मंगलवार, 25 नवंबर 2014

गीत...


दूर तक जाने दे बात को साथिया, बात से बात कोई बनेगी सही,
रूह तक जाने दे साथ को साथिया, साथ से बात कोई बनेगी सही।

...
ताल पे ताल देते हुए साथिया, प्यार सरगम की चादर ओढ़ा ले पिया,
साज को साज कर सुर मिला लें जरा, साज से फिर कोई धुन बनेगी सही।
...
बूंद को बंूद से आज मिलने तो दे, फूट जाने दे दरिया से धारा कोई,
आंधियां उठने दे मिटने दे सब हदें, आज लहरों में लपटें उठेंगी सही।
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डालियां मुस्कराएंगी जब बाग में, मालिया भी तभी मुस्करा पाएगा,
अब तो ऐसी लगन बस लगे साथिया, हो अगर तू नहीं तो हम भी नहीं।
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छोड़कर जाएंगे रास्ते पे निशां, जिद हमारी भी है आज होना फनां,
काल से आज कर लें चलो दो-दो हाथ, यूं सदा कोई रहने को आया नहीं।

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दर्द अपना कसकता है भीतर मगर, जख्म औरों का नजरों को दिखता नहीं,
इस तरह भी जिये तो जिये क्या भला, बहते आंसू किसी का तो पोंछा नहीं।
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यूं जमाना बुरा पर जरा सोच ले, जमाने से हम भी जुदा ही कहां,
हाथ अपना बढ़ा कर तो देखें जरा, नेक कामों की कोई कमी तो नहीं।

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-ललित मानिकपुरी, रायपुर

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़ी रेडियो वार्ता :


महिमा चम्मास के...

असाढ़, सावन, भादो अउ कुंवार चार महिना चम्मास के,  नवा सिरजन के दिन आय। खेत-खार म मिहनत के पछीना ओगराए के दिन आय, धरती के गरभ ले दुनिया के भूख मिटाए बर अन्न् उपजाए के दिन आय। 

लककावत गरमी के बाद असाढ़ के अगोरा कोन ल नई राहय। अकास म करिया बादर घुमर के आथे त कमिया के रुआं-रुआं म बिजली दउड़ जाथे। जइसन बदरा बरसथे तइसन गांव के जुवानी जोर मारे लगथे, अउ निकल परथे नगरिहा धर के नागर खेत बर।

 'अरा.. ररा..तता..तता" बइला मन ल हांकत-पुचकारत हरिया-हरिया खेत जोतके बीजहा डारथें, अउ सोनहा धान के दाना पावत तक दिन-रात पछीना ओगराथें। उहें बहिनी-माई मन घलो उखंर संगे-संग कछोरा भिर के लगे रइथें। उंखर मिहनत के फल आय कि एसो हमर छत्तीसगढ़ प्रदेश ल पूरा देस म सबले जादा धान उपजाए के खातिर 'कृषि कर्मण" पुरस्कार मिलिस। 

एक बार फेर जम्मो खेतिहर संगवारी मन धान के कटोरा ल लबालब करेबर कन्हिया कस के भिड़े हें। खेत-खार म धान के नान्हें पौध लहलहावत हे। रहियर लुगरा पहिर के धरती माई मुस्कावत हे। पुरवइया के झोंका माटी के महक बगरावत हे। अइसन मौसम में संगी तन-मन हरियावत हे। मनखे के मन मंजूर बनके झूमत हे। अउ मन में उमंग भरे बर तिहार मन घलो पूछी धरे आवत हें। फेर चम्मास के तिहार मन के बाते अलग हे।
 
      चाहे हरेली होय, नागपंचमी होय, कमरछठ होय, चाहे आठे या तीजा पोरा होय। ये तिहार मन के बहाना काम-बुता म थके हारे तन ल आराम तो मिलबे करथे, मन घलो चंगा हो जाथे। फेर तिहार मन के मूल भावना म सबके खुसियाली के ही बात हे। वइसे भी हमर तिहार मन के जर घलो खेत-खार म जामे हे। 

छत्तीसगढ़ के पहली तिहार आय हरेली। जउन ल सावन के अमावस के दिन मनाथन। तब खेत-खार अउ चारो कोती परकिति के हरियर रंगत बगरे रइथे। हरेली के दिन हरियाली के आनंद मनाथन अउ ये कामना करथन कि धरती के ये हरियर रंगत बने राहय। हमर पुरखा मन हरेली के तिहार बनाके हमला परकिति के साथ जुड़े रहे के अउ ओखर धियान रखे के संदेस दे हें। 

संगी हो आज परयावरन परदूसन के चिंता पूरा दुनिया ल सतावत हे। पूरा जीव जगत संकट म हे। ये संकट से कइसे उबरना हे, एखर संदेस हरेली तिहार के भाव म छिपे हे। काय? धरती के हरियर रंगत ल बचाए के, जंगल के रुख-राई ल बचाए के अउ नवा पौध लगाए के।

 हमर किरिसी परधान छत्तीसगढ़ बर हरेली तिहार के विसेस महत्तम हे। ये तिहार खेती के पहली चरन पूरा होय के संकेत आय। किसान मन बड़ परेम अउ उपकार भाव ले अपन बइला मन ल गहूं पिसान अउ नून के लोंदी खवाथें। अउ अपनो मन बनगोंदली अउ दसमूल के परसाद खाथें। जंगल के ये कांदा अउ जरी जइसे मिठाथे वइसने ओमा अउसधी गुन घलो भरे होथे। बीमारी मन ले बचाव के खातिर ये हमर पुरखा मन के सुघ्घर खोज आय गोंदली अउ दसमूल। 
 
      सावन तो साधना के महीनाच आय। खेतिहर मन खेती के साधना करथें त भगत, सन्यासी मन भगवान के। जइसे नदिया नरवा म पूरा आथे, तइसे लोगन के मन म घलो भक्ति के भाव उमड़े लगथे। 

महादेव ल मनाए बर गांव-गांव ले कांवरिया निकल परथें। धर के कांवर म पानी, कोस-कोस रेंगत-रेंगत जाके महादेव म चढ़ाथें। सावनभर गली-गली बोलबम के नारा गूंजत रहिथे। 

सावनेच में परथे राखी के तिहार जउन ह भाई-बहिनी के मया के डोर ल अउ मजबूत करथे। फेर आथे आठे। गोकुल कन्हइया के अवतार के दिन। लइका-लइका मन घलो उपास रइथें। झुन्न्ा बांध के झूलत अउ कोठ म गोकुल कन्हइया के चित्र बनावत कतका बेर दिन पहा जथे पता नइ चलय। फेर मंदिर म रामायन-भजन अउ पंजरी के परसाद पाके घर म सुघ्घर कतरा के भोग लगाथें।
 
      सावनभर गांव-गांव म चलथे सावनाही रामायन। एती झिमिर-झिमिर पानी गिरत रइथे त ओती रामायन मंडली के भाई-बहिनी मन ढोलक, मजीरा बजावत भजन गावत रइथें। सुघर संगीत के संग भक्ति के धुन सुनके दिनभर के काम-बूता के थक-पीरा तो जइसे छू मंतर हो जाथे। 

फेर आगे तीजा-पोरा, जेखर सालभर अगोरा। धान के निंदई-कोड़ई ल करके लउहा-लउहा, बहिनी मन ल होय रइथे मइके जाय के उत्ता धुर्रा। इही तो मौका रइथे बछर म एक घव मइके जाय के। दाई, ददा, भाई-बहिनी के संगे-संग नानपन के सखी-सहेली संग मिलाप के। वइसे तो दाई-ददा के मुहाटी तो बेटी ल सदा अगोरत रइथे, फेर बेटी काय करय, ससुराल के मया अउ जुम्मेदारी म भुलाय रइथे। ये तीजा के तिहार आय जेन ह बेटी ल जिनगी भर मइके ले जोड़े रइथे। 

तीजा म सगा बनके आय बहिनी-बेटी ल बड़ परेम से लुगरा भेंट करे जाथे। उंखर लोग-लइका मन घलो नवा कपड़ा अउ खेलउना पाके गदगद हो जाथें। बाबू मन बर नदिया बइला अउ नोनी मन बर जाता-पोरा। बड़े मन ल देख के लइका मन सधाए रथें। महू चलातेंव नागर-बैला त महूं राधतेंव भात-साग। उंखर संउख ल पूरा करे बर अइसने खेलउना दिए जाथे। अब तो आगे संगी किसम-किसम के मसीनी खेलउना, पहिली तो कुम्हार के हाथ ले बने माटी के खेलउना मन ही लइका मन के मन ल मढ़ावैं।

     चम्मास के दू महीना बीत के अब आवत हे गनपति, गली-गली अउ घर-घर बिराजे बर। हमर नौजवान संगवारी मन पहिली ले एखर तियारी म भिड़ गे हें। कहूं करा पंडाल बनत हे, त कहूं करा मूरती। नौ-दस दिन ले गणेश भगवान के पूजा करबो अउ कार्यकरम के मजा घलो लेबो। 

गनेस उत्सव के दिन कोन ल बने नइ लागय, फेर कई ठन बात दुखी कर देथे। काखरो ले जबरिया चंदा वसूली बने बात नइ होय। कई जगा गनेस भगवान के मूरती ल अलकरहा सकल देके बइठार देथें। कहूं करा नेता बना देथें त कहूं करा फिल्मी हीरो। जइसे पाथें वइसने रूप देके जइसे भगवान ल मजाक बना देथें। एखर से सरधालु लोगन के भावना ल ठेस पहुंचथे। गनेस समिति वाला संगवारी मन ल ए बात के धियान रखना चाही। संगे संग यहू बात के धियान रखना चाही कि गनेस अस्थान म बने माहउल राहय। मनमाने आवाज में फिल्मी गाना बजाना, अउ सांसकिरितिक कार्यकरम के नाम ले फूहड़ कार्यकरम कराना कोनो बने बात नइ होय।
 
     चम्मास के भीतर सबसे खास तिहार परथे पितर पाख। अपन पुरखा मन ल सुरता करके पाख। उंखर परति आभार माने अउ उंखर तरपन करे के पाख। 

फेर आथे नवराती। जघा-जघा मां दुरगा के मूरती के अस्थापना करके नव दिन तक सेवा-पूजा करथंन। पूरा अंचल म मांदर अउ झांझ के झंकार के संगे-संग माता सेवा के पारंपरिक गीत गूंजे लगथे। इही बीच गांव-गांव म रामलीला घलो होथे। अउ दसराहा के दिन रावन के बध होथे। कतको जघा आतिसबाजी के संग रावन के पुतला दहन करे जाथे। बुराई के अंत होथे अउ अच्छाई के जीत होथे। संगी हो असल बात तो इही आय। बने करम करन अउ बने-बने राहन। जय जोहार।
                                                                                                          
-ललित दास मानिकपुरी
(आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित)

रविवार, 9 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी-

                                बाबाजी

                                                                                                                 

                           
                                                                                                
'दुलारी..., मैं नरियर ले के लानत हंव, तैं फूल-पान अउ आरती सजाके राख। अंगना-दुवारी म सुंदर चउंक पुर दे।"- मंगलू  अपन गोसइन ल कथे।

'मैं सब कर डारे हावंव हो, फिकर झन करौ। बस काखरो करा ले सौ ठन रुपया लान दौ। बाबा जी ल घर ले जुच्छा भेजबो का?" - दुलारी किहिस।

बिचार करत मंगलू कथे-'बने कथस वो, पहली ले जानत रइतेन बाबाजी आही कहिके त सुसाइटी ले चांउर ल नइ बिसाय रइतेन। साढ़े तीन कोरी रुपया रिहिस हे। फेर चांउर नइ लेतेन त खातेन का? कोठी म तो धुर्रा उड़त हे।"

'का जानन हो, अइसन दुकाल परही कहिके। ओतका पछीना ओगराएन, पैरा ल घलो नइ पाएन। गांव म तो सबो के इही हाल हे हो, काखर करा हाथ पसारहू? तेखर ले मोर बिछिया ल बेच देवव।"- दुलारी कहिस।

मंगलू कथे-'कइसे कथस वो, तोर देहें म ये बिछिया भर तो हे, यहू ल बेच देबे त तोर करा बांचहीच का?"

'तन के गाहना का काम के हो, जब बखत परे म काम नइ अइस। बाबाजी के किरपा होही त अवइया बछर म हमरो खेत ह सोन ओगरही। तब बिछिया का, सांटी घलो पहिरा देबे।"- दुलारी किहिस।

मंगलू ल दुलारी के गोठ भा गे, कथे-'तैं बने कथस वो, आज मउका मिले हे त दान-पुन कर लेथन। का धरे हे जिनगी के? ले हेर तोर बिछिया ल, मैं बेच के आवत हंव।"

मंगलू दुलारी के बिछिया ल बेच आइस। सौ रुपया मिलिस तेला दुलारी अंचरा म गठिया के धरिस। दुनों के खुसी के ठिकाना नइ हे। रहि-रहिके अपन भाग ल सहरावत हें कि आज बाबा जी के दरसन पाबो, ओखर चरन के धुर्रा ल माथ म लगाबो। सुंदर खीर रांध के दुलारी मने-मन मुसकावत हे, ये सोंच के कि रोज जेखर फोटू ल भोग लगाथंव, वो बाबाजी ल सिरतोन म खीर खवाहूं।

मंगलू मुहाटी म ठाढ़े देखत हे। झंडा लहरावत मोटर कार ल आवत देखिस त चहकगे। आगे... आगे... बाबाजी आगे, काहत दुलारी ल हांक पारिस। दुलारी घलो दउड़गे। दुनोंझन बीच गली  म हाथ जोरके खड़े होगें। हारन बजावत कार आघू म ठाहरिस। बाबा जी अउ ओखर मंडली जइसे उतरिस, मंगलू हा बाबा जी के चरन म घोलनगे। 'आवव... आवव... बाबाजी" काहत, परछी म लान के खटिया म बइठारिस। पिड़हा उपर फूलकांस के थारी मढ़ाके पांव पखारे बर दुनोझन बइठिन। बाबा जी अपन पांव ल थारी म मढ़इस, त ओखर सुंदर चिक्कन-चाक्कन पांव ल देखके दुनों के हिरदे गदगद होगे। ये तो साक्षात भगवान के पांव आय। ये सोंच के, 'धन्य होगेन प्रभू, हमन धन्य होगेन" काहत मंगलू अपन माथ ल बाबाजी के चरन म नवादिस। दुनों आंखी ले आंसू के धार फूट परिस। तरतर-तरतर बोहावत आंसू म बाबाजी के पांव भींजगे। दुलारी के आंखी घलो डबडबागे।

तभे मंडलीवाला कथे-'जल्दी करो भई, बाबाजी को गउंटिया के घर भी जाना है।"

हड़बड़ाके दुनोंझन पांव पखारिन, आरती उतारिन, फूल-पान चढ़ाइन अउ नरियर के संग एक सौ एक रुपया भेंट करिन।

'मंगलू बाबाजी को बस इतना ही दान करोगे?"- मंडली वाला फेर किहिस।

'हमन गरीबहा तान साधू महराज, का दे सकथंन। जउन रिहिस हे तेला बाबाजी के चरन म अरपन करदेन।"- मंगलू अपन दसा ल बताइस।

 मंडली वाला फेर टंच मारिस-'अरे कैसे बनेगा मंगलू, बाबाजी तुम्हारे घर बार-बार आएंगे क्या?"

मंगलू अउ दुलारी एक-दूसर ल देखिन। दुलारी ह अंगना म बंधाय गाय डाहर इसारा करिस। त मंगलू ह बाबाजी ल फेर अरजी करिस -'मोर करा ए गाय भर हे बाबाजी, गाभिन हे, येला मैं आपमन ल देवत हंव।"

'अरे गाय ल बाबाजी कार म बइठार के लेगही का? गाय ल देवत हस तेखर ले गाय के कीम्मत दे दे।"-मंडली वाला फेर गुर्रइस।

मंगलू सोंच म परगे। दुलारी चांउर के चुम डी डाहर इसारा करिस। मंगलू समझगे, कथे-'बस ये चाउंर हे गुरुददा।"

त गुरुददा मुसकावत कथे- 'ठीक हे मंगलू, मोला स्वीकार हे। फेर ये चांउर ल लेगे बर घलो जघा नइहे, येला बेचके तैं पइसा लान देबे। मैं चलत हंव, देरी होवत हे।"

अतका कहिके बाबाजी खड़े होगे। मंगलू फेर हाथ जोरके बिनती करिस-'बाबाजी, दुलारी आपमन बर भोग बनाए हे, किरपा करके थोरिक पा लेतेव।"

बाबाजी कुछु कतिस तेखर पहलीच मंडली वाला के मुंहू फेर चलगे -'बाबाजी किसी के घर पानी भी नहीं पीते, तुम्हारे घर खाएंगे कैसे?

अतका सुनिस त दुलारी हाथ म धरे खीर के कटोरी ल अपन अंचरा म ढांकलिस। बाबाजी मंडली के संग निकलगे। पाछू-पाछू मंगलू चांउर ल बेचे बर निकलगे। बेच के सिध्धा गंउटिया घर गिस। मुहाटी म ठाढ़े गउंटिया के दरोगा ह ओला उहिच करा रोक दिस। कथे-'अरे ठाहर, कहां जाथस? भीतरी म महराजमन गंउटिया संग भोजन करत हें। तहूं सूंघ ले हलुवा, पूड़ी इंहा ले ममहावत हे। अउ दरसन करे बर होही त पाछू आबे। खा के उठहीं त सबो झन बिसराम करहीं।"

'मैं तो बाबाजी ल दक्छिना देबर आए हंव दरोगा भइया।" - मंगलू ह बताइस।

'अरे त मोला दे दे ना, मैं दे देहूं। अउ कहूं भीतरी जाहूं कहिबे त मैं नइ जावन दंव। गंउटिया मोला गारी दीही।"- दरोगा किहिस।

मंगलू ह पइसा ल दरोगा ल देके अपन घर लहुटगे। घर आके देखथे, दुलारी परछी म खड़े, कोठ म लगे फोटू ल निहारत राहय, आंखी डबडबाए राहय। मंगलू ह घलो वो फोटू ल देखिस, जेमा माता सवरीन ह भगवान राम ल सुंदर परेम से बोईर खवावत राहय।

     - ललित मानिकपुरी




गुरुवार, 6 नवंबर 2014

'चीटी की रोटी"

                                                    
                                                          कहानी- ललित दास मानिकपुरी

'मम्मी, बड़ी जोर की भूख लगी है, रोटी बना दो ना।"  विक्की ने स्कूल से लौटकर घर में पांव धरते ही अपनी मां से कहा।
'हां बनाती हूं रे, पहले हाथ-मुंह तो धो ले।"  यह कहते हुए मम्मी ने झटपट आटा का डिब्बा निकाला और उसे गूंधने के लिए बर्तन में डाल ही रही थी कि बिजली चली गई। घनघोर घटाओं के बीच बिजली जोर की चमकी थी। मम्मी की आंखें एकाएक छप्पर की ओर उठ गईं, जहां से बारिश शुरू होते ही पानी की कई धाराएं सीधे कमरे में गिरती हैं। सोने की तो दूर, बैठने तक की जगह नहीं बचती। सारी रात जागते हुए आंखों-आंखों में काटनी पड़ती है। बिजली की कड़क के साथ मम्मी के माथे पर चिंता की अनगिनत लकीरें उभर आईं। बारिश के साथ आने वाली परेशानियों का ख्याल करते-करते आंटा गूंधती रही। आंखें खुली थीं, लेकिन मन में तस्वीरें कुछ और चल रही थीं। मन ही मन बुदबुदानी लगी - आज फिर होमवर्क नहीं कर पाएंगे बच्चे, पिंटू तो पहले से ही बीमार है। कहीं इनकी भी तबीयत न बिगड़ जाए।  छानी में तिरपाल ढंकने के लिए कहां से लाऊं पैसे? घर में फूटी कौड़ी नहीं। 21 दिन हो गए जनाब को घर नहीं आए। दुनिया में अकेले यही एक ट्रक ड्राइवर हैं। उन्हें क्या है, घर तो मैं संभालती हूं। 
तभी खुशबूू भी स्कूल से आ गई। उसने भी कहा- मम्मी मैं भी रोटी खाऊंगी। मम्मी ने देखा कि  आंटा कम था, सो उसने सुबह का बचा हुआ भात और नमक डालकर सान दिया।  चूल्हा जलाया और मोटा-सा पो दिया तवे पर। कुछ ही देर में रोटी पक गई। विक्की तो तैयार बैठा था। पेट में उसके चूहे कूद रहे थे। रोटी की महक से वह और बेचैन हुआ जा रहा था। उससे रहा न गया। उधर मम्मी दीया जला रही थी और इधर विक्की ने तवे से गरमागरम रोटी सरकाकर थाली में ले ली और अचार का टुकड़ा लेकर शुरू हो गया।  वाह... मजा आ गया, पहला कौर चबाते हुए उसने यही कहा।  फिर कुछ न बोला, बस खाता ही गया। तब तक दूसरी रोटी भी पक गई। उसका आधा भी उसे और मिल गया और आधा हिस्सा छोटी बहन खुशबू को। तीसरी रोटी तैयार होते ही मम्मी ने पिंटू को उठाया। 'बेटा, चल उठ, रोटी खाले, फिर दवाई खाना, आज भात डाल के बनाई हूं रोटी, तुझे पसंद है ना।" ऐसा कहते हुए मम्मी ने उसके सामने थाली रख दी। पिंटू का माथा ठनका, उसने रोटी को गौर से देखा, फिर बोला- ' मम्मी, रोटी में कौन सा भात डाली हो? कहीं थाली में रखा वही भात तो नहीं, जिसे बुखार के कारण मैं सुबह नहीं खा पाया था? मम्मी ने कहा- 'हां, वही।"
'अरे उसमें तो चीटी थी, मैंने दोपहर को खाने के लिए देखा तो बहुत सारी चीटियां थीं। मैंने झट ढंक दिया था।"- पिंटू बोला। 
इतना सुनते ही खुशबू दीये के पास अपनी थाली ले गई। उसने देखा कि रोटी के ऊपरी हिस्से में ही ढेरों चींटियां दिखाई दे रही हैं। वह चिल्लाई 'मम्मी..., देखो न रोटी में कितनी चींटियां हैं।"  मम्मी भी देखते ही बोल पड़ी-'अरे बाप रे।"  अब सबने पिंटू की रोटी देखी, उसमें भी चींटियों की भरमार थी।
'अब मैं क्या खाऊं मम्मी?"- खुशबू बोली। इतने में मम्मी ने कहा - 'अब क्या बनाऊं बेटा कुछ नहीं है, चाय बना देती हूं, पी लेना।"
इतना सुनते ही विक्की ने कहा- थैंक्स, भगवान जी। अच्छा हुआ मैंने पहले ही रोटी खा ली। नहीं तो चाय पी के सोना पड़ता। आज चींटी की रोटी खाई है, वाह, बिलकुल नया डिश। हा..हा..हा..। यह सुनकर सभी हंस पड़े।
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छत्तीसगढ़ी कहिनी

                                 उतलइन

                                                                                              - ललित दास मानिकपुरी

''अरे कहाँ जाबे रे, आज तो तोला स्कूल लेगिच के रइहौं।"" अइसे काहत अउ चंदू ल कुदावत-कुदावत गुरुजी कपड़ा सुद्धा तरिया म चभरंग ले कूद परिस। लद्दी म गोड़ बिछलगे, अउ गुरुजी चित गिरगे। ओला देख के चंदू कठ्ठलगे। ''बने होइस रे.., बने होइस"" काहत-काहत, तरिया म तउरत ए पार ले ओ पार भागगे।
एती गुरुजी लद्दी म सनाय गिरत-परत तरिया ले निकलिस, खोरावत-खोरावत अपन घर पहुँचिस। गोड़ लचक गे राहय। जस बेरा बितिस तस पीरा बाढ़िस। अब तो गुरुजी रेंगे घलो नइ सकत राहय। गुरुजी परछी म खटिया ऊपर गोड़ लमाए बइठे राहय। ''हे राम, हे भगवान"" जपत राहय। मने-मन खिसियावत राहय- ''सरकार के काहे, फरमान जारी कर दिस। 'हर लइका ल हर हाल म स्कूल म भर्ती करना हे, कोनो छूटना नइ चाही।" भले गुरुजी के परान छूट जाय। अरे महूँ चाहथँव,  गाँव के सबो लइका बनें स्कूल आवँय, पढ़ँय-लिखँय, फेर नइच आहीं तब मैं काय करिहौं। फेर न.. ही.., नवा कानून बन गे हे, 'नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम।" नौकरी म तलवार लटके हे, अब गोड़ टूटय ते, मूड़ फूटय, गाँवभर के लइका ल भर्ती करनचहे। हे राम, हे भगवान...। हे राम, हे भगवान...।""
ओतके बेरा चंदू ल धरके ओखर ददा मेघनाथ पहुँचिस। कथे-''गुरुजी..., ए गुरुजी, मोर लइका तोर काय बिगाड़े हे? तैं काबर कुदाथस एला?
गुरुजी चंदू के ददा डाहर देखके कथे। ''अरे मोला काय पूछथस मेघनाथ, तोर टूरा ल पूछ, ये नलायक काय करत रिहिस हे। मैं तो तोर लइका ल स्कूल म भर्ती करना चाहथौं। तीन घँव होगे, तुहँर घर जावत, तुमन तो मिलव नहीं, तोर टूरा घलो देखिस ते भागिस। अब का करँव? अँई, आज स्कूल म भर्ती करे के आखरी दिन आय। काली ले कक्षा लगना शुरू  हो जाही, आज एला भर्ती कराना जरूरी हे।""
अतका सुनिस ते चंदू अपन हाथ ल छोड़ाके पल्ला होगे।
गुरुजी कथे ''देखे भागगे न? अउ अब एती देख, काय बिगाड़े हे कथस न तोर टूरा ह, त देख बने"" गुरुजी अपन गोड़ ल देखइस।
''ए का होगे गुरुजी, तोर गोड़ कइसन फूल गे हे?"" मेघनाथ पूछिस।
गुरुजी सब बात ल बताइस '' मेघनाथ! तोर टूरा ह दिखत के सिधवा हे अउ बदमासी म अउवल हे।  बिजली खंभा म चढ़त रिहिस हे। ओ तो मैं स्कूल जावत देख परेंव, नइ ते तार म चटक के मर जतिस। चिल्लायेंव त उतर के भागे लागिस। पाए रतेंव त धर के स्कूल लेगेे रतेंव। फेर, तोर टूरा ह तरिया म कूद के तउरत भाग गे, अउ मैं मरत-मरत बाँचेंव।""
अतका सुनिस त मेघनाथ सरमिंदा होगे।
गुरुजी कथे '' मेघनाथ, ठाढ़े झन र, कुर्सी म बइठ। मोर बात के रिस झन करबे, तोर टूरा घातेच उतलइन हे। ओला स्कूल भेज। मैं ओला परेम से पढ़ाहूँ। सरकार के डाहर ले फोकट म किताब मिलही। मध्याह्न भोजन म रोज पेट भर खाय बर मिलही। अरे अउ का चाही। अभी ओहा इती-वोती किंचरत रइथे। अमरया म ए डारा ले ओ डारा सलगत रइथे। नइ ते यमराज कस भँइसा म बइठ के तरिया भर तउरत रइथे। उहाँ ले निकलही त बस्तीभर किंजरही। कभू साइकिल दुकान म बइठे रही त कभू बिजली वाला मन के पाछू-पाछू घूमत रही। अरे अइसने करही त काय करही जिनगी म?""
मेघनाथ कथे '' तैं काहत तो बने हस गुरुजी, फेर ओखर मनेच नइहे पढ़ई म, त काय करँव?""
गुरुजी किहिस ''काय करँव झन क, लइका के स्कूल में भर्ती होना अउ पढ़ना-लिखना जरूरी हे। अरे दाई-ददा ह लइका के पढ़ई बर चेत नइ करही त गुरुजीच ह काय करही।""
मेघनाथ कथे- '' मैं तो पउर साल के ओला स्कूल भेजहूँ कहेंव गुरुजी, फेर नोनी ल पाही-खेलाही कहिके ओखर दाई ह एसो राहन दे कहि दिस। अब टूरा घुमक्कड़ होगे हे। घरो म रही त ओला टोरही, ओला फोरही। काली रेडियो ल खोलके बिगाड़ दिस, अउ आज पंखा ल छिहीं-बिहीं कर दिस। खिसियाएंव त भागगे। अब काय करँव? जउन ओखर भाग म होही तउन बनही।
गुरुजी कथे- अरे लइका भर्ती नइ होही भइया, त सरकार ह मोर भाग ल बिगाड़ दीही। कइसनो करके तैं काली ओला स्कूल लान।
 बिहान दिन गुरुजी खोरावत-खोरावत स्कूल जाए बर निकलिस। स्कूल के तीरेच म पहुँचे रिहिस। ओतके बेरा लइका मन डराए-घबराए भागत-भागत निकलत रिहिन। ''चटकगे-चटकगे"" चिल्लावत रिहिन।
गुरुजी पूछिस ''का चटकगे रे, अउ तुमन काबर हँफरत भागत हावव?"" 
लइका मन बताइन- ''गुरुजी-गुरुजी, पंखा के तार टूट गे हे। राजू, मोहन अउ गोलू चटक गेहे।""
अतका सुनिस त गुरुजी के धकधकी चढ़गे। ए काय होगे भगवान, काहत हड़बड़ी म दउड़ परिस। जइसे दउड़िस, गोड़ के हाड़ा रटाक ले टूटे कस लागिस, अउ गुरुजीचक्कर खाके गिरगे। मुड़ी फूटगे, बेहोस होगे।
 तभे स्कूल के पाछू डाहर ले चंदू ह लइका मन के चिल्लई ल सुनगे दउड़त अइस। करेंट म चटके के बात ल सुनिस ते सिद्धा स्कूल के परछी डारह भागत गिस। कुर्सी ल पटकके रटाक ले टोरिस, अउ ओखर खूरा ल धर के तार ल भवाँ के मारिस, चटके लइका मन छटकके भुइयाँ म गिरिन।
चंदू देखिस कि बिजली तार ह लटकत हे, फेर कोनो चटक जही। अइसे कहिके टेबल ल, बिजली के मीटर डाहर तीर के चढ़गे, अउ मेन स्वीच ल गिरा दिस। तार म बिजली करेंट बंद होगे। फेर देखिस कि लइका मन बेहोस परे हे। दउड़त डॉक्टर ल बला के लान डरिस। बात ल सुनिस त गाँववाला मन घलो सकलागें।
डॉक्टर के दवई-पानी म तीनों लइका ठीक होंगे। गुरुजी ल घलो अराम लागिस। तब सब बात ल लइका मन गुरुजी ल बताइन। गुरुजी भौंचक होगे। ओला ये समझत देरी नइ लागिस कि बिजली वाला मन के संग किंजरत-किंजरत चंदू ह ये सब ज्ञान पाहे।
गुरुजी चंदू ला तीर म बलाके पोटार लिस, अउ किहिस- ''साबास बेटा, साबास। आज तैं अपन ये लइका मन के परान बचाके महूँ ल बचादेस। कतको कहेव सरपंच ल, स्कूल के छानी-परवा अउ बिजली-विजली के मरामत करा दे, फेर कोनो धियान नइ दिस। आज लइका मन ल कुछू हो जतिस, त मैं का जवाब देतेंव? चंदू ल कथे बेटा आज तैं देखा देस कि उतलइन नइ हस, बहुत हुसियार हस, फेर स्कूल काबर नइ आवस। अब ले रोज स्कूल आबे, मैं तोला पढ़ाहूं-लिखाहूं। एक दिन तें बहुत बड़े आदमी बनबे।""
गुरुजी के परेम पाके चंदू रोज स्कूल आए लगिस अउ पढ़ई में घलो अउवल होगे। एक दिन स्कूल म संदेस आइस, चंदू के चयन वीरता पुरस्कार बर होहे। घातेच उतलइन चंदू ह आज स्कूल अउ गाँव के गौरव बनगे।
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मंगलवार, 4 नवंबर 2014

छत्तीसगढ़ी कहानी : बइगा के बहू




                                                                                                                                      - ललित दास मानिकपुरी

अकड़म-बकड़म कउहा काड़ी... कोलिहा, कउवां, कारी नारी... भुतका, फुतका, मशान...  मैं तोर बाप, चल भाग, चल भाग.. जय भोले, जय संखर, जय घमखूरहा देवता .. हा फू..., हा फू..., हा फू...।

 बइगा मंतर मार के फूंकत हे। अंगना म बाहरी धर के एती-वोती कूदत हे। बीच म चूंदी-मू डी ल छरियाय, चउदा बछर के नोनी बही बरन बइठे हे। मुहाटी ले परछी के जात ले मनखे जुरियाय हे। ये देखके बइगा के बहू अकबकागे। कालेच गौना होके आए रिहिस। रात बितिस अउ बिहनिया बाहरे-बटोरे बर उठे रिहिस। मने मन सोंचत हे, ये का होवत हे? बहू ल कुरिया ले निकलत देख के ओखर सास बइगिन दाई ह ओखर तिर अइस। बहू ओला पूछीस- 'ये का होवत हे मां?" 

बइगिन दाई किहिस- 'सरपंच के नोनी ल भूत धर ले हे बहू।"
 
बइगा ह मंतर कुड़बुड़ावत, जोर-जोर से फूंकत हे। 'तैं जाबे ते नई जास" काहत अमली के गोजा ल धर लिस अउ नोनी ल फेर सटासट सोंटे लागिस। नोनी किकिया डरिस। बइगा ओखर हाथ ल धरके अंगरी ल कस के मुरकेट दिस, नख ल उखाने लागिस। पीरा के मारे नोनी  छटपटावत हे, रोवत-कलपत हे। बइगा बबा काहत हे-'अब देख भूत कइसे कल्हरत हे।" नोनी के चूंदी ल धर के बइगा लिमउ के रसा चटाइस अउ किहिस 'सरपंच अब उतर के तोर नोनी के भूत। ले जा एला।" 

सवा सौ रुपया भेंट करके सरपंच बइगा के पांव परिस। 'दार-चाउंर भेजवाहूं बबा" किहिस अउ अपन नोनी ल धर के लेगे। 

अइसने एक के पाछू  एक दसों झन ल बइगा झारिस-फूकिस। काखरो पेट पिरावत हे, त काखरो लइका नइ होवत हे। काखरो बइला गंवागे, त काखरो बाई पदोवत हे। सबके बीमारी अउ बिपत्ति के इलाज बइगा करा हे, झार-फूंक अउ ताबीज। एवज म दार-चांउर, रुपया-पइसा, दारू-कुकरा अइसे कतको जिनिस बइगा के अंगना म लोगन कुड़हो देवें। आजो मिलिस। बइगिन दाई ल हांक पारत बइगा कथे-'ए बइगिन... ले धर ओ पइसा।" 

पइसा ल झोंक के बइगिन अपन बहू ल अमरत कथे, 'ले बहू, अब तो घर तूहीं ल चलाना हे, पइसा ल तिहीं धर।"

'रिस झन करबे मां, फेर अइसन कमई के पइसा ल में छुवंव घलो नहीं।"- बहू किहिस। 
अतका सुनिस त बइगा तम-तमागे- 'का केहेस? का ये चोरी-चकारी के पइसा ए?" अरे बइगइ हमर धरम आय, ये हमर धरम के पइसा आय, लोगन हमर पांव पर के देथें। ये कमई ल नइ धरबे त का तोर घरवाला के टेलरी म घर चलही?
 
बहू ससुर के लिहाज राखत चुप होगे अउ कुरिया म खुसरके अपन गोसइयां सूरज ल उठाइस। सूरज कथरी ओ ढे कुहरत राहय। देहें लकलक ले तीपे राहय। बहू अपन सास ल चिल्लाइस-'मां देख तो एला का होगे?" पाछू-पाछू बइगा घलो आगे। सूरज ल देख के कथे- 'काली गांव ल आवत एला बाहरी हावा लग के तइसे लागथे।" बहू कथे- 'एला कोनो बाहरी हावा नइ लगे हे, एला जर धरे हे। अस्पताल लेगे बर परही।" बइगा कथे 'अस्पताल! अरे सारा संसार हमर अंगना म आथे, बने होय बर। हमर लइका ल का हम अस्पताल लेगबो?" अउ फेर दुनिया का कही?"
बइगा बबा नइ मानिस, झारे-फंूके लागिस। सूरज के कंपकंंपी छूटत राहय। बहू कथरी उपर कथरी ओ ढावत राहय। पहर बीत गे। देहेें ले तरतर-तरतर पछीना छूटिस त सूरज ल थोरिक बने लागिस। संझा बेरा देहेें फेर अंगरा होगे। बइगा भभूत धरके फेर फूंकिस। तीन दिन होगे जर धरत अउ उतरत। 

सूरज के दसा देखके बहू से रेहे नइ गिस। चुप साइकिल धरके निकलगे अउ पूछत-पाछत डेढ़ कोस दूरिहा आन गांव के डाक्टर ल बला के लान डरिस। सूरज आंखी कान ल छटियाय खटिया म परे राहय। बइगा-बइगिन मुड़ धर के बइठे राहंय। 

डाक्टर किहिस- "एला मलेरिया होगे हे तइसे लागत हे। खून जांच करे बर परही।" 

अतका सुनिस ते बइगा भड़कगे-"मलेरिया का होथे, मैं जानत हंव एला करंजन करे हे। अउ कोन करे हे? ये बहू करे हे। एही हर हे टोनही।"

 डाक्टर सब हाल ल बहू के मुंहू ले सुन डरे राहय। बइगा-बइगिन ल खिसियावत किहिस "अरे बहू ल टोनही काहत सरम नइ आय, ए पढे-लिखे हे, ए मोला बला के नइ लानतिस, ते ये आदमी नइ बांचतिस।"

 सूजी-दवई चलिस अउ सूरज बने होगे। अपन बाई ल कथे 'तंय मोर परान बचादेस लक्ष्मी, मैं तोर उपकार कइसे चुका हूं?" 

बहू अपन कान के झुमका ल हेर के ओखर हाथ म धरा दिस अउ किहिस- "एला बेच के मोर बर कम्प्यूटर लान दे। मैं गांव के लइका मन ल कम्प्यूटर सिखा हूं।"

 सूरज कम्प्यूटर लेके लानिस। बहू गांव के पढ़इया लइका मन ल कम्प्यूटर सिखाय लगिस। महिला मन के कपड़ा घलो खिलय। घर म पइसा सुघर आय लगिस अउ चार समाज म बेटा-बहू के संगे-संग बइगा-बइगिन के घलो मान होये लगिस त बइगा चेत अइस।
 एक दिन अपन बहू ल कथे- "बहू, लइका मन के पढ़े-लिखे बर परछी के जघा छोटे परत हे। ये कुरिया ल फोर के तोर बर मुंडा ढलवा देथंव।" 

बहू कथे- "बाबूजी ए कुरिया में तो देवता गड़े हे अउ एहां तो आप मन लड़का मन ल बइगई सिखाथव।"  

बइगा बबा कथे- "बेटी उमर पहागे फूंकत -झारत, कतको मरिन-कतको बांचिन। तें नइ होतेस त अपन एकलउता बेटा ल गंवा डारतेंव। भगवान मोर पाप के सजा मोर बेटा ल देवत रिहिस, तैं ओखर रक्षा करे। अउ मैं बइगई सिखा के काखरो जिनगी तो नइ बनाए सकेंव, तोर शिक्षा पाके जरूर गांव के लइका मन के जिनगी संवरही। तें जौन कम्पूटर लाने हंस, देवता करा उही ल मढ़ा दे। न रही बांस अउ न बजही बांसरी।"
(नईदुनिया में प्रकाशित और आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित)