौधे बनते हैं। नियमित रूप से इनकी पूजा और देखरेख की जाती है। जिस तरह देवी के सम्‍मान में वीरगाथाओं को गाकर जंवारा-जस-सेवा गीत गाए जाते हैं, उसी तरह ही भोजली दाई के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं। 


भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन भोजली का विसर्जन होता है। भोजली विसर्जन को गांवों में बड़े ही धूम-धाम से सराया जाता है। सराना यानी कि पानी में भोजली को बहाना। ग्रामीण महिलाएं और  बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए गीत गाती हुई गांवों में घूमती हैं। इस दौरान भजन, सेवा और स्थानीय रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। सेवा टोलियां मण्डली के साथ गाना-बजाना करते हुए भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब या नदी की ओर प्रस्थान करती हैं।



नदी अथवा तालाब जहां भोजली को विसर्जित किया जाना होता है, वहां के घाट को पानी से भिगोकर पहले शुद्ध किया जाता है। फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। जिसके बाद भोजली को जल में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन के बाद कुछ मात्रा में भोजली की फसल को टोकरी में रखकर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाया जाता है।


छत्तीसगढ़ में भोजली का त्यौहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। जहां एक तरफ 'भोजली' छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक मान्यताओं का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की खूबसूरती भी है। इसे मित्रता की मिसाल भी मानी जाती है। दरअसल भोजली का महत्व सिर्फ विसर्जन तक ही नहीं होता है। भोजली की फसल का आदान-प्रदान कर भोजली बदी जाती है। भोजली बदना यानी कि दोस्ती को जीवन भर निभाने का संकल्प लेना। 



छत्तीसगढ़ में भोजली बदने की परंपरा के तहत दो मित्र भोजली की बालियों को एक-दूसरे के कान में खोंचकर लगाते हैं। इसे ही ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा कही जाती है। ऐसी मान्यता है कि जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते हैं। छत्तीसगढ़ में ये मित्र को सम्मान देने की एक खूबसूरत प्रथा है। तो अगर दोस्त का नाम नहीं लेते हैं तो उन्हें संबोधित कैसे किया जाता है। दरअसल भोजली बदने के बाद मित्र को 'भोजली' अथवा 'गींया' कहकर पुकारा जाता है। 


मित्रता के इस महत्व के अलावा भोजली को घरों और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। साथ ही अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करना भी भोजली सिखाता है। 


छत्तीसगढ़ के त्यौहार जहां विविधता और आदिम परंपराओं के द्योतक हैं तो वहीं ये कहीं न कहीं लोगों को प्रकृति से जोड़ते हैं, उनका महत्व बताते हैं, कि कैसे प्राकृतिक संसाधन और प्रकृति हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भोजली पर्व भी उनमें से एक है। जिसका निर्वहन आज भी पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।

✍️ ललित मानिकपुरी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

आदिवासी महापर्व 'खे-खेल बेंजा' 'खद्दी परब' 'सरहुल'


जीवन का आधार 'धरती' और ऊर्जा के परम स्रोत 'सूर्य' के विवाह का महा-उत्सव : खे-खेल बेंजा 


इस समय आदिवासी अंचलों में हर्ष और उल्लास का वातावरण है, क्योंकि आदिवासी परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व धरती पूजन 'खद्दी परब' के साथ पारंपरिक मेलों की धूम है। छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों में शुमार उरांव जनजाति की बोली यानी कुडुख बोली में 'खद्दी परब' या 'खेखेल बेंजा' का आशय होता है 'धरती का विवाह'। इस आदिम परंपरा से पता चलता है कि आदिवासी समाज प्रकृति से कितना गहरा नाता रखता है और इस नाते को जीवंत बनाए रखने के लिए भी किस तरह चैतन्य व समर्पित है। 


आदिवासी मानते हैं कि धरती जीव-जगत का आधार है। हमें अन्न, जल, फल-फूल धरती से ही मिलते हैं। पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों, झरनों का सुख भी धरती ही है। धरती की अनुकंपा से ही जीवों का जीवन चलता है। इस अनुकंपा के लिए धरती के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव वक्त करने के लिए यह महा उत्सव कहीं खद्दी परब, कहीं सरहुल या कहीं अन्य नाम से हर वर्ष मनाया जाता है।


पतझड़ के बाद जब प्रकृति पुनः फलने-फूलने के लिए तैयार हो रही होती है, जब नए कोपलों, नई कलियों से पेड़-पौधों का नवश्रृंगार हो रहा होता है, जब जंगल रंग-बिरंगे फूलों और उनकी महक से भरा होता है, जब बसंती बयार नए फलों की आमद का संकेत दे रही होती है, तब प्रकृति से अभिन्न वनवासी, आदिवासी समाज 'धरती पूजन' का अपना महापर्व मनाता है। यह महापर्व देश के अलग-अलग आदिवासी अंचलों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में यह खद्दी परब या खे-खेल बेंजा नाम से जाना जाता है। 


यहां यह पर्व चैत्र के महीने में मनाया जाता है, जब जंगल में सरई के पेड़ फूलों से लद जाते हैं। आदिवासी परंपरा के अनुसार माटी यानी धरती और सरई वृक्ष की पूजा की जाती है। जीवन का आधार उर्वर धरती और ऊर्जा के परम स्रोत सूर्य के विवाह का प्रतीकात्मक आयोजन किया जाता है। धरती और सूर्य के मांगलिक मेल से ही जीवन संभव और सुखद हो सकता है। यह पर्व मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्तों को बरकरार रखने और प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पित होने का पर्व है। 


छत्तीसगढ़ में बस्तर, सरगुजा, जशपुर अंचल में यह पर्व महा उत्सव के रूप में मनाया जाता है, जिसमें उरांव जनजाति की विशेष भूमिका के साथ सर्व आदिवासी समुदाय तथा वहां के निवासी अन्य जातियों के खेतिहर किसानों की भी सहज सहभागिता होती है। अपनी पुरातन पर्व परंपराओं से आदिवासी समाज प्रकृति की परवाह करने की सीख हजारों साल से दुनिया को दे रहा है।  


• आलेख - ललित मानिकपुरी, रायपुर (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 19 मार्च 2025

कुहकी डंडा नृत्य "Kuhki" an amazing folk dance of India which is only left in a village of Chhattisgarh





आपने देखा है, "कुहकी डंडा नृत्य" कैसे होता है? यह भारत के प्राचीन लोक नृत्यों में से एक है, जो अब विलुप्त होने के कगार पर है। मैं यहां जानबूझकर "विलुप्त" शब्द का उपयोग कर रहा हूं, क्योंकि जीवंतता लोकनृत्यों में भी होती है। 


पूरे मध्य भारत में छत्तीसगढ़ के बिरकोनी जैसे कुछ ही ग्राम ऐसे हैं जहां कुहकी डंडा लोकनृत्य की परंपरा आज भी चली आ रही है। पशुपालक कृषकों द्वारा फागुन त्यौहार के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।


बिना किसी वाद्य यंत्र के केवल कंठ से निकलने वाली आवाज़ "कुहकी" और डंडों के टकराने की ध्वनि से ही इस नृत्य के लिए संगीत उपजता है। डंडों की चाल और ताल के साथ नृत्य की गति जैसे-जैसे तेज होती जाती है, नर्तन वृत्त पर ऐसा अद्भुत रोमांचकारी दृश्य उत्पन्न होता है कि नजरें टिकी रह जाती हैं। 


नृत्य करने वाले ही नृत्य के साथ-साथ गीत भी गाते चलते हैं। ये गीत लोकभाषा में होते हैं, फूहड़ कतई नहीं। इन गीतों में जीवन के हर्ष, विषाद और जीव की परम् गति शब्दों से उच्चारित होती है और यही भाव-दृश्य नृत्य आवृत्त में भी परिलक्षित होता है। 


हमारे गांव बिरकोनी के कृषक सियानों ने इस लोकनृत्य को सहेज कर रखा है। वे चाहते हैं कि नई पीढ़ी भी इस लोकनृत्य में रुचि ले, इसे आगे बढ़ाए। 


पांच पीढ़ियों से संभाले हुए हैं : 

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बिरकोनी गांव के सियानों ने विलुप्ति के कगार पर पहुंचे पारंपरिक कला कुहकी डंडा नृत्य को पांच पीढ़ियों से संभाले रखा है। 


कंठ से निकली आवाज़ ही "कुहकी"

कुहकी डंडा नृत्य कला व परंपरा का अदभुत संगम है। कुहकी डंडा नृत्य एक ऐसा नृत्य है, जिसमें कंठ से निकाली जानी वाली विशिष्ट आवाज "कुहकी" से ही नृत्य की लय, गति और डंडे की चाल बदल रहती है।


100 से चली आ रही यह नृत्य परंपरा : 

100 सालों से फागुन त्यौहार के अवसर पर इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है। गांव में यह नृत्य कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलती रही है। फागुनी माहौल में कुहकी कलाकारों का उत्साह और इस नृत्य का वास्तविक सौंदर्य दिखाई पड़ता है। 


सभी नृत्य कलाकार 60 साल पार : 

कुहकी नृत्य करने वाले अधिकतर 60 साल के ऊपर के हो चले हैं। वे नई पीढ़ी को यह कला सिखाना और इस नृत्य परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। किंतु नई पीढ़ी रुचि नहीं ले रही है। 


8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी : 

बुजुर्ग कलाकार बताते हैं कि कुहकी नृत्य में डंडा चालन के लिए 8 या 10 व्यक्ति का होना जरूरी है। प्रत्येक नर्तक के हाथ में एक या दो डंडा होता है। नृत्य का प्रथम चरण ताल मिलाना है। दूसरा चरण कुहकी देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक-दूसरे के डंडे पर डंडे से चोट करते हैं। डंडों की समवेत ध्वनि से अल्हादकारी संगीत उपस्थित होता है। 


कुहकी के भी कई रूप : 

कुहकी नृत्य भी अनेक प्रकार का होता है। छर्रा, तीन टेहरी, गोल छर्रा, समधीन भेंट और घुस। अभी बिरकोनी के सियान छर्रा और तीन टेहरी का प्रदर्शन करते हैं। फागुन त्यौहार के अवसर पर इसका आनंद लेने हजारों की भीड़ लगी होती है। 


क्या कहते हैं सियान : 

गांव के लोक कलाकार बुधारू निषाद बताते हैं कि 10 साल की उम्र से ही होली के अवसर पर कुहकी नृत्य करते आ रहे हैं। हमारे पुरखों ने इस सांस्कृतिक कला की नींव रखी थी। उसे हमने आगे बढ़ाया। वर्तमान में 8-10 लोग ही कुहकी डंडा नृत्य करते हैं। नई पीढ़ी इसमें रुचि ले तो यह लोक नृत्य आगे भी जिंदा रहा सकता है। इसके गीत भी मधुर और भक्ति भाव से भरे होते हैं। 


क्या है कुहकी : 

कुहकी नृत्य में एक व्यक्ति गले से एक अलग तरह की आवाज निकालता है। इस आवाज से नृत्य की लय व डंडे की चाल बदलती है। आवाज से इशारा मिलने पर नर्तक नृत्य का तरीका बदलने के साथ आगे-पीछे घूमकर डंडे से डंडे पर चोट करते हैं।


बिना साज अद्भुत नृत्य : 

कुहकी नृत्य में एक विशिष्ट बात यह है कि इस नृत्य के दौरान कोई भी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता। नर्तकों के डंडों की चोट की समवेत ध्वनि और कुहकी की आवाज से बिना साज ही संगीत सी लहर दौड़ने लगती है। 


पशुपालक कृषकों का नृत्य : 

कुहकी डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ के पशुपालक कृषकों का पारंपरिक नृत्य है, पहले कृषि और पशुपालन करने वाले ग्रामीण प्रायः हाथों में डंडे लेकर चलते थे। फागुनी उमंग में डंडों से ही संगीत की तरंग निकाल लेते थे। इस नृत्य का किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं है। हां यह नृत्य केवल पुरुष ही करते हैं। इस नृत्य में तीव्र डंडा चालन जोखिम भरा होता है। 


✍️ललित मानिकपुरी, 

बिरकोनी, महासमुंद (छत्तीसगढ़)


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बुधवार, 13 मार्च 2024

सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर "अमर प्रेम की अमिट निशानी" Laxman Temple of Sirpur "Indelible symbol of immortal love"



 "अमर प्रेम की अमिट निशानी"


एक नारी के अमर प्रेम की, है यह अमिट निशानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की, सुनिए कथा पुरानी।।


छठी सदी की बात है सुनो, बरसों बरस पुरानी,

दक्षिण कोसल राज था अपना, श्रीपुर थी राजधानी।

सोमवंश का राज था यहाँ, हर्षगुप्त महाराजा, 

मगध की राजकुमारी वासटा से उनका मन लागा।

मगधधीश सुर्यवर्मा की पुत्री, बन गईं कोसल रानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


सावन बीता फागुन बीता, बीती बासंती कई,

वासटा देवी हर्षगुप्त में, प्रीति बस बढ़ती गई।

भाव भरे इस युगल हृदय का, राज बड़ा अनुपम था,

कला संस्कृति का विकास, जन-जीवन मधुरम था।

जन-जन के अंतस में दोनों की थी छवी सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


अनहोनी हो गई एक दिन, समय चक्र का खेल चला,

रानी जी का प्रियतम राजा, इस दुनिया को छोड़ चला।

माटी में माटी की काया, ब्रह्म में जीव समाया,

विरहन हुईं वासटा देवी, चिर वियोग था आया।

यादों में बस गये पिया जी, था आंखों में पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


कोई नहीं जाने सागर में, कितना पानी भरा हुआ।

विरहन मन की थाह नहीं वह भीतर कितना दहक रहा। 

पिया पिया की जाप लगाती, पल पल रोती रानी,

पिय की याद अमर करने को, मन ही मन में ठानी।

महानदी के पावन तट पर पिया की रहे निशानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


प्रेम से ही मिलते ईश्वर हैं, प्रेम ही भक्ति पूजा,

एक पिया, एकहि परमेश्वर और न कोई दूजा। 

विरहि वासटा देवी ने कामना करी मंदिर की,

सांस सांस में पिया पुकारे, जाप करे हरि हर की।

मर्यादा थी राजवंश की, भीतर भक्त दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


मंदिर बनवाने की ईच्छा पुत्र को उसने बताई,

महाशिवगुप्त बालार्जुन ने तब योजना बनवाई। 

महान शिल्पी कारीगर केदार को उसने बुलाया,

चित्रोत्पला गंगा के तट पर कार्य आरंभ कराया।

अविरल सृजन शिल्पियों ने की रचना रची सुहानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।


अपने प्रिय की याद में रानी रह रह कर रोती थीं,

हृदय में धधकी विरह अगन की ज्वालाएं उठती थीं।

इसी विरह की आंच से जैसे माटी खूब तपीं थी,

इसी विरह की आग से तप हर ईंट अंगार बनी थीं।

इनकी अगन भी बुझा न पाया महानदी का पानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चिर वेदना का चित्रण करती नक्काशी अद्भुत हुई,

लाल लाल मिट्टी की ईंटें कलियां जैसे खिल गईं।

पति स्मृति अक्षुण्य बनाकर रानी तज गई जीवन,

किंतु उनके सांस बसे हैं इस मंदिर के कण-कण।

जग को अद्भुत कृति दे गई अद्भुत प्रेम दिवानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


चलता गया समय का पहिया, बीत गईं कितनी ही सदियाँ, 

सदी बारहवीं धरती डोली, महल विहार गिरे जस पतियाँ।

चौदहवीं पंद्रहवीं सदी में, बाढ़ों ने भी प्रलय मचाया,

प्रलयंकारी जलप्लावन ने, पूरा श्रीपुर नगर मिटाया।

फिर भी अडिग खड़ा रहा अविचल यह मंदिर वरदानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


माटी की ईंटों को कोई प्रेम का जादू जोड़ रखा है,

भूकंपों और बाढ़ की ताकत को जैसे कोई मोड़ रखा है।

नहीं डिगा तूफानों में यह, आँधियों में भी खड़ा रहा,

पावन प्रेम प्रतीक के आगे हर आफत है हार चुका।

अमिट धरोहर है अपनी यह, विश्व विरासत मानी।

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


समय के माथे पर यह रचना, बिंदिया जैसी दमक रही, 

है पंद्रह सौ साल पुरानी, पूनम चंदा सी चमक रही।

छत्तीसगढ़ की आन है यह, भारत भूमि की शान,

अनुपम प्रीति स्मृति को अब जाने सकल जहान।

ताज महल से भी है यह तो हजार बरस पुरानी,

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर की सुनिए कथा पुरानी।।


रचना - ललित मानिकपुरी 

बिरकोनी, महासमुंद (छ.ग.)

(सर्वाधिकार सुरक्षित)