बुधवार, 31 दिसंबर 2014

चिड़िया का जवाब....

जंगल में भयानक आग लग गई थी और जंगल के राजा शेर सहित सभी जानवर वहां से भाग रहे थे। तभी शेर ने एक छोटी-सी चिड़िया को जंगल की ओर जाते देखा। शेर ने उससे पूछा कि तुम क्या कर रही हो। चिड़िया ने जवाब दिया कि मैं आग बुझाने जा रही हूं। शेर हंस पड़ा। उसने कहा कि तुम्हारी चोंच में जो महज दो बूंद पानी है, उससे तुम जंगल की इतनी बड़ी आग को कैसे बुझाओगी? उस चिड़िया ने जवाब दिया, कम से कम मैं अपने हिस्से का फर्ज तो निभा ही सकती हूं।
एक अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? इसका जवाब देते हुए ऑस्लो में शांति का नोबल पुरस्कार ग्रहण करने के बाद बाल अधिकारों के चितेरे श्री कैलाश सत्यार्थी ने लाखों लोगों की अंतरात्मा को झंकृत करे देने वाले अपने उद्बोधन में यह कहानी सुनाई, जो उन्होंने बचपन में सुनी थी। बंधुआ बच्चों की मुक्ति के लिए जीवन समर्पित करने वाले श्री कैलाश सत्यार्थी को बच्चों का मुक्तिदाता कहा जाता है, उन्होंने पिछले 30 सालों में 80 हजार बच्चों को मुक्ति दिलाई है। शांति के नोबल के वे बिलकुल सही हकदार थे, जो उन्हें मिला। हमें गर्व उन पर है।
लघुकथा-

अभागे...

''इससे ज्यादा अभागा और कौन होगा? जहां इतना बड़ा सत्संग-प्रवचन हो रहा है, वहां यह कंबल ओढ़कर सोया पड़ा रहता है।"" एक सत्संगी ने दूसरे सत्संगी से कहा। तब दूसरे ने भी उनके हां में हां मिलाते हुए कहा-''बिलकुल सही कहते हैं संत जी, पांच दिनों से देख रहा हूं यह आदमी सद्गुरु महाराज का भजन-प्रवचन सुनने के बजाय इसी तरह सोया रहता है। ठीक है सत्संग पंडाल काफी बड़ा है, लेकिन यह साधु-संतों और श्रद्धालुओं के लिए है। भंडारा में पेलकर नींद भाजने वाले के लिए यहां कोई जगह नहीं होनी चाहिए। देखो तो कितना खराब लगता है। यह अभागा नहीं, कुंभकर्ण है। राक्षस है। मानुष जनम पाकर भी पशु के समान है। भगाओ इसे।""
उनकी बातों का समर्थन करने वाले और कई मिल गए। फिर क्या था, सत्संग पंडाल से खींचते हुए लोगों ने उसे भगा दिया। दूसरे दिन पुन: प्रवचन का समय हुआ, रोज की तरह महराज के आने के पहले ही लोग पंडाल में पहुंचने लगे। लेकिन आज पंडाल का माहौल बहुत खराब था, चारों ओर जूठन-पत्तल बिखरे पड़े थे। चारों ओर गंदगी का आलम था। कहीं से गंदा पानी बहता आ रहा था, तो कहीं कीचड़ हो रहा था। पंडाल के आसपास मल-मूत्र और गंदगी से अंदर तक दुर्गंध फैल रही थी। ऐसे में न तो वहां किसी का प्रवचन में मन लग रहा था और न ही भोजन-भंडारा के प्रति रुचि हो रही थी। आयोजकों ने सोचा कि सत्संग स्थल का यह हाल कैसे हो गया। तमाम सदस्यों से पूछने-ताछने पर पता चला कि उन्होंने तो सफाई के लिए किसी को नियुक्त ही नहीं किया था। फिर सवाल उठा कि इसके पहले चार-पांच दिनों तक फिर यहां का वातावरण साफ-सुथरा कैसे था।
तभी प्रवचनकर्ता महराज जी को उस आदमी की याद आई। उन्होंने कहा -''मैं तड़के उठता था तो एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को यहां से कचरा उठाते देखता था। संभवत: वह सारी रात यह काम करता था। उसे फावड़ा लेकर नाली भी बनाते देखा था। कहां है वह।"" तभी कुछ सत्संगियों को ध्यान आया कि कहीं वही तो नहीं, जिसे हम ही लोगों ने मारपीट कर भगा दिया। तब महराज ने कहा- ''प्रवचन कहने और सुनने से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसे अपने जीवन-व्यवहार में आत्मसात करना। हम अभागे हैं, एक इंसान को नहीं पहचान सके तो संत, सद्गुरु या परमेश्वर को क्या पहचान पाएंगे।""
-ललित दास मानिकपुरी

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

रामू हो गया रॉबर्ट



रामू हो गया रॉबर्ट, मीरू हो गई मारिया,
तोड़ते पत्थर और झोपड़ी घर-बार हैं।
...
जूतों के भीतर से, झांक रही उंगलियां,
जुगाड़ के कोट में भी पैबंद हजार हैं।
...
ये फटे हाल सांता, क्या बांटे खुशियां,
पेट में सूखा और मुंह पर डकार है।
...
रॉबर्ट हो गया राम, मारिया बन गई मीरा,
सामने वही पत्थर, हथौड़ी औजार है।
...
अब माथे पर तिलक है, मांग में सिंदूर,
पर हाथों में फफोले, पांवों में दनगार है।
...
ये राम भला क्या करे, दीपदान आज,
माटी का दिया, तेल को लाचार है।
...
 -ललित मानिकपुरी


ठठा खेल थोड़ी है.…

रोग, शोक, दुःख, पीरा से मुक्ति
शादी पक्की, नौकरी में तरक्की,
सपने बेचकर अपना खजाना भरना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

टीवी पर चमत्कारों का विज्ञापन,
गुप्त कक्षों में कामसूत्र के आसन,
एक ध्यान में कुंडलियां जगा देना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।


आश्रम की आड़ में मस्ती-अय्याशी,
फिर भी श्रीश्री ब्रह्मचारी, संन्यासी,
होटल में बैठ त्रिकालदर्शी हो जाना,

ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

भक्ति के नाम पर भोग-विलास,
साधना के नाम पर लीला-रास,
सत्य के नाम पाखंड का डंका बजा देना,
ठठा खेल थोड़ी है बड़ा बाबा होना।

ललित मानिकपुरी

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

16/12...

16/12...

 
रो रहा स्कूल
कक्षाएं स्तब्ध
श्याम पट के आगे
अंधेरा घना
फट गया दिल
किताबों का
कलम नि:शब्द
रह-रहकर
सुबकते बस्ते
अश्रु बहातीं
पानी बोतलें
जहर मांगते
टिफिन डिब्बे
कौन दे सांत्वना
दरों-दीवारों को
कौन समझाए
क्यारियों को
कैलेंडर शर्मिंदा
तारीख ही क्यूं बनी
16 दिसंबर

(पेशावर की एक मां की आखिरी लोरी...)

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जा मेरे राजा बेटा जा, जा मेरे राज दुलारे...
मेरे दिल के टुकड़े जा, जा मेरी आंख के तारे।
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जा एक ऐसी दुनिया में, जहां तू और तेरे सपने हों,
न मजहब हो, न सरहद हो, न मतलब हो, न झगड़े हों।
बादलों की बस्ती में जा, जहां रहते चांद-सितारे...
जा मेरे राजा बेटा जा, जा मेरे राज दुलारे...।
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फूल बनकर आया था, इस दुनिया को महकाने को,
लेकिन यह न भाया उन नापाक दहशतगर्दों को।
ये चमन तेरा अब उजड़ गयाए, सुमन सभी मन मारे...
जा मेरे राजा बेटा जा, जा मेरे राज दुलारे...।
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इतनी छोटी छाती में तू दर्द कितना दबा गया,
गोलियां खा ली जहर बुझी, टॉफियां मीठी छुपा गया।
देकर कुर्बानी जान की, माटी के कर्ज उतारे...
जा मेरे राजा बेटा जा, जा मेरे राज दुलारे...।
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जा एक ऐसी दुनिया में, जहां चैन-औ-अमन की हवा बहे,
न दुश्मन हो, न दहशत हो, बस प्यार दिलों में पला करे।
झिलमिल तारों के झूले हों और चांद-सूरज-से यारे...
जा मेरा राजा बेटा जा, जा मेरे राज दुलारे...।
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-ललित मानिकपुरी, रायपुर।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

गर्भ से बेटी करे पुकार...

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तेरी जान बन जाऊंगी, जहान बन जाऊंगी, जन्न्त बन जाऊंगी,
अरज बन जाऊंगी, अजान बन जाऊंगी, मन्न्त बन जाऊंगी,
दे दे मां तू जीवन का दान वरदान मुझे, बेटी बन तेरी दौलत बन जाऊंगी,
तेरा सोना बन जाऊंगी, मैं हीरा बन जाऊंगी, रतन बन जाऊंगी।

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दे दे मां तू भीख मुझे बस एक जनम की ही, जनम-जनम तेरी दासी बन जाऊंगी,
ममता की छांह तेरी कोख में पलन दे दे, मुखड़े की तेरी हंसी-खुशी बन जाऊंगी,
दे दे मां तू सांस मुझे, अपनी सांसों से थोड़ी, सांसों की तेरी संगीत बन जाऊंगी,
धक-धक-धक तेरे हृदय की धड़कन, सुन-सुन कर नया गीत बन जाऊंगी।
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तेरा दीया बन जाऊंगी, मशाल बन जाऊंगी, चिराग बन जाऊंगी,
तेरी लौ बन जाऊंगी, लपट बन जाऊंगी, उजास बन जाऊंगी,
दे दे मां तू एक बार जिंदगी की रोशनी, तेरे तन मन का प्रकाश बन जाऊंगी,
तेरा शब्द बन जाऊंगी, विचार बन जाऊंगी, किताब बन जाऊंगी।

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तेरा फूल बन जाऊंगी, बसंत बन जाऊंगी, बहार बन जाऊंगी,
तेरा रूप बन जाऊंगी, मैं रंग बन जाऊंगी, श्रृंगार बन जाऊंगी,
नेह की बूंद दे दे अपनी रगों से जरा, सावन तेरा मधुमास बन जाऊंगी,
तेरी घटा बन जाऊंगी, बिजुरी बन जाऊंगी, बरसात बन जाऊंगी।
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दे दे मां तू नैन मुझे अपने नयन जैसे, तेरी इन अंखियों का तारा बन जाऊंगी,
दे दे मां तू हाथ मुझे अपनी भुजाओं जैसे, नाम तेरा होगा ऐसा काम कर जाऊंगी।
पांव दे दे मुझे बस अपने कदम जैसे, जीत के जहान तेरी खुशी लूट लाऊंगी।
दे दे मां तू दिल मुझे अपने ही दिल जैसा, दिल जीत सबकी दुलारी बन जाऊंगी।

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-ललित मानिकपुरी, रायपुर

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014


इन नजरों को मालिक दे ऐसी नजर...
हर नजर में तेरी नजर को जो देख ले।
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बलराम के भीतर रहमान को जो देख ले,
पुराण के भीतर कुरआन को जो देख ले,
इन नजरों को मालिक दे ऐसी नजर
नमन के भीतर सलाम को जो देख ले।
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सूखते पत्तों की प्यास को जो देख ले,
बुझते दीपों की आस को जो देख ले,
इन नजरों को मालिक दे ऐसी नजर,
इंसानियत की टूटती सांस को जो देख ले।
...
मजदूर के माथे के कर्ज को जो देख ले,
दरकती सलवार के दर्द को जो देख ले,
इन नजरों को मालिक दे ऐसी नजर,
'दास" के भीतर के मर्ज को जो देख ले।
...
-ललित दास मानिकपुरी